Rajat Sharma

‘कुछ ताकतें’ क्यों नहीं चाहतीं कि धरने पर बैठे किसान घर लौटें

मुझे लगता है कि सरकार ने डेढ़ साल तक किसान कानूनों को स्थगित करने का जो प्रस्ताव दिया था, उसके पीछे किसान नेताओं को बीच का रास्ता देने की मंशा थी ताकि आंदोलन भी खत्म हो जाए और आंदोलन करने वाले नेताओं की साख भी बची रहे। इसमें सरकार की तरफ से न तो कोई राजनीतिक पैंतरेबाजी थी, न कोई छल-कपट था। पर्दे के पीछे जिन किसान नेताओं से बात हुई थी, उन्होंने भरोसा दिलाया था कि अगर ऐसा ऑफर दे दिया जाए तो बात बन जाएगी।

AKB30 केंद्र और किसान यूनियन के नेताओं के बीच चल रही बातचीत शुक्रवार को उस वक्त बेपटरी हो गई जब किसान नेताओं ने सरकार से साफ कह दिया कि वे तीनों विवादास्पद कानूनों को निरस्त करने के अलावा और किसी और चीज पर सहमत नहीं होंगे। वहीं, केंद्र सरकार ने भी यह कहते हुए अपना रुख सख्त कर लिया कि तीनों कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने के प्रस्ताव से बेहतर दूसरा कोई विकल्प नहीं है और कानूनों को निरस्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर शुक्रवार को हुई बैठक के बाद दुखी नजर आए। उन्होंने कहा, ऐसा लगता है कि कुछ ताकतें नहीं चाहती कि कोई हल निकले और उनकी पूरी कोशिश आंदोलन को लंबा करके अपने खुद के राजनीतिक हितों को साधने की है। अगले दौर की बातचीत के लिए कोई नई तारीख भी तय नहीं की गई, जिससे यह साफ इशारा मिला कि अब पूरा मामला बेपटरी हो गया है।

शुक्रवार की बैठक में मंत्रियों ने किसान नेताओं से बार-बार अनुरोध किया कि वे कृषि कानूनों को स्थगित रखने के सरकार के प्रस्ताव पर दोबारा गौर करें लेकिन बात नहीं बनी। किसान नेताओं ने साफ कह दिया कि नए कृषि कानूनों को निरस्त किए बगैर बातचीत आगे नहीं बढ़ेगी। इस पर सरकार ने भी कह दिया कि कानूनों को स्थगित करना ही एकमात्र संभव हल है और इसके अलावा कोई दूसरा प्रस्ताव नहीं है।

शुक्रवार को किसानों के साथ 11वें राउंड की मीटिंग हुई थी। मुझे याद है कि दसवें दौर तक की हर बातचीत के अंत में तोमर मुस्कुराते हुए निकलते थे और कहते थे कि उन्हें अभी भी उम्मीद है कि मामले का हल निकलेगा। लेकिन शुक्रवार की बातचीत के बाद उनके चेहरे पर दुख और निराशा नज़र आई। तोमर परेशान क्यों थे, बातचीत फेल क्यों हुई, इसका संकेत भी उन्होंने मीटिंग के बाद दे दिया। उन्होंने कहा, ‘जब आंदोलन की पवित्रता खत्म हो जाती है, जब स्वार्थी लोग हावी हो जाते हैं, तो यही होता है।

किसान संगठनों ने गुरुवार की शाम को ही ऐलान कर दिया था कि उन्हें सरकार का प्रस्ताव मंजूर नहीं है, इसलिए यह तभी तय हो गया था कि शुक्रवार की मीटिंग में क्या होना है। शुक्रवार को बातचीत नाकाम होने के बाद ज्यादातर किसान नेता भी खुश नहीं दिखे।

एक किसान नेता ने कहा कि वे शनिवार को दोपहर 12 बजे तक विचार करेंगे और फिर से सरकार को बताएंगे, लेकिन इतना तो तय है कि 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड जरूर होगी। एक अन्य हार्डलाइनर किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा कि बैठक तो आधे घंटे के भीतर तभी खत्म हो गई थी, जब मंत्रियों ने उनसे ये कहा कि कानूनों को सस्पेंड करना ही एकमात्र बेस्ट ऑफर है और यह किसानों को ऊपर है कि वे क्या तय करते हैं। मंत्री मीटिंग से यह कहकर चले गए कि किसान संगठन आपस में बात कर लें। चढ़ूनी ने कहा, ‘बातचीत तो आधे घंटे में ही खत्म हो गई थी, उसके बाद तो सरकार ने किसानों को बेकार में बिठाकर रखा।’

लेफ्ट की तरफ झुकाव रखने वाले किसान नेता हन्नान मोल्लाह, जो कि प्रत्येक दौर की बातचीत के बाद मीडिया से रूबरू होते हैं, भी उदास दिखे। शुक्रवार को उन्होंने कहा, ‘हम क्या कर सकते हैं? कोई फैसला नहीं हुआ। अब कल 12 बजे तक सरकार को हम अपनी राय बताएंगे।’

उत्तर प्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा, ‘हम एक बार फिर से सरकार के प्रस्ताव पर विचार करेंगे। अगर सरकार से बात करनी होगी तो करेंगे, नहीं तो आंदोलन चलता रहेगा।’ भारतीय किसान यूनियन के एक अन्य नेता युद्धवीर सिंह ने कहा, ‘अब फिलहाल बातचीत के रास्ते बंद हो गए हैं। सरकार ने कह दिया है कि ये आखिरी मीटिंग है। अगर सरकार कानूनों को वापस नहीं लेती तो किसान आंदोलन इसी तरह जारी रहेगा।’

मुझे लगता है कि सरकार ने डेढ़ साल तक किसान कानूनों को स्थगित करने का जो प्रस्ताव दिया था, उसके पीछे किसान नेताओं को बीच का रास्ता देने की मंशा थी ताकि आंदोलन भी खत्म हो जाए और आंदोलन करने वाले नेताओं की साख भी बची रहे। इसमें सरकार की तरफ से न तो कोई राजनीतिक पैंतरेबाजी थी, न कोई छल-कपट था। पर्दे के पीछे जिन किसान नेताओं से बात हुई थी, उन्होंने भरोसा दिलाया था कि अगर ऐसा ऑफर दे दिया जाए तो बात बन जाएगी।

लेकिन किसान संगठनों के नेताओं ने गुरुवार और शुक्रवार को जिस अंदाज में जवाब दिए, उससे लगा कि वे उन लोगों के दबाव में आ गए हैं जो टकराव चाहते हैं। जब किसी आंदोलन को कोई एक नेता नहीं होता तो इसी तरह की स्थिति पैदा होती है। यह भी साफ दिखाई दिया कि कई संगठन, कई किसान नेता समझते हैं कि सरकार ने जो ऑफर दिया उससे किसानों को फायदा होगा। लेकिन किसान नेताओं के बीच कुछ ऐसे भी तत्व हैं जो किसानों के फायदे की बजाए राजनीतिक फायदे के बारे में सोचते हैं। ये लोग सरकार को डराना चाहते हैं, नीचा दिखाना चाहते हैं। ये बीच के किसी भी रास्ते को मानने के लिए तैयार नहीं हैं और चाहते हैं कि आंदोलन जारी रहे। ये लोग बार-बार 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च निकालने की धमकी देते हैं। इनका एकमात्र मकसद सरकार पर दबाव बनाना है।

मुझे यह भी पता चला कि किसानों के बीच कई नेता ऐसे हैं जो नहीं चाहते कि ट्रैक्टर मार्च निकले और गणतंत्र दिवस के जश्न में खलल खलल पड़े, लेकिन जो हालात हैं उसमें किसानों से इस मार्च को रोकने की बात भी नहीं कर सकते। इसलिए जो किसान नेता कहते हैं कि ट्रैक्टर मार्च शन्तिपूर्ण होगा, वे भी जानते हैं कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सब कुछ उनके बस में रह पाएगा, ठीक वैसे ही जैसे कि इस आंदोलन में सहमति बनाना किसी के बस में नहीं है।

इतिहास गवाह है कि आंदोलन कितना भी बड़ा हो, कितना भी उग्र हो, रास्ता बातचीत से ही निकलता है। मेरा कहना है कि किसान नेताओं को संवाद की डोर जोड़े रखनी चाहिए और बातचीत का रास्ता बंद नहीं करना चाहिए। डेढ़ साल का वक्त कम नहीं होता, इसलिए सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए। हालांकि वे इस सलाह को मानेंगे इसकी गुंजाइश कम ही है।

तोमर ने ठीक कहा था कि कुछ ऐसी ताकतें हैं जो इस मामले में सुलह नहीं चाहती। शुक्रवार को इसका सबूत मभी मिल गया, जब बातचीत खत्म होने के थोड़ी ही देर बाद पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने चंडीगढ़ से एक सियासी बयान दिया। उन्होंने ऐलान किया कि किसान आंदोलन में जितने किसान शहीद हुए हैं, उन सबके परिवारों को 5-5 लाख रुपये और परिवार के एक मेंबर को सरकारी नौकरी दी जाएगी। कैप्टन ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार को किसानों की चिंता नहीं है, बीजेपी सरकार ने लोकतन्त्र का गला घोंट दिया है, लेकिन पंजाब सरकार किसानों को अकेला नहीं छोड़ेगी।

आंदोलन के दौरान जिन किसानों की मौत हुई, उनके परिवारों के प्रति भारत के लोगों की पूरी सहानुभूति है। पंजाब के मुख्यमंत्री के द्वारा उन किसानों के परिवारों की मदद करने का ऐलान काबिले तारीफ है। लेकिन उनके इस बयान की टाइमिंग और नीयत पर शक होता है। आंदोलन की शुरुआत से ही कैप्टन अमरिंदर सिंह आंदोलनकारियों को पूरा समर्थन दे रहे हैं और उनकी कोशिश रही है कि यह चलता रहे।

उनकी पार्टी के नेता राहुल गांधी और उनके सांसदों ने विरोध प्रदर्शन किए, राष्ट्रपति के पास गए, और आंदोलन के समर्थन में रोजाना बयान भी देते रहे। इस बीच राहुल गांधी विदेश जाकर नया साल भी मना आए, तमिलनाडु में जलीकट्टू देख आए, ट्विटर के जरिए लगातार किसानों को अपना समर्थन देते रहे और मोदी को ताने भी मारते रहे। उन्होंने किसानों से ‘वीर तुम बढ़े चलो’ भी कहा और उनकी पार्टी की वर्किंग कमिटी ने किसान आंदोलन के समर्थन में एक प्रस्ताव भी पास किया।

इन सारी चीजों को देखते हुए यह समझना मुश्किल काम नहीं है कि नरेन्द्र सिंह तोमर ने किसके लिए कहा था कि ‘कुछ ताकतें’ हैं, जो नहीं चाहतीं कि किसान सड़क से उठकर घर पर जाएं। अब यह दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे किसानों को तय करना है।

Get connected on Twitter, Instagram & Facebook

Comments are closed.