प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब शुक्रवार को तीनों कृषि कानूनों का वापस लेने का ऐलान किया तब यह उम्मीद की जा रही थी कि किसान एक साल से ज्यादा समय से चल रहे अपने आंदोलन को खत्म कर देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब लोगों के मन में यह सवाल है कि आखिर संयुक्त किसान मोर्चे के नेताओं को क्या चाहिए? इनका असली उद्देश्य क्या है?
पिछले साल भर के दौरान ये किसान नेता इस बात का वादा कर रहे थे कि सरकार नए कृषि कानूनों को वापस ले, फिर हम घर चले जाएंगे। लेकिन अब वे आपने वादे से पीछे हटते दिख रहे हैं। अब ये किसान नेता न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गारंटी के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। इनका कहना है कि संसद द्वारा कृषि कानूनों को निरस्त करने और एमएसपी पर कानून बनने के बाद ही दिल्ली के बॉर्डर से संयुक्त किसान मोर्चे के टेंट, ट्रैक्टर और ट्रॉली हटेंगी और किसान धरना स्थल से वापस लौटेंगे। लेकिन सवाल ये है कि अगर सरकार किसानों की यह मांग भी मान ले तो क्या आंदोलन खत्म हो जाएगा?
अभी तक इस बात की कोई गारंटी नहीं कि है अगर एमएसपी गारंटी पर कानून पास हो गया तो किसान धरना स्थल से हट जाएंगे। इस बात को भी समझने की जरूरत है कि क्या किसानों की एमएसपी गांरटी देने की मांग को मान पाना सरकार के लिए संभव है? देश की अर्थव्यवस्था पर इसके असर को समझना चाहिए। किसान नेता यह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी यह मांग पूरी नहीं होनेवाली है और वे अपना आंदोलन जारी रखेंगे।
पिछले एक साल से दिल्ली के तीन मुख्य बॉर्डर आवागमन के लिए बंद हैं। यहां संयुक्त किसान मोर्चा के तंबू गड़े हैं और ट्रैक्टर से सड़कें ब्लॉक हैं। ज्यादातर किसान नेता पंजाब, यूपी और उत्तराखंड में चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। विधानसभा चुनाव नजदीक होने के चलते ये किसान नेता इन राज्यों के सियासी माहौल को गर्म कर रहे हैं।
राकेश टिकैत और युद्धवीर सिंह जैसे किसानों नेताओं का फोकस यूपी पर है जबकि गुरनाम सिंह चढ़ूनी और बलवीर सिंह राजेवाल का फोकस पंजाब पर है। सोमवार को टिकैत ने लखनऊ में एक किसान महापंचायत का आयोजन किया। टिकैत ने बार-बार ये साबित करने की कोशिश की कि मोदी सरकार आंदोलन के दबाव में और यूपी-पंजाब में विधानसभा चुनाव के कारण पीछे हटी है।
टिकैत ने कहा कि सरकार ने भले ही कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया है लेकिन इससे किसानों का भला नहीं होगा। किसानों की हालत तभी सुधरेगी जब सरकार किसानों को उनकी फसल के सही दाम की गारंटी दे। उन्होंने कहा कि जब तक एमएसपी गारंटी का कानून नहीं बनता तब तक किसान आंदोलन चलता रहेगा। अब एमएसपी की गारंटी मिलने के बाद भी आंदोलन खत्म हो जाएगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। क्योंकि अगर सरकार ऐसा कर भी दे तो किसान नेता एमएसपी तय करने के फॉर्मूले पर सवाल उठाएंगे।
सोमवार को ही किसान नेताओं ने अपनी मंशा के संकेत देने शुरू कर दिए। राकेश टैकत ने कहा कि अगर सही फॉर्मूला अपनाया गया होता और फसलों के दाम सही तरीके से बढ़ते तो एक क्विंटल गेहूं के भाव आज 15 हजार रुपये होते। यानी 150 रुपये किलो के भाव किसानों को मिलते!
राकेश टिकैत अब किसान नेता की तरह नहीं बल्कि राजनीतिक दल के नेता की तरह व्यवहार कर रहे हैं। वह किसानों को उकसाने और भड़काने का काम कर रहे हैं। 15 हजार रुपये प्रति क्विंटल खरीद दर की बात कर रहे हैं लेकिन यह नहीं बताते कि 15 हजार रुपए क्विटंल का भाव उन्होंने किस साइंटिफिक फॉर्मूले से निकाला है। टिकैत ने कहा कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एमएसपी की गांरटी की मांग करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को एक रिपोर्ट पेश की थी। टिकैत ने कहा कि अब वही रिपोर्ट नरेंद्र मोदी लागू कर दें तो किसान अपना आंदोलन खत्म करके घर चले जाएंगे।
मैंने एमएसपी को लेकर कई रिपोर्ट्स का अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि अगर कुछ फसलों के लिए सरकार ने एमएसपी की गारंटी दे दी और इसके लिए कानून बनाया तो ये नई मुसीबत को दावत देना होगा। क्योंकि अपने देश में हजारों किस्म की फसलें, फल और सब्जियां पैदा होती हैं। अगर सरकार सिर्फ धान और गेहूं को एमएसपी की गांरटी देगी तो दूसरे किसान भी तो अपनी फसल की कीमत की गारंटी मांगेंगे।
फिलहाल केंद्र सरकार 23 फसलों की एमएसपी तय करती है लेकिन ये कीमत कोई कानूनी गारंटी नहीं है। इसका मतलब यह है कि सरकार जितनी फसल खरीदेगी वो एमएसपी पर ही खरीदेगी लेकिन किसान चाहे तो व्यापारियों, आढ़तियों, राइस और फ्लोर मिल वालों को अपनी फसल आपसी सहमति के आधार पर तय रेट पर बेच सकते हैं। किसान चाहते हैं कि सरकार ये कानून बनाए कि व्यापारी भी एमएसपी से कम रेट पर फसल न खरीद सकें। अगर सरकार ने ये गारंटी दे दी तो व्यापारी किसानों की फसल बाजार से ज्यादा रेट में खरीदेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके बाद सरकार पर दबाव होगा कि वो किसानों की फसल खरीदे, भले ही जरूरत हो या न हो, भंडारण की क्षमता हो या न हो।
एमएसपी गारंटी का कानून अगर पास हो गया तो फिर सरकार पर किसान की सारी फसल एमएसपी पर खरीदने का दबाव बनाया जाएगा। महाराष्ट्र स्थित शेतकारी संगठन के अध्यक्ष और किसानों के मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल के सदस्य अनिल घनवट का कहना है कि विकसित देशों में भी सरकारें एमएसपी की गारंटी नहीं देती हैं बल्कि सब्सिडी ऑफर करती हैं।
अनिल घनवट का कहना है कि अगर केंद्र सरकार सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदना शुरू कर दे तो देश दो साल के अंदर कंगाल हो जाएगा। भंडारण क्षमता की कमी के चलते हर साल लाखों टन धान और गेहूं बर्बाद हो जाते हैं। फिलहाल देश में 48 लाख मीट्रिक टन धान की खपत होती है लेकिन सरकार पहले ही 110 लाख मीट्रिक टन धान खरीद चुकी है। यह कुल खपत से ढ़ाई गुना ज्यादा है।
अगर एमएसपी गारंटी कानून लागू किया गया तो किसान तो अपनी फसल सरकार को बेचकर घर चले जाएंगे लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार के पास इतनी भंडारण क्षमता है? सरकार के पास न तो इन फसलों को रखने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर है, न गोदाम । इसलिए विशेषज्ञ कहते हैं कि एमएसपी की गारंटी से ज्यादा जरूरी है कि इन्फ्रास्ट्रक्टर में निवेश किया जाए। विशेषज्ञ कहते हैं कि पूरी दुनिया में यही होता है कि किसी भी उत्पाद की कीमत बाजार तय करता है। मांग और आपूर्ति के अधार पर कीमत तय होती है। लेकिन किसान नेता कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं।
जब हमारे रिपोर्टर ने विशेषज्ञों की राय के बारे में राकेश टिकैत से बात की तो उन्होंने कहा-‘1967 में तीन बोरे गेहूं में एक तोला सोना आता था। सरकार हमें यह रेट दे दे। किसान और कुछ नहीं मांगेंगे।’ आम आदमी के लिए ये बातें तर्कसंगत लग सकती हैं। बात सही भी है कि जिस हिसाब से दूसरी चीजों की कीमतें बढ़ी उस हिसाब से किसानों की फसल की कीमत नहीं बढ़ी।
लेकिन विशेषज्ञ इसे अलग तरीके से समझाते हैं। उनका कहना है कि 1967 में जिस वक्त तीन बोरे गेहूं में एक तोला सोना आता था उस वक्त हमारे देश में गेहूं का उत्पादन बहुत कम होता था। हमें खाने के लिए गेहूं और चावल विदेशों से मंगाना पड़ता था। आपको याद होगा 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने खाद्यान्न की कमी के कारण दिन में एक वक्त खाने और दूसरे वक्त उपवास रखने की अपील की थी। उस वक्त देश में अनाज की भयंकर कमी आई थी। इसके बाद एमएसपी का कॉन्सेप्ट आया ताकि किसान फसल की पैदावार बढ़ाएं। उस समय एमएसपी को कानून के जरिए नहीं बल्कि एक एग्जक्यूटिव आदेश के जरिए लाया गया था। मकसद सिर्फ इतना था कि किसान ज्यादा से ज्यादा अन्न उपजाएं और सरकार एमएसपी पर उनकी फसल खरीद लेगी।
अब हालात बिल्कुल उल्टे हो गए हैं। देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। अनाज का उत्पादन इतना हो रहा है कि रखने की जगह नहीं है और कोई खरीददार नहीं है। मजे की बात ये है कि राकेश टिकैत, योगेन्द्र यादव, युद्धवीर सिंह, गुरनाम सिंह चढ़ूनी, हन्नान मोल्लाह या फिर बलबीर सिंह राजेवाल जैसे किसान नेता भी इस हकीकत को जानते हैं लेकिन वे किसानों को गुमराह कर रहे हैं। ये लोग कुछ ऐसी शर्तें रख रहे हैं जिसे कोई सरकार पूरा नहीं कर सकती। इसकी वजह ये है कि इन किसान नेताओं को अब किसानों के कल्याण में कोई दिलचस्पी नहीं है। ये किसान नेता आनेवाले विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की पार्टी की हार तय करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
देश का प्रधानमंत्री हाथ जोड़कर ये कहे कि उन्होने ईमानदारी, पवित्र हृदय और सही नीयत से किसानों के हित में कानून बनाए थे लेकिन कुछ किसानों को अपनी बात समझाने में नाकाम रहे इसलिए कानून वापस ले रहे हैं। किसानों को अपना आंदोलन खत्म कर वापस घर लौट जाना चाहिए। इससे ज्यादा साफ और क्या कहा जा सकता है? प्रधानमंत्री ने यह भी माना कि उनकी तपस्या में कोई कमी रह गई होगी जिसके कारण वह सभी किसानों को नए कानूनों के बारे में समझा नहीं सके।
अब ये भी साफ हो गया कि मोदी जिन किसान नेताओं को अपनी बात नहीं समझा पाए वो कभी समझेंगे भी नहीं क्योंकि वो समझना ही नहीं चाहते। कल अगर संयुक्त किसान मोर्चे की एमएसपी गारंटी की मांग भी मान ली जाए तो कहेंगे कि किसानों पर लगे मुकदमे वापस लो। किसानों से मुकदमे वापस हो जाएंगे तो कहेंगे कि प्रदूषण (पराली जलाने) पर बने कानून वापस हों। वो भी हो जाएगा तो कहेंगे बिजली की कीमतों पर बना कानून रद्द हो। वो भी हो जाएगा तो कहेंगे कि सरकार बीज और दूध को लेकर जो कानून बनाएगी उस पर बात हो। यानी कुल मिलाकर सरकार एक मांग मानेगी तो उसके सामने दूसरी मांग रख दी जाएगी लेकिन तंबू नहीं उखड़ेंगे। तंबू दिल्ली के बॉर्डर पर गड़े रहेंगे और किसान नेता विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ प्रचार करते रहेंगे।