गणतंत्र दिवस के मौके पर वो हुआ जो न आज तक कभी हुआ और न कभी होना चाहिए। किसानों के भेष में दंगाईयों ने दिल्ली में घुसकर लाल किले की प्राचीर की पवित्रता को भंग कर दिया। लाल किले की प्राचीर पर पीले रंग का दूसरा झंडा फहरा दिया, वो भी उस जगह जहां आजादी के बाद से हर साल देश के प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराते हैं।
आज हर हिन्दुस्तानी के मन में गुस्सा और नाराजगी है, क्योंकि गणतंत्र दिवस के मौके पर देश की शान तिरंगे का अपमान हुआ। परंपरा और तिरंगे की धरोहर के प्रतीक लाल किले का अपमान किया गया। दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च की आड़ में अराजकता हुई। ये काम उन लोगों ने किया जिन्हें हम अब तक किसान समझ रहे थे। ये तय करके आए थे कि पुलिस के बताए रूट पर जाना ही नहीं है। इन्होंने तय रूट से अपने ट्रैक्टर्स को डायवर्ट कर दिया और दिल्ली में आग लगाने की कोशिश की।
किसान नेता लगातार एक ही बात कह रहे थे। उनकी ट्रैक्टर परेड शांतिपूर्ण होगी और वो नियमों का पालन करेंगे। प्रोटोकॉल का पालन करेंगे और अराजक तत्वों पर पूरी नजर रखेंगे। लेकिन जब ट्रैक्टर परेड निकाली गई तो सारे वादे और नियम तोड़ दिए गए। बॉर्डर पर सारे दिशानिर्देशों को पांव तले रौंद दिया और धीरे-धीरे ये पूरा हंगामा दिल्ली के दिल आईटीओ और फिर लाल किले तक पहुंच गया। ट्रैक्टर पर टेरर मार्च निकालने वालों के तो सिर पर खून सवार था। जो पुलिसवाले उन्हें रोकने के लिए आ रहे थे वो उनपर ट्रैक्टर चढाने की कोशिश कर रहे थे। एक बार तो ऐसा लगा कि वो पुलिसवालों को ट्रैक्टर के नीचे कुचल ही देंगे। पुलिसवालों पर हमला किया गया और उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया।
मैं दिल्ली पुलिस के जवानों की तारीफ करूंगा कि उन्होंने काफी संयम दिखाया। उपद्रवियों के तमाम हमलों के बावजूद धैर्य दिखाया। पुलिसवालों पर तलवारों से हमला हुआ, लाठियां बरसाई गईं, पत्थर फेंके गए और ट्रैक्टर से कुचलने की कोशिश हुई। पुलिस वालों का खून बहा लेकिन पुलिस ने आपा नहीं खोया। पुलिस ने हिम्मत और सहनशीलता का परिचय दिया और एक भी गोली नहीं चलाई। पुलिस ने केवल भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस और लाठियों का इस्तेमाल किया। इस हिंसा में करीब 230 पुलिसकर्मी घायल हुए हैं।
गणतंत्र दिवस के मौके पर किसान आंदोलन की आड़ में उपद्रवियों ने पूरे देश को कलंकित करने का काम किया है। हमारी गौरवशाली परंपरा के प्रतीकों को दागदार कर दिया। पिछले दो महीनों में किसानों के प्रति जो सहानुभूति देश की जनता में उभरी थी वह अब खत्म हो गई है।
किसान आंदोलन को लीड करने वाले नेता पिछले 2 महीने से कैमरे के सामने बार-बार कह रहे थे कि उनके साथ मौजूद लोग अनुशासित हैं और वो एक इंच भी इधर से उधर नहीं होंगे, लेकिन उपद्रव के समय सारे नेता गायब थे। संयुक्त किसान मोर्चा ने देर शाम यह दावा किया कि ट्रैक्टर मार्च शांतिपूर्ण था। किसान संगठनों के नेताओं ने कहा कि कुछ लोगों ने कानून हाथ में लिया। कुछ लोगों ने किसान आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की। पुलिस पर हमले की तस्वीरें और सार्वजनिक संपत्तियों के नुकसान की तस्वीरें इस बात की गवाह हैं कि किस तरह से सफेद झूठ बोला गया।
जब दंगाई दिल्ली में पुलिस को पीट रहे थे, बसों को तोड़ रहे थे, तलवारें और लाठियां चला रहे थे पुलिस वालों को ट्रैक्टर से कुचलने की कोशिश कर रहे थे उस वक्त वो सारे किसान नेता कहां गायब थे? जो कल तक शान्ति के दूत बने थे, शान्तिपूर्ण आंदोलन की कसमें खा रहे थे और आंदोलनकारियों की गांरटी ले रहे थे, वे लोग कहां थे? जब हिंसक प्रदर्शनकारियों ने पुलिस को चुनौती दी, राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया और लाल किले में घुस गए, तब ये नेता कहां थे? गणतंत्र दिवस पर जो कुछ भी हुआ वह बेहद शर्मनाक है। इसकी पूरी पटकथा पहले ही लिखी गई थी। पुलिस की गलती ये रही कि उसने किसान नेताओं पर भरोसा किया।
गणतंत्र दिवस पर जो कुछ भी हुआ उससे हर भारतीय, हर किसान का सिर शर्म से झुक गया है। आप तस्वीरें देखेंगे तो आपका खून खौल जाएगा। अगर कोई शख्स लाल किले की प्राचीर पर लहरा रहे तिरंगे की तरफ लपके और तिरंगे को उतार कर दूसरा झंडा लगा दे, तो कौन हिन्दुस्तानी इसे बर्दाश्त करेगा?
आजादी के बाद 73 साल में ये पहला मौका है जब लाल किले पर इस तरह की अराजकता दिखी हो। हर साल प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर तिंरगा फहराते हैं। 73 साल में लाल किले की प्राचीर पर फहरा रहा तिंरगा कभी नहीं झुका। इस तिरंगे की शान के लिए आजादी के बाद से अब तक 28 हजार से ज्यादा बहादुर जवान अपने प्राण न्योछावर कर चुके हैं, लेकिन कोई दुश्मन आज तक तिरंगे को नहीं झुका सका। कभी कोई तिरंगे का अपमान नहीं कर पाया। लेकिन आज हमारे ही बीच के लोगों ने धोखे से देश की शान में दाग लगाया और तिरंगे को झुकाने की कोशिश की। लाल किला देश की शानदार परंपरा का प्रतीक है। हमारे दुश्मन ये मंसूबा पालते हैं कि लाल किले पर धावा बोलेंगे, लेकिन ये मंसूबे कभी पूरे नहीं हुए, न कभी होंगे। लेकिन दुख की बात ये है कि हमारे देश के कुछ लोग किसान आंदोलन के नाम पर आए और हमारी गौरवशाली परंपरा के प्रतीक लाल किले को दागदार कर दिया। लाल किले के अंदर दंगाई घुस गए। हिंसक भीड़ पूरी प्लानिंग के साथ आई थी। उनके हाथों में लाठी डंडे थे। कुछ लोगों ने हाथों में नंगी तलवारें ले रखी थी। हुड़दंगी भीड़ लगातार नारे लगा रही थी। भीड़ को रोकनेवाले पुलिसकर्मियों को किले की दीवार से नीचे धक्का देकर गिरा दिया गया। इन अपराधियों को जल्द से जल्द से पकड़कर इन्हें कठोर सजा दी जानी चाहिए। इन लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए।
इन दंगाइयों के हौसले बुलंद थे। कुछ लोग लालकिले की प्राचीर के बगल वाले गुंबद पर चढ़ गए। इन लोगों ने इस गुंबद पर भी अपना झंडा लगा दिया। यह सारा तमाशा इसलिए हो रहा था ताकि कैमरे में कैद इन तस्वीरों से गणतंत्र दिवस पर भारत की बदनामी हो। 26 जनवरी 1950 को पूरे देश ने मिलकर तय किया था कि हिन्दुस्तान कैसे चलेगा। किस कानून के तहत चलेगा। इसी दिन हमने संविधान की पवित्रता को कायम रखने की कसम खाई थी। इसी दिन तय हुआ था कि कुछ भी हो जाए, कैसे भी हालात हों लेकिन देश संविधान से ही चलेगा। संविधान से ऊपर कोई नहीं होगा। लेकिन कल कुछ लोगों ने इस तपस्या को भंग और अपवित्र कर दिया। जो लोग किसानों के भेष में आए थे वो असलियत में देश-विरोधी और देश के दुश्मन थे। उन्होंने तिरंगे का अपमान किया। लाल किले के कई गुंबदों पर अपना झंडा लगा दिया। इन तस्वीरों को हम कभी नहीं भूलेंगे और इस तरह की हरकत करने वालों को देश कभी माफ नहीं करेगा।
लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इस उपद्रव और हिंसा की निंदा की है। लेकिन असल में किसी नेता ने खुलकर हिम्मत से अपनी बात कही तो वो पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह हैं। कैप्टन ने कहा कि दिल्ली में जो हुआ वो दुखद है, बर्दाश्त करने के लायक नहीं है। इसके बाद किसान संगठनों के नेताओं को दिल्ली से वापस लौटकर वहीं जाना चाहिए जहां वो आंदोलन कर रहे थे। कैप्टन ने जो कहा उसे कहने के लिए हिम्मत चाहिए क्योंकि कैप्टन अमरिन्दर पंजाब के सीएम हैं। इस आंदोलन में ज्यादातर किसान पंजाब के हैं। अब तक अमरिंदर किसान आंदोलन का खुलकर समर्थन कर रहे थे। लेकिन कल जब हिंसा हुई तो कैप्टन अमरिंदर ने इसका समर्थन नहीं किया। कैप्टन अमरिन्दर सिंह की साफगोई की तारीफ होनी चाहिए और दूसरे नेताओं को उनसे सीखना चाहिए। खासकर राहुल गांधी को कैप्टन से सीख लेनी चाहिए कि जब बात देश के मान-सम्मान और तिरंगे की हो, जब बात लाल किले की परंपरा की हो, पुलिसवालों पर तलवार से हमले की हो, तो सियासत से ऊपर उठकर सोचना चाहिए।
मैंने सोमवार की रात अपने शो ‘आज की बात’ में इस बात की आशंका जताई थी कि किसानों के ट्रैक्टर परेड में गड़बड़ हो सकती है, हिंसा हो सकती है। किसान नेताओं ने दावा किया था कि कुछ नहीं होगा, बड़ी शान से परेड निकलेगी, कोई गड़बड़ी नहीं होगी। अगर गड़बड़ हुई तो हमारे वॉलंटियर देख लेंगे। लेकिन अब मैं इन किसान नेताओं से पूछना चाहता हूं कि उनके साथ जो लोग धरने पर बैठे थे, वो लोहे की रॉड, तलवारें, लाठियां लेकर क्या शांति पाठ करने आए थे? क्या पुलिसवालों पर हमला करके, उनके साथी किसानों के कल्याण के लिए माला जपने आए थे? इन किसान नेताओं को मान लेना चाहिए कि वो सिर्फ नाम के नेता हैं और कोई उनकी नहीं सुनता। ये लोग सिर्फ सरकार को धमकियां दे सकते हैं, मीडिया के लोगों को डरा सकते हैं। अगर जरा भी शर्म है तो अपना आंदोलन स्थगित करें और देश से माफी मांगें। क्योंकि गणतंत्र दिवस पर जो कुछ हुआ वो शर्मनाक है उससे पूरा देश आहत है। इसकी जिम्मेदारी किसान संगठनों के उन 41 नेताओं पर है जो विज्ञान भवन में बैठकर सारे देश के किसानों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं।
मैंने 70 के दशक में जय प्रकाश नारायण का आंदोलन देखा है। एक लीडर था, और छात्र आंदोलन पूरे देश में था। उनके एक इशारे पर छात्र आंदोलन में शांति हो जाती थी। महात्मा गांधी के 1922 के असहयोग आंदोलन को याद कीजिए जब गोरखपुर के चौरी चौरा में हिंसा हुई थी और पुलिस स्टेशन में आग लगा दी गई थी। इस घटना में 22 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी। इस घटना से आहत महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। ऐसे बड़े फैसलों के लिए बड़ा दिल चाहिए, बड़े लीडर होने चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इन लीडर्स का न दिल बड़ा है, न दिमाग बड़ा है।