Rajat Sharma

द कश्मीर फाइल्स: फारूक अब्दुल्ला से फिर पूछा जाए!

akb‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म पर अब तक खामोश रहे नेशनल कांफ्रेंस के नेता डॉक्टर फारूक अब्दुल्ला और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सुप्रीमो महबूबा मुफ्ती ने सोमवार को पहली बार खुलकर बात की।

एक पत्रकार को दिए इंटरव्यू में पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ को ‘एक प्रॉपेगेंडा फिल्म’ बताया। उन्होंने कहा, ‘इसमें एक ऐसी त्रासदी का ज़िक्र है जिसने राज्य के हर शख्स को प्रभावित किया, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। मेरा दिल आज भी उस त्रासदी पर रोता है। राजनीतिक दलों के की एसे तत्व थे जो एक खास समुदाय का सफाया चाहते थे ।’

फारूक अब्दुल्ला ने कहा, ‘मेरा मानना है कि केन्द्र सरकार एक आयोग नियुक्त करे जो बताये कि इन नरसंहारों के लिए कौन जिम्मेवार था। अगर आप सच जानना चाहते हैं तो आपको एक आयोग नियुक्त करना होगा।’

नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता ने कहा, ‘अगर इसमें मुझे दोषी पाया गया तो मुझे बेशक देश में कहीं भी फांसी पर लटका दिया जाए। आयोग का नेतृत्व करने के लिए एक ईमानदार जज या कमिटी नियुक्त की जाय जो सच को सामने ला सके। आपको पता चल जाएगा कि कौन जिम्मेदार था। मुझे नहीं लगता कि मैं जिम्मेदार था। अगर लोग कड़वा सच जानना चाहते हैं, तो उस समय के इंटेलिजेंस ब्यूरो चीफ या केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से बात करें, जो उस वक्त केंद्रीय मंत्री थे।‘

पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, ‘नब्बे के दशक में न सिर्फ कश्मीरी पंडितों के साथ, बल्कि घाटी में सिखों और मुसलमानों के साथ क्या हुआ, इसकी जांच के लिए आयोग तो बनना ही चाहिए। मेरे विधायक, मेरे कार्यकर्ता, मेरे मंत्री भी मारे गए। उनमें से कुछ की लाशों को हमें पेड़ों से उतारना पड़ा था। ऐसे हालात थे।’

फारूक अब्दुल्ला आयोग से जांच कराने की बात कहकर तो निकल गए, लेकिन वह शायद ये भूल गए कि जब सवाल उठेंगे तो आंच कहां तक पहुंचेंगी।

मंगलवार की रात अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में हमने उस वक्त कश्मीर में तैनात अफसरों की बातें सुनवाईं, जिन्होंने बताया कि कश्मीर घाटी से पंडितों को क्यों भागना पड़ा? उस वक्त कश्मीर के हालात क्या थे? क्या सब कुछ 24 घंटों में हो गया या फिर कश्मीरी पंडितों के खिलाफ साजिश सालों से चल रही थी? और इस साजिश के लिए कौन जिम्मेदार था?

मैं भी चाहता हूं कि 32 साल पहले किए गए गुनाहों का सच सामने लाने के लिए एक आयोग गठित किया जाए। आयोग को अपना काम पूरा करने में कई साल लगेंगे, लेकिन हकीकत बाहर आनी ही चाहिए। फारूक से यह भी पूछा जाएगा कि क्या कश्मीरी पंडितों का नरसंहार उनके पद छोड़ने के 10 घंटे के भीतर हुआ था, या यह उनके शासन के दौरान हुए खून-खराबे का नतीजा था?

फारूक से पूछा जाएगा कि क्या उनकी सरकार को कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हो रही साजिश का कोई इल्म था या नहीं? उन्हें ये भी बताना पड़ेगा कि जब कश्मीर में हालात खराब हो रहे थे तो वह अचानक इस्तीफा देकर लंदन क्यों चले गए? उनसे पूछा जाएगा कि उनके लंदन जाने के कुछ घंटे बाद ही कश्मीरी पंडितों कत्लेआम क्यों हुआ, उनके घर क्यों जलाए गए और उन्हें घाटी छोड़ने की धमकी क्यों दी गई?

जो दस्तावेज सामने आ रहे हैं वे इस बात का सबूत हैं कि फारूक अब्दुल्ला को कश्मीर में पंडितों के खिलाफ हो रही साजिश का अंदेशा था। फारूक अब्दुल्ला को इस बात की जानकारी थी कि कश्मीरी पंडितों को घरबार छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है। इस बात के भी सबूत हैं कि 19 जनवरी 1990 से 3 महीने पहले ही कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया था।

1997 में जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की सरकार थी। उस वक्त उनकी सरकार ने Jammu and Kashmir Migrant Immovable Property Act, 1997 बनाया था। इस ऐक्ट में जम्मू-कश्मीर से पंडितों के पलायन के लिए कट ऑफ डेट 1 नवंबर 1989 लिखी गई है। कश्मीरी पंडितों के पलायन की जो कट ऑफ डेट इस ऐक्ट में बताई गई है, उस वक्त भी कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की ही सरकार थी। ऐक्ट में साफ-साफ जिक्र है कि जनवरी 1990 में फारूक के इस्तीफा देने से तीन महीने पहले ही घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया था!

अब सवाल ये है कि फारूक और उनकी सरकार ने उन बेहद महत्वपूर्ण 79 दिनों के दौरान, 1 नवंबर 1989 से 18 जनवरी 1990 तक, कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम और पलायन को रोकने के लिए क्या किया। फारूक रेंजू शाह 1989 में श्रीनगर में सूचना विभाग में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर तैनात थे। फारूक रेंजू शाह ने कहा कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म साजिश थी, पाकिस्तान से आतंकवादियों को सियासी साजिश के तहत लाया गया था। उन्होंने कहा कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म सितंबर 1989 से ही शुरू हो गए थे, .छोटी-मोटी घटनाएं और हमले उससे भी पहले से हो रहे थे। रेंजू शाह ने कहा कि अगर फारूक अब्दुल्ला चाहते तो हालात ऐसे खराब न हो पाते।

फारूक रेंजू शाह ने यह भी कहा कि कश्मीर में 6 साल 264 दिन तक राष्ट्रपति शासन रहा, और इस दौरान कश्मीरी पंडित अपनी जो जमीन और मकान छोड़कर भागे थे, उनकी खरीद-बिक्री नहीं हुई। उन्होंने कहा कि जैसे ही 1996 में फारूक अब्दुल्ला की सरकार आई, उन्होंने कानून बनाकर कश्मीरी पंडितों की प्रॉपर्टी की खरीद-बिक्री को मंजूरी दे दी। तब तक कश्मीरी पंडित वापस लौटने की आस खो चुके थे, और इसलिए उन्होंने मजबूरी में अपनी संपत्ति कौड़ियों के भाव बेच दी। इसके साथ ही कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी का रास्ता भी बंद हो गया।

मंगलवार की रात अपने शो ‘आज की बात’ में हमने श्रीनगर, गुलमर्ग, कुलगाम और नंदीमार्ग जैसी जगहों पर कश्मीरी पंडितों के तमाम जली हुई हवेलियां और मकानों की तस्वीरें दिखाई, जो खंडहर बनकर खड़े हैं अभी भी बिना बिके पड़े हैं। ये जले हुए और खंडहर बन चुके मकान जनवरी, 1990 में हुई कश्मीरी पंडितों की बर्बादी का जीता जागता सबूत हैं।

1990 में पंडितों के कत्लेआम के समय एस पी वैद्य बडगाम के एडिशनल एसपी थे, जो बाद में राज्य पुलिस महानिदेशक बने। वैद्य ने इंडिया टीवी को बताया कि पंडितों की हत्या और पलायन के लिए तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार था। वैद्य ने कहा, जब जगमोहन ने राज्यपाल का पद संभाला तो हालात पूरी तरह बदल चुके थे। मस्जिदों के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल अज़ान की बजाय कश्मीरी पंडितों को इस्लाम कबूल करने या घाटी छोड़ने की धमकी देने के लिए किया जा रहा था। मस्जिदें उस वक्त अमन की बजाए खौफ का पैगाम दे रही थीं।

वैद्य ने जो बताया उससे एक बात तो साफ है कि 18 जनवरी 1990 की शाम फारूक ने इस्तीफा दिया, और आधी रात के बाद मस्जिदों से ऐलान होने लगा कि कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ दें। कश्मीरी पंडितों पर हमले और आगजनी शुरू हो गई। सुबह तक घाटी का मंजर बदल चुका था और ज्यादातर पंडित अपना घरबार छोड़कर निकलने लगे थे। फारूक अब्दुल्ला से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों को बचाने के लिए क्या किया।

वैद्य ने बताया कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाने की साजिश पाकिस्तान ने रची थी। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने कश्मीर में गड़बड़ी फैलाने के लिए 70 आतंकवादियों का पहला बैच भेजा था। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने उनमें से कई आतंकवादियों को पकड़ लिया था, लेकिन 1989 में फारूक अब्दुल्ला की सरकार ने सभी आतंकवादियों को रिहा कर दिया। इससे कश्मीर में आतंकवाद को जड़ मिल गई और कश्मीरी पंडितों ने डर के साये में जीना शुरू कर दिया।

मेरा केन्द्र सरकार से अनुरोध है कि वह फारूक अब्दुल्ला की राय मान ले और हिंसा भड़काने में शामिल नेताओं, प्रशासकों और स्थानीय स्तर के नेताओं की भूमिका का पता लगाने के लिए एक जांच आयोग का गठन करे। एक बार पुरानी फाइलें दोबारा खुलने के बाद कई सवाल उठना लाजिमी है।

फारूक अब्दुल्ला, सैफुद्दीन सोज़ और महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं को सारे आरोपों का जवाब देने का मौका दिया जाना चाहिए। फारूक अब्दुल्ला को यह बताना चाहिए कि क्या उन्हें सत्ता में रहते हुए कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम की साजिश के बारे में खुफिया जानकारी मिली थी। उन्हें यह भी बताना होगा कि पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकवादियों को पुलिस ने क्यों छोड़ा।

फारूक अब्दुल्ला को यह भी बताना होगा कि पलायन कर गए कश्मीरियों की संपत्ति की खरीद-फरोख्त को कानूनी मान्यता देने का कानून किस नीयत से बनाया गया। महबूबा मुफ्ती को बताना पड़ेगा कि आज वह कश्मीरी पंडितों के लिए हमदर्दी दिखा रही हैं, लेकिन 1986 में जब कश्मीरी पंडितों पर जुल्म शुरू हुए, जब कश्मीर में मंदिरों को तोड़ा गया, उस वक्त अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के रोल पर वह क्या कहेंगी? उन्हें बताना होगा कि 1989 में रुबैया सईद अपहरण मामले में उनके पिता और तत्कालीन गृह मंत्री ने 5 खूंखार आतंकवादियों को रिहा करने का आदेश क्यों दिया था।

मैं जानता हूं कि महबूबा मुफ्ती इन सब सवालों पर खामोश रहेंगी, वह इन सवालों पर नहीं बोलेंगी। मंगलवार को महबूबा मुफ्ती ने कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म को भी हिंदू-मुसलमान का रंग देने की कोशिश की। महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘सिर्फ फिल्म बनाने से सच नहीं बदल सकता। घाटी में जो कुछ भी हुआ उसके पीछे की सच्चाई हर कश्मीरी जानता है।’

उन्होंने कहा, ‘मैंने खुद अपनी आंखों से हिंसा देखी है, हमें और हमारे परिवार के लोगों को हिंसा का सामना करना पड़ा और अब ये लोग आकर सच बोलने का दावा कर रहे हैं। मेरे मामा और चाचा दोनों मार डाले गए, मेरी बहन की हत्या हुई, 19 मुसलमानों को मारा गया, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि मुसलमान भी मारे गए। किसी भी इंसान की हत्या दुखद है और इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।’

महबूबा ने आरोप लगाया कि बीजेपी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश कर रही है, और भारत में कई पाकिस्तान बनवाना चाहती है। उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस ने अपने 60 साल से ज्यादा शासन के दौरान कई गलतियां की , लेकिन कांग्रेस पार्टी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने मज़हब के नाम पर कभी लोगों को बांटा नहीं।’

छत्तीसिंहपोरा, नंदीमर्ग, किश्तवाड़ और सूरनकोट में हुए नरसंहारों का जिक्र करते हुए महबूबा ने कहा, ‘आतंकी हिंसा में हिंदू, मुस्लिम और सिख मारे गए, और कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी। यहां तक कि हमारे करीबी रिश्तेदार भी मारे गए लेकिन हम चाहते हैं कि अच्छे दिन लौट आएं। लेकिन वे (बीजेपी) अमन नहीं चाहते, वे चाहते हैं, हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहें। वे 800 और 500 साल पहले हुकूमत करने वाले बाबर और औरंगजेब की बात कर रहे हैं। बाबर और औरंगजेब से हमारा क्या लेना-देना? ये ऐसे मुद्दे हैं जिनका आज से कोई लेना-देना नहीं हैं।’

ये एक कड़वा सच है कि कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ और इसके कारण उन्हें अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से पलायन करना पड़ा। ये भी सच है कि इस सच्चाई को तीन दशकों से ज्यादा समय से दफनाने की कोशिश की गई। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने हजारों कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म, उनके साथ हुई बर्बरता और उन्हें कश्मीर छोड़कर भागने के लिए मजबूर करने की साजिश का पर्दाफाश किया है। इस फिल्म की वजह से ही कश्मीरी पंडितों के मसले पर देश भर के लोगों का ध्यान गया कि कैसे कश्मीरी पंडितों को अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से भागना पड़ा, जहां उनके खानदान पुश्त-दर-पुश्त सदियों से रह रहे थे। इस त्रासदी को हिंदू-मुस्लिम रंग देकर छुपाया नहीं जा सकता।

कश्मीरी पंडितों को इंसाफ मिलना चाहिए। कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म के लिए जिम्मेदार कौन है, इसका जवाब सामने आना चाहिए। अगर मुसलमानों के साथ कश्मीर में नाइंसाफी हुई है तो इसके लिए भी महबूबा मुफ्ती और फारूख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को जबाव देना चाहिए, क्योंकि पिछले 5 दशकों में जम्मू-कश्मीर में ज्यादातर वक्त इन्हीं दोनों के परिवारों की सरकारें रही ।

जब फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में मंत्री रहे, तब उन्होंने जगमोहन पर सवाल क्यों नहीं उठाए? जब महबूबा मुफ्ती ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई, तब उन्होंने एक बार भी क्य़ों नहीं कहा कि बीजेपी देश में कई पाकिस्तान बनाना चाहती है ?

मुझे अभी भी याद है कि जब संसद में कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाए जाने का बिल पास हो रहा था, उसके कुछ ही दिन पहले महबूबा मुफ्ती ने धमकी दी थी कि ‘अगर ऐसा हुआ तो कश्मीर में खून की नदियां बहेंगी।‘ तब उन्होंने कहा था, ‘कश्मीर घाटी में हिन्दुस्तान का तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं बचेगा।’ ये अच्छी बात है कि कश्मीर में खून की नदियां नहीं बहीं, और उससे भी अच्छी बात ये है कि अब महबूबा मुफ्ती तिरंगा उठाने की बात करने लगी हैं।

Get connected on Twitter, Instagram & Facebook

Comments are closed.