Rajat Sharma

ज्ञानवापी आदेश: हिंदुओं और मुसलमानों को संयम बरतना चाहिए

AKBसोमवार, 12 सितंबर को दो बड़ी खबरें आईं । पहली ये कि 2024 में मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी को अयोध्या में बन रहे भव्य राम मंदिर के गर्भगृह में रामलला विराजमान हो जाएंगे। अभी इस मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है।

दूसरी, वाराणसी के जिला जज ने आदेश दिया कि ज्ञानवापी में श्रृंगार गौरी की पूजा का हक देना, वजूखाने में मिली आकृति शिवलिंग है या नहीं, इन मामलों में सुनवाई जारी रहेगी। मुस्लिम पक्ष ने इस सुनवाई पर रोक लगाने की मांग की थी। कोर्ट ने कहा कि 1991 का पूजा स्थल कानून इस मामले की सुनवाई पर रोक नहीं लगाता क्योंकि वादी ने कभी भी मस्जिद को मंदिर में बदलने की मांग नहीं की।

जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश ने अपने 26 पन्नों के आदेश में कहा, ‘वादी के मुताबिक, उन्होंने 15 अगस्त 1947 के बाद भी नियमित रूप से विवादित स्थान पर मां श्रृंगार गौरी, भगवान हनुमान की पूजा की। (इसलिए) वादी का मुकदमा पूजा स्थल अधिनियम, 1991 की धारा 9 द्वारा वर्जित नहीं है।’ जज ने अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मुकदमे की मेनटेनेबिलिटी को चुनौती दी गई थी। जिला जज मूल याचिका पर 22 सितंबर से सुनवाई शुरू करेंगे।

अदालत का फैसला बहुत ही सीमित है, लेकिन इसके नतीजे असीमित हो सकते हैं। कोर्ट का फैसला आने के तुरंत बाद वाराणसी, कानपुर और जम्मू में ढोल-नगाड़े बजे, मिठाई बांटी गई और आतिशबाजी शुरू हो गई। इसके बाद AIMIM सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी अपनी दलीलों के साथ आगे आए।

ओवैसी ने कहा, ‘अदालत के इस आदेश से अस्थिरता शुरू हो सकती है। हम उसी रास्ते पर जा रहे हैं जिस रास्ते पर बाबरी मस्जिद का मामला गया था। जब बाबरी मस्जिद पर फैसला दिया गया था, तो मैंने सभी को चेतावनी दी थी कि इससे देश में नयी समस्याएं पैदा होंगी क्योंकि वह फैसला आस्था के आधार पर सुनाया गया था। मुझे यकीन है कि इस आदेश के बाद पूजा स्थल कानून लाने का मकसद ही नाकाम हो जाएगा। अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी को चाहिए कि वह इस आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील करे।’

ओवैसी ने कहा कि जज ने यह आदेश देने से पहले सबूतों को देखने की भी जहमत नहीं उठाई। ओवैसी बैरिस्टर हैं। वह नियम कानून सब जानते हैं, दूसरों से ज्यादा जानते हैं। वह ये भी समझते हैं कि कोर्ट के इस फैसले का फिलहाल सबूतों और दलीलों से कोई लेना-देना नहीं है। फिलहाल तो मामला सिर्फ पिटिशन की मेंटेनेबिलिटी (ग्राह्यता) का था। असल में 1883 में ज्ञानवापी पर किसका दावा था, 1897 में क्या हुआ, 1942 के गजेटियर में क्या लिखा है, ये सब दलीलें तो सुनवाई शुरू होने के बाद काम आएंगी।

अपनी याचिका में 5 हिंदू महिलाओं ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश और हनुमान की नियमित पूजा करने की इजाजत मांगी थी। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि 1993 से पहले पूरे साल श्रृंगार गौरी की पूजा होती थी, लेकिन इसके बाद राज्य सरकार ने पूजा पर उसी साल रोक लगा दी। अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद ने यह कहकर याचिका खारिज करने की मांग की कि ये केस तो चलने के लायक ही नहीं है क्योंकि यह 1991 के पूजा स्थल अधिनियम के खिलाफ है।

मसाजिद कमेटी का यह भी कहना था कि महिलाओं की याचिका 1995 के वक्फ ऐक्ट और 1983 के श्री काशी विश्वनाथ ऐक्ट के भी खिलाफ है, इसलिए पूजा की इजाजत मांगने वाली इस याचिका को खारिज कर देना चाहिए। वहीं, हिंदू पक्षकारों का कहना था कि उनकी याचिका, किसी स्थान का टाइटिल या स्वरूप नहीं बदलती। उनकी मांग तो सिर्फ पूजा करने की है, इसलिए इस पर 1991 का पूजा स्थल अधिनियम लागू ही नहीं होता। अदालत ने हिंदू पक्षकारों की दलील को सही मानते हुए उनके हक में फैसला सुनाया।

जिला जज ने अपने आदेश में तीन मुख्य बिंदुओं पर विचार किया।

पहला, क्या पूजा स्थल अधिनियम इस मुकदमे के आड़े आता है: अदालत ने कहा, ‘उन्होंने पूजा स्थल को मस्जिद से मंदिर में बदलने की मांग नहीं की है….वे केवल मां श्रृंगार गौरी की पूजा के अधिकार की मांग कर रहे हैं..इसलिए पूजा स्थल अधिनियम, 1991 इसके आड़े नहीं आता है।’

दूसरा, क्या वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 85 मुकदमे के आड़े आती है: अदालत ने कहा, ‘..यह वर्तमान मामले में काम नहीं करता है क्योंकि वादी गैर-मुस्लिम हैं।’

तीसरा, क्या यूपी श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम, 1980 इस मुकदमे के आड़े आता है: इस पर कोर्ट ने कहा, ‘… अधिनियम द्वारा मंदिर परिसर के भीतर या बाहर बंदोबस्ती में स्थापित मूर्तियों की पूजा के अधिकार का दावा करने वाले मुकदमे के संबंध में कोई रोक नहीं लगाई गई है।’

हिंदू याचिकाकर्ताओं के वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा, अभी यह तय नहीं हो पाया है कि वह जगह मंदिर थी या मस्जिद। उन्होंने कहा, ‘हम सुनवाई के दौरान कार्बन डेटिंग और ‘वुजूखाना’ की दीवारों को तुड़वाने की मांग करेंगे।’

ओवैसी और तमाम मुस्लिम संगठनों को यही चिंता है कि अयोध्या के बाद काशी, इसके बाद मथुरा और फिर न जाने कौन-कौन से विवाद सामने आ जाएंगे। रजा अकादमी के अध्यक्ष मौलाना सईद नूरी ने कहा, ‘अब तो रास्ता खुल गया है। अब तो बहुत-सी मस्जिदों और चर्चों पर दावे ठोके जाएंगे।’

मुझे लगता है कि वाराणसी की कोर्ट ने जो फैसला सुनाया, उसको लेकर हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के नेताओं ने कुछ ज्यादा ही रिऐक्ट किया। हिंदुओं ने ढोल नगाड़े बजाकर यह दिखाया कि जैसे उन्हें ज्ञानवापी मस्जिद में प्रवेश और पूजा की इजाजत मिल गई है। मुस्लिम नेताओं ने ऐसे रिएक्ट किया कि जैसे अब ज्ञानवापी मस्जिद को गिराकर वहां मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया। हालांकि फैसले में ऐसी कोई बात नहीं थी।

हिंदू पक्ष ने ‘हर हर महादेव’ के नारे लगाकर ये प्रचारित किया कि फैसले से भगवान विश्वनाथ के प्राचीन मंदिर का एक और रास्ता खुल गया है, जैसे ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग स्थापित हो गया है। मुस्लिम नेताओं ने इस मामले को ऐसे पेश किया जैसे इस फैसले के बाद पूरे देश में हजारों मस्जिदें खतरे में पड़ जाएंगी। दोनों पक्षों का इंटरप्रिटेशन ठीक नहीं है। अभी तो सिर्फ इतना फैसला हुआ है कि वाराणसी की अदालत में श्रृंगार गौरी की पूजा फिर से शुरू होने की इजाजत देने के मामले की सुनवाई होती रहेगी। ज्ञानवापी विवाद में दोनों पक्षों को अंतिम फैसला आने का इंतजार करना चाहिए।

याचिकाकर्ता क्या कहते हैं, नेता क्या कहते हैं, इससे अदालतों की कार्रवाई पर, कोर्ट के फैसलों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मुझे लगता है कि कुछ बातें साफ-साफ होनी चाहिए। अयोध्या में 500 साल तक संघर्ष चला, और अंत में सुप्रीम कोर्ट से मामला निपटा। काशी और मथुरा में भी मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाई गई। इसमें तो कोई दो राय नहीं है और इसके लिए किसी तरह की जांच की जरूरत भी नहीं हैं। लेकिन, यह भी सही है कि ऐसे ये सिर्फ 3 मामले नहीं हैं। 3 हजार से ज्यादा ऐसी जगहें हैं, 3 हजार से ज्यादा ऐसी मस्जिदें हैं, जहां पहले मंदिर हुआ करते थे। अगर सारे मामले कोर्ट पहुंच जाएं, सारे विवादों में जांच होने लगे तो अदालतें बाकी और कोई काम हो ही नहीं पाएगा।

इसलिए एक बार बातचीत से रास्ता निकाल कर इस तरह के मामलों को हमेशा के लिए बंद करना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं कि विवादों को खत्म करने के लिए ही 1991 का ‘उपासना स्‍थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991’ बनाया गया था, लेकिन हकीकत यह है कि उस वक्त भी इसका मकसद विवाद खत्म करना नहीं था। इसका असली मकसद यह था कि हिंदू अब कभी उन विवादित जगहों पर दावा न कर पाएं, जिन पर कई सौ सालों से मुसलमानों का कब्जा है।

चूंकि नीयत साफ नहीं थी, एक पक्ष की आवाज को दबाने के लिए कानून बना इसीलिए हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया। अब फिर एक बार इस कानून को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट इस पर 11 अक्टूबर से सुनवाई शुरू करेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस तरह के विवादों को खत्म करने का रास्ता निकलेगा। हालांकि उसके बाद भी स्थायी रास्ता निकलेगा इसकी गारंटी नहीं है, क्योंकि ऐसे सारे मामलों में सियासत बीच में आ जाती है। एक विवाद खत्म नहीं होता और दूसरा शुरू कर दिया जाता है।

Get connected on Twitter, Instagram & Facebook

Comments are closed.