Rajat Sharma

दिल्ली में नृशंस हत्या : क्या ये लव जिहाद तो नहीं ?

akbएक सोलह साल की बेटी की मौत दिल में खौफ पैदा करती है. तस्वीरें देखकर दिल कांप जाता है. बार-बार ये सवाल दिमाग में आता है कि कोई इंसान इतना बेरहम, इतना क्रूर कैसे हो सकता है? आफताब और श्रद्धा वालकर का केस अभी अंजाम तक नहीं पहुंचा है. अभी अपराधी को सज़ा नहीं मिली है और आज उसी तरह का केस हुआ. साहिल ने साक्षी को सरेआम चाकू से गोद डाला. ये पुलिस के लिए एक मर्डर केस हो सकता है, लेकिन समाज के लिए ये ख़ौफ़ पैदा करने वाली घटना है. आज हर माता पिता को अपनी बेटी की सुरक्षा की चिंता होगी. उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि अपनी बेटी को बचाने के लिए करें, तो क्या करें. साक्षी के साथ जो कुछ हुआ उसका ब्यौरा देखकर, रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सबसे पहली बात, साहिल ने अपनी पहचान छुपाकर उससे दोस्ती की (वह अपनी कलाई पर कलावा पहनता था). दूसरी, साक्षी की मां की बात सुनकर ऐसा लगा कि उन्हें साक्षी और साहिल की दोस्ती की जानकारी थी. उन्होंने बेटी को रोका तो बेटी दोस्त के घर रहने चली गई. श्रद्धा वालकर के केस में भी ऐसा ही हुआ था. तीसरी बात, साहिल ने सरेआम साक्षी को मौत के घाट उतार दिया और लोग देखते रहे, किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. ये कैसा समाज है? ये कैसे लोग हैं? क्या उन्हें एक बेटी की चीख़ सुनाई नहीं दी? क्या इस बेटी पर चाकू के वार होते देखकर, उनका दिल नहीं कांपा? ये बहुत चिंता की बात है. सब लोगों को ये समझना पड़ेगा कि अगर किसी ने हिम्मत दिखाई होती तो साक्षी को बचाया जा सकता था. इस तरह की वारदात को देखकर कोई अनदेखा कैसे कर सकता है? शोर मचाना चाहिए था, लोगों को इकट्ठा करना चाहिए था. अपराधी अकेला था, उसे रोकने की कोशिश भी करनी चाहिए थी. एक बार ये सोचना चाहिए था कि आपकी बेटी के साथ भी ऐसा हो सकता है. इस घटना से बच्चों को सबक लेना चाहिए कि माता पिता से बातचीत करना बंद न करें. कोई भी बात हो घर वालों से न छिपाएं. अगर साक्षी ने मां की बात सुनी होती, अगर साहिल उसे तंग कर रहा था, धमका रहा था, ये बात उसने अपने पिता को बताई होती, तो हो सकता है कि वक्त रहते वो कुछ करते, पुलिस को खबर देते, तो आज ये दिन न देखना पड़ता. माता पिता को भी चाहिए कि वो बच्चों की बात सुनें, उनकी भावनाओं को समझें, उन्हें प्यार से समझाएं, अच्छे बुरे का फर्क बताएं. ऐसा नहीं होना चाहिए कि बच्चे, माता पिता के बजाय दूसरों पर भरोसा करने लगें. साक्षी के केस में ऐसा ही हुआ. उसने माता पिता के बजाय, दोस्त पर यकीन किया, उसके घर चली गई. चूंकि साक्षी का परिवार के साथ संपर्क बंद था, इसीलिए साहिल की हिम्मत बढ़ी. उसने साक्षी को अकेली पाकर उस पर हमला किया. और सबसे जरूरी बात – अपराधियों के मन में खौफ पैदा करना पुलिस की जिम्मेदारी है. दिल्ली पुलिस को इसके बारे में सोचना चाहिए. अब साक्षी को वापस तो नहीं लाया जा सकता लेकिन दिल्ली पुलिस जल्दी से जल्दी साहिल को ऐसी सजा दिलवाए, जिससे इस तरह की दरिंदगी करने से पहले कोई भी सौ बार सोचे.

पहलवानों के साथ पुलिस की बदसलूकी ग़लत है

हमारी चैंपियन पहलवानों का मामला इस कदर बिगड़ गया है कि इसे संभालना अब किसी के लिए भी मुश्किल होगा. इसमें हर कोई अपने अपने स्तर पर ज़िम्मेदार है. कहीं न कहीं इसका दोषी है. सबसे बड़ी बात ये है कि पुलिस को पहलवान बेटियों के साथ इस तरह ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए थी, उन्हें सड़क पर घसीटना नहीं चाहिए था. बल प्रयोग की ये तस्वीरें ग़ुस्सा दिलाती हैं. जो भी देखेगा, उसकी हमदर्दी इन पहलवानों के साथ होगी. अगर तर्क ये है कि पहलवानों ने पुलिस से अनुमति लिए के बिना संसद जाने की कोशिश की, क़ानून को तोड़ा और पुलिस के लिए उन्हें रोकना ज़रूरी था, तो सवाल उठता है, क्या इसके लिए इस तरह बल का प्रयोग करना ज़रूरी था? इस मामले में सबसे ज़्यादा ग़लती बृजभूषण शरण सिंह की है, जो अपने बयानों से खिलाड़ियों को भड़का रहे हैं, उन्हें चिढ़ा रहे हैं. उन्हें अपनी ज़ुबान पर लगाम लगानी चाहिए और मामले को और उलझाना नहीं चाहिए. ग़लती खेल मंत्रालय की भी है, जिसने मामले को इतना बढ़ने दिया. ऐसी क्या मजबूरी थी कि समय रहते, इस मामले को सुलझाया नहीं गया? आज ये कहना कि पहलवान राजनीतिक खेल का शिकार हो गए, बेमानी है. ये पहलवान तो शुरु से ही नेताओं को अपने से दूर रख रहे थे, इन्हें राजनीतिक हाथों में क्यों जाने दिया गया? कोई भी समस्या न तो पुलिस की ताक़त से सुलझ सकती है, न टेंट उखाड़ने से. ये मानना पड़ेगा कि जनता की नज़र में बृजभूषण शरण सिंह एक बाहुबली नेता हैं, जिसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है. दूसरी तरफ़ ये पहलवान, देश को मेडल दिलाने वाली बेटियां हैं, चैंपियन हैं, लोगों की सहानुभूति उनके साथ है.

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