Rajat Sharma

ग़रीब सवर्णों के कोटे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का व्यापक सियासी असर होगा

AKBसुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने सोमवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें 3:2 के बहुमत से संविधान के 103वें संशोधन की वैधता को बरकरार रखा गया । इस संशोधन में यह प्रावधान है कि शिक्षण संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरी के लिए जनरल कैटेगरी में आने वाले आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण होगा ।

उच्चतम न्यायालय ने यह भी माना कि इंदिरा साहनी मामले में 50 प्रतिशत आरक्षण की जो अधिकतम सीमा पहले से निर्धारित थी, उसका यह उल्लंघन नहीं है। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद एडमिशन और सरकारी नौकरियों में कुल आरक्षण बढ़कर 59.5 प्रतिशत हो जाएगा।

पहली बार ऐसा हुआ है कि भारत के लोगों ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही को टीवी और सोशल मीडिया पर लाइव देखा, जिसमें जजों ने अपना फैसला सुनाया। सोमवार को चीफ जस्टिस यू यू ललित के कार्यकाल का आखिरी दिन भी था और उन्होंने पद छोड़ने से पहले सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू किया।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने तीन पमुख्य सवाल थे – (1) क्या गरीब सवर्णों को आरक्षण देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है? (2) क्या प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में गरीब सवर्णों को आरक्षण देना संविधान के खिलाफ होगा? और (3) क्या पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित और अनूसूचित जनजाति के लोगों को आर्थिक आधार पर दिए जा रहे आरक्षण से दूर रखना संविधान के प्रावधानों के खिलाफ तो नहीं हैं?

इस मामले पर जजों की राय बंटी हुई थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित और न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट ने इस मामले पर असहमति जताई, वहीं जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण के पक्ष में फैसला सुनाया। सामान्य वर्ग से ईडब्ल्यूएस कोटा का समर्थन करते हुए, न्यायाधीशों ने कहा कि कोटा प्रणाली को अनिश्चित काल तक चलने की अनुमति नहीं दी जा सकती और जातिविहीन और वर्गहीन समाज का मार्ग प्रशस्त करने के लिए एक समय सीमा तय होनी चाहिए।

जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने कहा कि आरक्षण प्रणाली को कुछ समय बाद खत्म किया जाना चाहिए। उन्होंने अपने फैसले में कहा कि संविधान के निर्माता चाहते थे कि आरक्षण के उद्देश्यों को संविधान को अपनाने के 50 साल के भीतर हासिल किया जाए, लेकिन यह आज तक हासिल नहीं हुआ है, और हमारी आजादी के 75 साल पूरे हो चुके हैं।

जस्टिस बेला त्रिवेदी ने अपने फैसले में कहा, ‘ इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में सदियों से प्रचलित जाति व्यवस्था के कारण ही देश में आरक्षण प्रणाली लागू करनी पड़ी । अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गो के साथ होने वाले ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने और उन्हें सवर्णों के साथ प्रतिस्पर्धा में एक समान मैदान देने के लिए रक्षण को लागू किया गया था । आजादी के 75 साल बाद समाज के व्यापक हित में हमें आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।’

जस्टिस पारदीवाला ने कहा, ‘आरक्षण कोई लक्ष्य नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने का एक साधन है और इसे निहित स्वार्थ का रूप नहीं दिया जाना चाहिए। बड़ी संख्या में पिछड़े वर्ग के सदस्यों ने शिक्षा और रोजगार के स्वीकार्य मानकों को हासिल कर लिया है और ऐसे लोगों को पिछड़ी श्रेणियों से हटा दिया जाना चाहिए, ताकि उन वर्गों पर ध्यान दिया जा सके, जिन्हें वास्तव में मदद की जरूरत है।’

जस्टिस माहेश्वरी ने अपने फैसले में कहा, ‘ गरीब सवर्णों के मिलने वाले आरक्षण से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं होता और 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा कोई अटल नहीं है।’

जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा, ‘ गरीब सवर्णों को एक अलग वर्ग के रूप में मान्यता देना एक तर्कसंगत वर्गीकरण है । जैसे समान के साथ असमान व्यवहार नहीं किया जा सकता, वैसे ही असमान के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है। असमानों के साथ समान व्यवहार करना संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का उल्लंघन है।’

दूसरी ओर, चीफ जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस भट ने कहा, ‘ गरीबों के आरक्षण कोटे से एससी/एसटी/ओबीसी के गरीबों को अलग रखना एक तरह से भेदभाव है ,जो कि संविधान के तहत निषिद्ध है । हमारा संविधान अपवाद की अनुमति नहीं देता और यह संशोधन सामाजिक न्याय के ताने-बाने को कमजोर करता है और इसी तरह मूल संरचना को भी।’

चीफ जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस रवींद्र भट्ट ने कहा कि आरक्षण के लिए आर्थिक आधार तय करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। आरक्षण के लिए एक अलग वर्ग बनाना भी संविधान के खिलाफ है और इससे संविधान के मूल ढांचे से खिलवाड़ होता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने गरीब सवर्णों के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी, और इसी उद्देश्य के लिए, संसद ने 103वां संविधान संशोधन पारित किया था । ये संशोधन इसलिए लाया गया था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरक्षणों पर 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा लगा दी थी, और संविधान में संशोधन की ज़रूरत थी। इसी के तहत एससी, एसटी और ओबीसी के अलावा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की एक अलग श्रेणी बनाई गई।

इस फैसले का कई संगठनों ने विरोध किया था और इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। गरीब सवर्णों की श्रेणी में वही आएंगे जिसकी सालाना पारिवारिक आय 8 लाख रुपए से कम हो, जिनके पास खेती लायक जमीन पांच एकड़ से कम हो या जिनके पास 200 वर्ग मीटर से कम वाला रिहाइशी प्लॉट हो।

मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के बहुमत का फैसला कई पहलुओं से ऐतिहासिक है । पहली बात ये है कि इस फैसले को लाइव दिखाया गया और पूरे देश ने जजों को अपने फैसले पढ़े देखा। जजों ने स्पष्ट तर्क दिए, और कहा कि आजादी के समय एक जातिविहीन और वर्गहीन समाज बनने का लक्ष्य तय हुआ था, जिसे अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है । दूसरी बात ये है कि जजों ने सभी को समान अधिकार देने और संसाधनों की कमी वाले परिवारों की मदद करने के लिए सरकार को उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाई । तीसरी बात ये कि जजों ने कहा कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को केवल इसलिए आरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वे सवर्ण हैं।

मोदी सरकार का घोषित उद्देश्य है: “सबका साथ, सबका विकास”। पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि जातियों के नाम पर कई राज्यों में आरक्षण दिये जा रहे थे, जैसे राजस्थान में गुर्जरों को, और महाराष्ट्र में मराठों के लिए कोटा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी को खारिज कर दिया क्योंकि 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा पहले से लागू थी।

समस्या की शुरुआत तब हुई, जब सवर्णों ने भी मांग की कि उन्हें एससी, एसटी या ओबीसी में शामिल किया जाए। इससे जातियों के बीच वैमनस्य पैदा हो रहा था । इसे रोकना जरूरी था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा कर दी । इससे उन लाखों गरीब सवर्णों को मदद मिलेगी, जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं । मोदी ने एससी, एसटी या ओबीसी का कोटा कम नहीं किया। उन्होंने गरीब सवर्णों के लिए अतिरिक्त 10 प्रतिशत कोटा दिया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही राजनीतिक दल हरकत में आ गए। कांग्रेस के नेताओं ने फैसले का स्वागत किया और इसका त्रेय ये कह कर लेने की कोशिश की कि यूपीए -1 के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने जो प्रक्रिया शुरु की थी, यह उसी का परिणाम है । लेकिन एक अन्य कांग्रेसी नेता उदित राज की प्रतिक्रिया ने विवाद खड़ा कर दिया। उदित राज ने सुप्रीम कोर्ट को ‘जातिवादी’ बता दिया। उन्होंने सवाल किया कि इंदिरा साहनी मामले के फैसले के बाद पिछले 30 साल से 50 फीसदी आरक्षण की अधिकतम सीमा जब लागू थी, तो सुप्रीम कोर्ट ने अचानक अपना रुख क्यों बदल दिया।

भाजपा के नेताओं ने फैसले की सराहना की और कहा कि यह गरीबों को सामाजिक न्याय दिलाने के मिशन का दिशा में प्रधानमंत्री मोदी की जीत है। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा, ‘ गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी उन निहित स्वार्थी दलों के चेहरे पर एक तमाचा है, जिन्होंने दुष्प्रचार करके लोगों के बीच झगड़े लगाने की कोशिश की ।’

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पिछले सौ साल से चल रहे सामाजिक न्याय संघर्ष के लिए एक झटका है । उन्होंने सभी समान विचारधारा वाले दलों और संगठनों से अपील की कि वे सामाजिक न्याय की रक्षा के लिए एक साथ आगे आएं।

कांग्रेस द्वारा गरीब सवर्णों का कोटा लागू करने का श्रेय लेने की कोशिश पर मैं कुछ तथ्य बताना चाहता हूं । जनवरी, 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने गरीब सवर्णों की मदद के लिए तौर-तरीके खोजने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट दी जिसमें शिक्षण संस्थानों में एडमिशन और सरकारी नौकरियों में कोटा लागू करने की सिफारिश की गयी थी । मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार इस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकी। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने इस रिपोर्ट पर काम शुरू कर दिया, और कानूनी बाधाओं को दूर करने के बारे में पता लगाया । 2019 में, 103 वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में पारित किया गया , लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई ।

अब जबकि उच्चतम न्यायालय ने गरीब सवर्णों के कोटे को वैध घोषित कर दिया है, कांग्रेस नेता इसका श्रेय लेने की होड़ में लग गये हैं। पर सवाल ये है कि यूपीए सरकार ने चार साल तक रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की । इस सवाल का कांग्रेस नेताओं के पास कोई जवाब नहीं है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका कोई सार्वजनिक रूप से विरोध नहीं करना चाहता, लेकिन बाधा डालने की जरूर कोशिश करता है।

यह लालू यादव की आरजेडी थी जिसने संसद में 10 प्रतिशत गरीब सवर्ण कोटा कानून का विरोध किया था। आरजेडी ने तब आरोप लगाया था कि इस कोटे से एससी/एसटी/ओबीसी के लाभ कम होंगे। जबकि हकीकत ये है कि बिहार में लालू यादव ओबीसी के नेता के रूप में उभरे, रामविलास पासवान दलितों के नेता के रूप में उभरे, और नीतीश कुमार ने उनके राजनीतिक स्पेस पर हमला करने के लिए महादलित और अति पिछड़ा वर्ग बना दिया, लेकिन गरीब सवर्णों की बात किसी ने नहीं की। सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत कोटा अब लालू यादव और नीतीश कुमार, दोनों के लिए एक गंभीर चुनौती होगी, क्योंकि भाजपा को भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूत समुदायों का व्यापक समर्थन मिल सकता है।

Get connected on Twitter, Instagram & Facebook

Comments are closed.