Rajat Sharma

राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर पर्यावरण संरक्षण नहीं हो सकता

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आज मैं आपको बताना चाहता हूं कि सरहद पर दुश्मन का मुकाबला करने के लिए हमारी फौज को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि सरहद पर साजो-सामान पहुंचाने के वास्ते बॉर्डर फीडर रोड्स को चौड़ा करने की इजाजत लेने के लिए सेना को अदालत में केस लड़ना पड़ रहा है? क्या आप इस बात पर यकीन कर सकते हैं कि बॉर्डर तक पहुंचने के लिए अगर फौज को अच्छी सड़क चाहिए तो उसके लिए भी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है? क्या आप मान सकते हैं कि भारत में ऐसे भी गैर-सरकारी संगठन हैं जो कोर्ट से कहते हैं कि सेना को बॉर्डर की सड़कों को चौड़ा करने की इजाजत न दें क्योंकि ऐसा करने के लिए पेड़ों को काटना होगा।

हमारी फौज को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ रही है कि पेड़ों के कारण रास्तों को चौड़ा करने से न रोकें। हमारी फौज ने अदालत को बताया है कि दुश्मन सरहद के उस पार पूरी तैयारी के साथ जम चुका है और हमें बॉर्डर पर सड़कों को 5.5 मीटर से बढ़ाकर 10.5 मीटर करने की जरूरत है।

हो सकता है कि आपको इस पर यकीन न हो। जब सवाल देश की सुरक्षा का हो तो कौन हमारी फौज को रोक सकता है, लेकिन ये सही है। हमारे देश में यही हो रहा है। मामला सेना के आधुनिकीकरण का हो, बात सेना को अत्याधुनिक हथियार देने की हो, मामला सरहद पर आधारभूत संरचना विकसित करने का हो, या फिर सेना के मूवमेंट को और तेज करने के लिए सड़कें बनाने का हो, हर मामले में कोई न कोई शख्स या एनजीओ कोर्ट पहुंच जाता है। कोई व्यवस्था का सवाल उठाता है, कोई नियमों का हवाला देता है, और कोई पर्यावरण का मुद्दा उठाकर फौज का रास्ता रोक देता है।

कोर्ट भी सभी पक्षों को सुने बिना फैसला नहीं कर सकता। कई बार तो सालों साल तक मामला अदालत में ही चलता रहता है, तारीख पर तारीख मिलती रहती है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं अचानक ये सारी बातें क्यों कह रहा हूं। मंगलवार को, सुप्रीम कोर्ट उत्तराखंड में भारत-चीन सीमा की ओर जाने वाली फीडर सड़कों को चौड़ा करने के लिए केंद्र की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसका एक NGO ‘सिटिजन्स फॉर ग्रीन दून’ ने जमकर विरोध किया है। इस NGO का कहना है कि पेड़ों को काटने से पर्यावरणीय आपदा आ सकती है।

जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि सतत विकास को राष्ट्रीय सुरक्षा आवश्यकताओं के साथ संतुलित करना होगा। क्या सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय सशस्त्र बलों की चिंताओं को पर्यावरण के आधार पर नजरअंदाज कर सकता है, विशेषकर सीमा पर हालिया घटनाओं को देखते हुए?’

बेंच ने यह भी कहा, ‘भारत की रक्षा के लिए सड़कों को बेहतर बनाने की जरूरत है। दूसरी तरफ की तैयारियों को देखिए। क्या देश की रक्षा जरूरतों पर पर्यावरण भारी पड़ेगा या इसे संतुलित किया जाना चाहिए?’ अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने मौजूदा सड़कों को 7 से 10 मीटर चौड़ा करने की जरूरत पर एक विस्तृत प्रस्तुति दी, क्योंकि शीर्ष अदालत ने पहले सशस्त्र बलों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए केवल 5.5 मीटर की चौड़ाई की इजाजत दी थी।

अटॉर्नी जनरल ने कहा, ‘1962 की जंग में हमारे सैनिकों तक सप्लाई नहीं पहुंच पा रही थी और उन्हें सीमा चौकियों तक पहुंचने के लिए पहाड़ों पर लंबी चढ़ाई करनी पड़ती थी। हम जानते हैं कि इसका नतीजा क्या हुआ। बॉर्डर के हालात और चीनी सरकार द्वारा पारित नए कानून को देखते हुए, सीमावर्ती क्षेत्रों के विवाद पर पड़ोसी देशों के दावों को खारिज करने के लिए भारी तोपखाने, टैंक, मिसाइल लॉन्चर और सैनिकों की तेज आवाजाही के लिए बुनियादी ढांचे का तुरंत निर्माण करने की जरूरत है।’

मंगलवार की रात अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में हमने उत्तराखंड में भारत-चीन सीमा पर अंतिम सीमावर्ती गांव माणा की ओर जाने वाली संकरी फीडर सड़क को दिखाया फथा। भारी सैन्य साजो-सामान ढोने के लिए इस सड़क को युद्ध स्तर पर चौड़ा करने की जरूरत है, लेकिन अब मामला देश की शीर्ष अदालत तक पहुंच गया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सेना को कोर्ट में दलीलें पेश करनी पड़ें, ये दुनिया में शायद ही कहीं और होता होगा। कुछ लोग कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को पहली ही नजर में इस तरह के केस को खारिज कर देना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को भी कानूनी प्रक्रिया का पालन करना होगा और सभी पक्षों की दलीलों को सुनना होगा।

अटॉर्नी जनरल को सीमा पर चीन द्वारा किए जा रहे भारी सैन्य निर्माण के बारे में शीर्ष अदालत को बताना पड़ा। चीन ने मिसाइल और रॉकेट तैनात किए हैं, LAC तक जाने वाली सड़कें बनाई हैं, बड़े-बड़े आर्मी कैंप बनाए हैं।

दूसरी तरफ हमारी फौज को बॉर्डर तक चौड़ी सड़कें बनाने के लिए भी कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। मंगलवार को हमारे संवाददाता आनंद प्रकाश पांडे ने केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी से बात की। गडकरी ने कहा कि चार धाम परियोजना के तहत 825 किलोमीटर सड़क में से लगभग 600 किलोमीटर सड़क पर काम पूरा हो चुका है और सिर्फ 225 किलोमीटर सड़क पर काम बाकी है। उन्होंने कहा कि चूंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है, और रक्षा मंत्रालय ने भी अपना पक्ष रखा है, इसलिए अदालत अब जो भी फैसला लेगी उसके हिसाब से काम शुरू होगा। अटॉर्नी जनरल ने अदालत को यह दलील देने के लिए बॉर्डर की सड़कों के नक्शे दिखाए कि इन फीडर सड़कों को चौड़ा करने की जरूरत है।

चीन अपनी तरफ बड़ी तेजी से बॉर्डर एरिया को विकसित कर रहा है। उसने लद्दाख से लेकर उत्तराखंड, सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश तक, अपने इलाके में अच्छी सड़कें बना दी हैं, एयरफोर्स के लिए एयर स्ट्रिप्स बना दी हैं। तिब्बत में बुलेट ट्रेन दौड़ रही है, रेलवे लाइनों और ऑल वेदर रोड्स का निर्माण किया गया है। दूसरी तरफ हमारे देश में भी लद्दाख से लेकर अरूणांचल तक अच्छी सड़कें बनाई जा रही हैं, टनल और ब्रिज बनाए जा रहे हैं, लेकिन चार धाम प्रॉजेक्ट के तहत उत्तराखंड में जो सड़कें बननी हैं, उनका काम कानूनी अड़चनों के कारण अटक गया है।

12,500 करोड़ रुपये के चार धाम प्रॉजोक्ट के 85 प्रतिशत हिस्से पर काम चल रहा है। 15 फीसदी काम कानूनी विवादों में फंसा है। गडकरी ने मंगलवार को हमारे संवाददाता से कहा कि केंद्र पर्यावरण संरक्षण के खिलाफ नहीं है, और अगर एक पेड़ काटा जाता है तो काम खत्म होने के बाद 5 नए पेड़ लगाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि सरहद तक सेना का साजो-सामान भेजने के लिए बेहतर सड़कों की जरूरत है। गडकरी ने कहा कि सिर्फ पेड़ों के कटने की बात कहकर देश की सुरक्षा से समझौता नहीं किया जा सकता।

जब जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने याचिका दाखिल करने वाले एनजीओ के वकील से पूछा कि क्या हिमालयी क्षेत्र में कई प्रॉजेक्ट्स को अंजाम दे रहे चीन को पर्यावरण की चिंता है, तो वकील ने जवाब दिया कि चीनी सरकार को पर्यावरण की कोई चिंता नहीं है, लेकिन हमें तो फिक्र करनी चाहिए।

पेंटागन में अमेरिकी रक्षा विभाग ने हाल ही में एक रिपोर्ट रिलीज की थी, जिसमें उसने तस्वीरों के जरिए बताया था कि कैसे चीन ने 1959 में जबरन कब्जाए गए इलाके में अरूणाचल के पास त्सारी चू नदी के किनारे इस गांव को बसाया है, और इसमें 100 ड्यूल यूज घर बनाए हैं। यह गांव अरूणाचल प्रदेश के ऊपरी सुबनसिरी जिले के विवादित इलाके में है। पिछले साल बना यह गांव दोनों देशों के बीच हुए द्विपक्षीय समझौतों का पूरी तरह से उल्लंघन है। दरअसल, चीन ने लद्दाख से अरूणाचल प्रदेश तक फैली 2,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगते हुए 628 ‘बॉर्डर डिफेंस विलेज’ बनाए हैं।

हमारे देश में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो बार-बार कहते हैं कि चीन की फौज ने बॉर्डर पर क्या-क्या बना लिया। वे कहते हैं कि चीन सड़कों को सरहद तक ले आया, ट्रेन पहुंचा दी, गांव बसा दिया, इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया और फिर वे लोग इसकी तुलना भारत से करते हैं कि हम कितने पीछे हैं, उनकी सड़कें देखो और हमारी देखो, उनकी तेजी देखो और हमारी धीमी चाल देखो। ये लोग भूल जाते हैं चीन और भारत में बहुत फर्क है।

हमारे देश में लोकतंत्र है, जहां कार्यपालिका और न्यायपालिका को सबकी बात सुननी पड़ती है, जबकि चीन में एक पार्टी या बल्कि एक व्यक्ति का शासन है। वहां अदालतें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन हैं। चीनी अधिकारियों के किसी भी फैसले पर सवाल उठाने वाले किसी भी शख्स पर देशद्रोह का आरोप चस्पा कर दिया जाता है और वह सार्वजनिक जीवन से गायब कर दिया जाता है। CPC अपने केंद्रीय सैन्य आयोग के माध्यम से PLA (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) को भी नियंत्रित करता है, जिसकी अध्यक्षता राष्ट्रपति शी जिनपिंग के अलावा कोई नहीं करता है जो कि जल्द ही आजीवन राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं।

चीन में न तो ह्यूमन राइट्स की बातें करने वालों की बात सुनी जाती है, न पर्यावरण के नारे लगाने की छूट दी जाती है। अगर देश के विकास के लिए लोगों के घर उजाड़कर उन्हें दूसरी जगह बसाना हो तो चीन की सरकार एक पल के लिए भी नहीं सोचती और न किसी को विरोध करने की इजाजत दी जाती है। लेकिन भारत में मसला भले ही देश की सुरक्षा से जुड़ा हो, एनजीओ और ऐक्टिविस्ट कोर्ट पहुंच जाते हैं। हमारे देश में ये कहने वाले भी हजारों लोग मिल जाएंगे कि देश की सुरक्षा से ज्यादा पेड़ जरूरी है। दुश्मन भले ही हमारे ऊपर हमला कर दे, भले ही हमारे फौजियों को सरहद तक पहुंचने के लिए नाकों चने चबाने पड़े, लेकिन पेड़ नहीं कटने चाहिए।

ज्यादा जरूरी क्या है? भारत की सुरक्षा या पेड़ों को बचाना? मैं नहीं कहता की पेड़ काटने चाहिए, मैं नहीं कहता की पहाड़ काटने चाहिए, पर पर्यावरण से जुड़े ये सारे नियम सामान्य हालात के लिए हैं। बॉर्डर पर हम जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं, उसमें युद्ध स्तर पर कार्रवाई की जरूरत है। पेड़ों को बचाने के नाम पर हम अपनी सेना को सड़कों को चौड़ा करके अग्रिम इलाकों में जाने से नहीं रोक सकते। भारत की रक्षा सर्वोपरि है। मैं इस मामले की सुनवाई के दौरान प्रासंगिक सवाल उठाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जजों को धन्यवाद देना चाहता हूं। यह दुख की बात है कि हमारे पास ऐसे लोग हैं जो पर्यावरण के नाम पर हमारी फौज के मूवमेंट को रोकने की कोशिश करते हैं।

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