Rajat Sharma

अंतरिक्ष-देवास सौदा भ्रष्टाचार का एक ऐसा ‘प्रयोग’ था, जो सफल नहीं हो पाया

akb fullआज मैं आपको सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले के बारे में बताना चाहता हूं। कभी-कभी चुनावी खबरों के शोर में ऐसी खबरें दब जाती हैं, लेकिन देश हित में इस फैसले के महत्व को समझना होगा।

अंतरिक्ष-देवास डील में सोमवार को आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत की वैश्विक छवि से जुड़ा है। कहने को तो खबर इतनी सी है कि सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को देवास मल्टीमीडिया की अपील को खारिज कर दिया, और पिछले साल सितंबर में दिए गए NCLAT (नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल) के आदेश को बरकरार रखा। NCLAT ने नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के उस आदेश को बरकरार रखा था जिसमें प्रमोटरों को कंपनी को बंद करने के लिए कहा गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मतलब है कि देवास मल्टीमीडिया को अब लिक्विडेशन में जाना होगा और कंपनी को बंद करना होगा।

जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस वी. रामसुब्रमण्यम की बेंच ने NCLAT के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें कहा गया था कि देवास को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की वाणिज्यिक शाखा अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन के कुछ अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर ‘कपटपूर्ण तरीके से गैरकानूनी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए’ शामिल किया गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का महत्वपूर्ण कानूनी और राजनीतिक असर होगा और ऐसी संभावना है कि भारत सरकार ICC (इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स) की आर्बिट्रेशन अदालत में देवास की जीत को चुनौती देने के लिए अपनी कानूनी लड़ाई में इसका इस्तेमाल कर सकती है। देवास की कोशिश है कि अदालती आदेशों के बाद विदेशों में भारत की संपत्ति को जब्त कर लिया जाए।

मैं पहले आपको देवास-अंतरिक्ष डील की पूरी कहानी समझाता हूं। देवास मल्टीमीडिया 2004 में ISRO के कुछ पूर्व अधिकारियों और वर्ल्ड स्पेस के कुछ कर्मचारियों द्वारा शुरू की गई एक कंपनी थी। एक साल बाद 28 जनवरी 2005 को देवास और अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत ISRO, देवास को 167 करोड़ रुपये में 12 साल के लिए 2 संचार उपग्रह लीज पर देने वाला था।

यह स्टार्टअप कंपनी ISRO द्वारा 766 करोड़ रुपये की लागत से बनाए गए 2 उपग्रहों पर एस-बैंड स्पेक्ट्रम ट्रांसपॉन्डर्स का इस्तेमाल करके भारत में मोबाइल प्लेटफॉर्म पर मल्टीमीडिया सर्विस उपलब्ध करवाने वाली थी। 2011 में जब टेलिकॉम सेक्टर में 2जी टेलिकॉम घोटाला सामने आया तो तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने जल्दबाजी में इस डील को रद्द कर दिया।

आरोप लगे कि देवास को एस-बैंड स्पेक्ट्रम आवंटित करना एक नई फर्म की मदद करने के लिए एक ‘स्वीट डील’ के अलावा और कुछ नहीं था। 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई, तो CBI को सौदे की जांच करने के लिए कहा गया। 2016 में सीबीआई ने देवास, अंतरिक्ष और इसरो के 8 अधिकारियों के खिलाफ ‘आधिकारिक पदों का दुरूपयोग करके स्वयं एवं अन्यों को अनुचित लाभ पहुंचाने के इरादे से रचे गए आपराधिक षड्यंत्र में भूमिका अदा करने के लिए’ चार्जशीट दायर की।

जिन 8 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई उनमें इसरो के पूर्व अध्यक्ष जी. माधवन नायर का नाम भी था। CBI ने इन अधिकारियों पर सरकारी खजाने को 578 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया। प्रवर्तन निदेशालय ने अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन के एक पूर्व प्रबंध निदेशक और देवास मल्टीमीडिया के 5 अधिकारियों के खिलाफ Prevention of Money Laundering कानून के तहत चार्जशीट भी दायर की। ED की चार्जशीट में दावा किया गया कि 2005 के सौदे के बाद मिली 579 करोड़ रुपये की फंडिंग का 85 फीसदी हिस्सा विभिन्न बहानों से अमेरिका ट्रांसफर किया गया।

अंतरिक्ष-देवास डील रद्द होने के बाद स्टार्टअप के निवेशक विदेश में मध्यस्थता के लिए गए। उन्होंने वाणिज्यिक आर्बिट्रेशन के लिए नीदरलैंड में ICC ट्रिब्यूनल के समक्ष और पूंजीनिवेश आर्बिट्रेशन के लिए भारत-मॉरीशस और भारत-जर्मनी द्विपक्षीय निवेश संधियों के तहत अपील दायर की। इन सभी मामलों में भारत के खिलाफ फैसला आया। अक्टूबर 2020 में देवास को 835 करोड़ रुपये का आर्बिट्रेशन अवॉर्ड मिला।

इसकी वजह से फ्रांस और कनाडा की अदालतों ने बकाया वसूलने के लिए इन देशों में भारत की संपत्ति को कुर्क करने का आदेश दिया। कनाडा ने वसूली के लिए भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण और एयर इंडिया की संपत्ति को जब्त करना शुरू भी कर दिया। इन कदमों ने विदेशों में भारत की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने देवास मल्टीमीडिया कंपनी को फर्जी बताते हुए उसके परिसमापन (लिक्विडेशन) का आदेश दे दिया है, भारत को ये सारे केस फिर से लड़ने होंगे। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली यूपीए सरकार किस तरह ऐसे फैसले लिए जिनसे वैश्विक स्तर पर भारत की साख को बट्टा लगा।

आसान भाषा में कहें तो यह कुछ ऐसा ही था कि कोई मेरी ही दुकान से कोई सामान खरीदे और फिर उसे 10 गुना ज्यादा कीमत में मुझे ही बेच दे, और मैं खुद ही उसे ऐसा करने की परमिशन दूं। मनमोहन सिंह के शासनकाल में भारत सरकार ने यही किया। यूपीए सरकार ने एक कंपनी को 12,000 करोड़ रुपये का एस-बैंड स्पेक्ट्रम 1,000 करोड़ रुपये की मामूली कीमत पर दे दिया।

मामला खुलने के डर से डील जल्दबाजी में रद्द कर दी गई। अब वही कंपनी भारत सरकार से हजारों करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग कर रही है। कंपनी अपना मुआवजा वसूलने के लिए विदेशों में भारत सरकार की संपत्ति को जब्त करना चाहती है। यह मामला 15 साल से ज्यादा पुराना है। 2004 में यूपीए सरकार के सत्ता में आने के कुछ महीने बाद ही खेल शुरू हुआ।

इसरो के एक पूर्व अधिकारी डॉ. एम. चंद्रशेखर ने देश को लूटने की नीयत से एक कंपनी बनाई। इस कंपनी में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा जैसे देशों के निवेशक रखे गए। इनकी योजना थी कि सरकार से सस्ते में एस-बैंड स्पेक्ट्रम लिया जाए और फिर हजारों करोड़ रुपये कमाए जाएं। इस कंपनी के साथ इसरो की सहयोगी कंपनी अंतरिक्ष कॉरपोरेशन ने एक समझौता किया। इस समझौते के तहत देवास मल्टीमीडिया कंपनी को भारत के लिए 2 सैटेलाइट बनाने थे और भारत में डिजिटल और मल्टीमीडिया सेवाएं देनी थीं। सरकार 1,000 करोड़ रुपये में स्टार्टअप कंपनी को एस-बैंड स्पेक्ट्रम देने के लिए राजी हो गई।

वहीं, दूसरी ओर उसी सरकार ने अपनी ही कंपनियों, BSNL और MTNL को एस-बैंड स्पेक्ट्रम प्रदान करने के लिए 12,500 करोड़ रुपये की मांग की। साफ है कि उस वक्त सरकार में बैठे अफसरों ने जानबूझ कर देश के हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, सरकारी खजाने को हजारों करोड़ रुपये का घाटा हुआ। इस दौरान स्टार्टअप कंपनी ने कोई काम नहीं किया, और 2011 में 1.75 लाख करोड़ रुपये का 2जी टेलीकॉम घोटाला उजागर हो गया। चूंकि इस घोटाले में मनमोहन सिंह की सरकार बुरी तरह घिर गई थी, इसलिए उसने घबराकर अंतरिक्ष-देवास डील को जल्दबाजी में रद्द कर दिया।

देवास ने इसके बाद इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स यानी ICC की आर्बिट्रेशन अदालत में मुकदमा कर दिया। जब वहां सुनवाई शुरू हुई तो मनमोहन सिंह की सरकार ने वकील तक नियुक्त नहीं किया। आखिरकार ICC ने भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए खुद ही एक वकील नियुक्त किया, लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार ने वकील को मामले की कोई जानकारी मुहैया नहीं कराई। आखिरकार ICC आर्बिट्रेशन अदालत ने विदेशों में भारत सरकार की संपत्ति को कुर्क करके बकाया राशि की वसूली का आदेश दे दिया। इसके बाद देवास के इन्वेस्टर्स ने अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की अदालतों में भी मामले दायर किए।

इस बीच 2004 में मोदी सरकार सत्ता में आ गई। उसने एक तरफ तो तुरंत CBI और ED को मामले की जांच के आदेश दिए और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय अदालतों में मुकदमों की पैरवी शुरू की। इसके साथ-साथ मोदी सरकार के निर्देश पर अंतरिक्ष कॉरपोरेशन ने NCLT में देवास मल्टीमीडिया के खिलाफ अपील की और कहा कि कंपनी को बंद कर दिया जाए क्योंकि इसे फ्रॉड करने की बदनीयती से ही बनाया गया था। NCLT ने कंपनी को बंद करने का फैसला सुनाया। देवास ने इसके बाद NCLAT के समक्ष अपील की, लेकिन NCLAT ने आदेश को बरकरार रखा। देवास फिर सुप्रीम कोर्ट गई और सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी याचिका खारिज कर दी।

कुल मिलाकर देवास मल्टीमीडिया डील की यही कहानी है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि जब कोई कंपनी धोखाधड़ी के इरादे से ही बनाई गई थी, तो मुआवजे के लिए उसके दावे पर विचार करने का कोई मतलब नहीं है। भारत सरकार अब आईसीसी आर्बिट्रेशन अदालत और अन्य विदेशी अदालतों में जा सकती है और मुआवजे के लिए देवास के दावे को खारिज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सामने रख सकती है।

ICC आर्बिट्रेशन अदालत ने भारत सरकार से देवास को 56.2 करोड़ डॉलर का भुगतान करने का आदेश दिया था। इस रकम पर ब्याज को मिलाकर अब देवास के शेयरहोल्डर्स भारत से 1.2 अरब डॉलर या करीब 90 अरब रुपये वसूलना चाहते हैं। देवास के निवेशक अमेरिका की अदालत में गए और वहां भी उनके पक्ष में ही फैसला आया। फ्रांसीसी अदालत ने भी देवास निवेशकों के पक्ष में आदेश दिया। कनाडा की एक अदालत ने भी देवास के पक्ष में फैसला सुनाया और भारतीय संपत्तियों को कुर्क करने का आदेश दिया।

यह मनमोहन सरकार की ऐसी विरासत है, जिससे अब मोदी सरकार को निपटना पड़ रहा है। इससे दुनिया में भारत की छवि को काफी नुकसान पहुंचा है। यूपीए सरकार ने विदेशी अदालतों के सामने अपना पक्ष रखते हुए ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ प्रावधानों तक को शामिल नहीं किया और ऐसे में ये सारे केस हार गई।

एक कंपनी को विदेशों में भारत की संपत्ति को जब्त करने, उसे बेचकर हर्जाने के भरपाई करने का हक मिल जाए, इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी कंपनी को दिल्ली में रेल भवन या शास्त्री भवन जैसी सरकारी इमारत को जब्त करने का हक मिल जाए। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी हुई है।

सवाल ये है कि जो कंपनी ISRO के पुराने अफसर ने बनाई उससे कांग्रेस की सरकार ने डील ही क्यों की? जिस एस-बैंड स्पेक्ट्रम के लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने BSNL से 12 हजार करोड़ रुपये वसूले, वही एस-बैंड स्पेक्ट्रम देवास को सिर्फ एक हजार करोड़ रुपये में क्यों दे दिया? सरकार ने जब डील रद्द की, तो उसमें देश की सुरक्षा का प्रावधान क्यों नहीं डाला? अगर यूपीए सरकार ने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का क्लॉज जोड़ा होता, तो देवास की याचिका ICC अदालत द्वारा खारिज कर दी जाती।

सबसे जरूरी सवाल यह है कि उस समय हमारी सरकार ने ICC अदालत में वकील नियुक्त क्यों नहीं किया? क्या इस वजह से देवास मल्टीमीडिया के पक्ष में एकतरफ फैसला हुआ? उस समय सरकार ने देवास कंपनी को खत्म करने की कार्यवाही क्यों नहीं की?

ये सारी बातें इत्तेफाक नहीं थीं। ये संयोग नहीं था, ये ‘करप्शन का प्रयोग’ था। वह तो वक्त रहते नरेन्द्र मोदी की सरकार ने केस की गंभीरता को समझा, सुप्रीम कोर्ट में केस की पैरवी की और अब देवास मल्टीमीडिया के खिलाफ पहली लड़ाई जीती है। अभी इंटरनेशनल कोर्ट में भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। उम्मीद है कि अब ICC की अदालत भी अपने फैसले की समीक्षा करेगी और आदेश देगी कि धोखाधड़ी के इरादे से बनाई गई कंपनी को मुआवजा पाने का कोई हक नहीं है।

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