शुक्रवार की सुबह 100 करोड़ से ज्यादा देशवासियों की नजरें टीवी पर गड़ी हुई थीं। ये लोग ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल के लिए भारतीय महिला हॉकी टीम और ग्रेट ब्रिटेन के मुकाबले को देख रहे थे। मैच की शुरुआत में 2 गोल से पिछड़ने के बाद देश की बेटियों ने शानदार वापसी करते हुए ब्रिटिश टीम पर 3-2 की बढ़त बना ली। लेकिन अंत में 3-4 से यह मैच उनके हाथों से फिसल गया और वे कांस्य पदक हासिल करने से चूक गईं।
अगर देश की इन बेटियों ने इस मैच को जीत लिया होता तो यह एक ऐतिहासिक क्षण होता जब देश की पुरुष और महिला, दोनों हॉकी टीमें ब्रॉन्ज मेडल के साथ स्वदेश लौटतीं। अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ, लेकिन मैदान में इन बेटियों ने अपने धैर्य और दृढ़ संकल्प से 100 करोड़ से ज्यादा देशवासियों का दिल जीत लिया। वे मैच को बराबरी पर लाने के लिए आखिरी मिनट तक लड़ीं।
इससे पहले गुरुवार को टोक्यो ओलंपिक में 2-2 बार राष्ट्रगान की गूंज सुनाई दी। पहले, जब पुरुष हॉकी टीम ने जर्मनी को हराकर ब्रॉन्ज मेडल पदक जीता और दूसरी बार जब पहलवान रवि कुमार दहिया को अपने रूसी प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ कड़े मुकाबले में सिल्वर मेडल से संतोष करना पड़ा। हॉकी में 41 साल से मेडल का इंतजार था। तिरंगे के फहराने का इंतजार था, लेकिन इस जीत से सीना गर्व से चौड़ा हो गया। 1980 के मॉस्को ओलंपिक में भारत को हॉकी का गोल्ड मेडल जीतते हुए देखनेवाले कई लोगों की आंखों में खुशी के आंसू थे।
एक जमाने में भारत दुनिया में हॉकी का बेताज बादशाह था। हमारे हॉकी खिलाड़ियों को दुनिया जादूगर कहती थी। मेजर ध्यानचंद जैसे खिलाड़ियों की हॉकी स्टिक में जैसे जादू हुआ करता था। लेकिन समय के साथ-साथ खेल के नियम भी बदल गए हैं। 2008 में भारतीय हॉकी टीम को राइट ऑफ कर दिया था क्योंकि तब हमारी टीम ओलंपिक के लिए क्वॉलीफाई नहीं कर पाई थी। 4 साल बाद 2012 में यह टीम बारहवें नंबर पर रही थी। 2016 में हम क्वॉर्टर फाइनल में हारे थे। तब ऐसा लगता था कि भारतीय हॉकी अब अपना खोया हुआ गौरव कभी हासिल नहीं कर पाएगी। लेकिन इस बार हमारी टीम ने हॉकी में जान फूंक दी। ग्रेट ब्रिटेन को हराकर टीम ने सेमीफाइनल में प्रवेश किया था। 2 दिन पहले सेमीफाइनल मैच हमें बेल्जियम से हार का सामना करना पड़ा। फिर भी हमने ब्रॉन्ज मेडल के लिए अपनी उम्मीदें नहीं छोड़ी थी।
मैच की शुरुआत में ही जर्मनी ने गोल कर दिया, थोड़ा झटका लगा लेकिन 10 मिनट के बाद भारत ने बराबरी कर ली। कुछ ही देर में जर्मनी ने 2 गोल और दाग दिए तो उम्मीद टूटती सी दिखीं, लेकिन हमारी टीम ने हार नहीं मानी। भारत ने बाउंसबैक करते हुए एक के बाद एक 4 गोल कर दिए और 5-3 से आगे हो गए। जर्मनी ने एक और गोल किया और स्कोर 5-4 हो गया। हम फिर भी आगे थे। लेकिन सांसें तब थम गईं जब आखिरी के 6 सेकेन्ड बचे थे और जर्मनी को पेनल्टी कॉर्नर मिल गया। जर्मन खिलाड़ियों ने हिट किया लेकिन बॉल और गोलपोस्ट के बीच गोलकीपर श्रीजेश आ गए और इतिहास रच दिया। 41 साल के बाद हॉकी की टीम को ओलंपिक के पोडियम पर खड़े होने का मौका मिला। इससे भारतीय हॉकी में एक नए स्वर्ण युग की वापसी की उम्मीद जाग गई है।
मैच के बाद का सबसे यादगार दृश्य वह था जिसमें श्रीजेश गोल पोस्ट के ऊपर बैठकर राहत की सांस लेते और मुस्कुराते हुए दिखाई दिए। फिर उन्होंने ट्वीट किया: ‘अब मुझे मुस्कुराने दीजिए।’ एक दूसरी तस्वीर में श्रीजेश ओलंपिक के ब्रॉन्ज मेडल को अपने दांतों से दबाते हुए दिख रहे हैं और उन्होंने ट्वीट किया: ‘हां, इसका स्वाद नमकीन है। हां, मुझे याद है यह पिछले 21 सालों का मेरा पसीना है।’ आप सोचकर देखिए कि यह हॉकी खिलाड़ी पिछले 21 सालों से ओलंपिक मेडल का इंतजार कर रहा था।
श्रीजेश ने गुरुवार को 130 करोड़ भारतीयों को मुस्कुराने का मौका दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया: ‘शाबाश श्रीजेश! आपके बचाव ने भारत के लिए पदक अर्जित करने में बड़ी भूमिका निभाई। आपको बधाई और शुभकामनाएं।’ उन्होंने जवाब दिया: ‘बहुत बहुत धन्यवाद सर।’
यह श्रीजेश का तीसरा ओलंपिक था। श्रीजेश ने अपने हॉकी करियर में करीब-करीब सारे मेडल जीते, लेकिन उनके घर में ओलंपिक मेडल की कमी थी। उनके जीवन की महत्वाकांक्षा अब पूरी हो गई है। वह घर पर बोलकर गए थे कि इस बार जान लगा देंगे, लेकिन मेडल जीतकर ही लौटेंगे, इसलिए परिवार को भी उम्मीदें थी। गुरुवर की सुबह केरल के एर्नाकुलम में श्रीजेश के घर में परिवार के सभी लोग नहा-धोकर, पूजा-पाठ करके टीवी के सामने बैठ गए थे। मैच के आखिरी पलों में टेंशन इतनी ज्यादा थी कि श्रीजेश की मां टीवी के सामने से उठ गईं। वह आखिरी 6 सेकंड का खेल नहीं देख पाईं जब जर्मनी को पेनल्टी कॉर्नर मिला था, लेकिन जैसे ही श्रीजेश ने गोल बचाया और भारत ने मैच जीता, परिवार में जीत का जश्न शुरू हो गया।
श्रीजेश भारतीय टीम के सबसे अनुभवी खिलाड़ी हैं। वह पिछले 15 साल से भारतीय टीम का हिस्सा हैं। 2011 में एशियन चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल में भारत को जीत दिलाने वाले श्रीजेश ही थे। तब उन्होंने पाकिस्तान के 2 पेनल्टी स्ट्रोक्स रोके थे। 5 साल बाद 2016 में वह भारतीय हॉकी टीम के कैप्टन बने और उनकी लीडरशिप में टीम रियो ओलंपिक में क्वॉर्टर फाइनल तक पहुंची। 2016 में ही हॉकी टीम ने चैंपियंस ट्रॉफी में सिल्वर मेडल जीता। 2014 और 2018 की चैंपियंस ट्रॉफी में वह ‘गोलकीपर ऑफ द टूर्नामेंट’ रह चुके हैं। 2017 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा जा चुका है।
इस जीत के एक और हीरो सिमरनजीत सिंह रहे। सिमरनजीत के गोल से ही भारत मैच में जर्मनी की बराबरी पर आया। इसके बाद उन्होंने पांचवां गोल दागकर जर्मनी को 2 गोल से पीछे कर दिया। बेल्जियम के खिलाफ सेमीफाइनल में उन्हें रेस्ट दिया गया था। वह टीम इंडिया के फॉर्वर्ड हैं लेकिन गुरुवार को उन्हें मिलफील्डर के तौर पर उतारा गया। सिमरनजीत ने मैच के 17वें मिनट में भारत की तरफ से पहला गोल दागा और फिर 34वें मिनट में बॉल को दूसरी बार गोल पोस्ट में पहुंचा दिया।
गुरदासपुर जिले में सिमरनजीत के गांव में हर तरफ खुशी का माहौल था। उनके चचेरे भाई गुरजंत सिंह भी टीम में खेलते हैं। सिमरनजीत 2016 में जूनियर वर्ल्ड कप जीतने वाली हॉकी टीम का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने 2018 में चैंपियंस ट्रॉफी में भी खेला है। वह भारत के लिए अब तक 47 मैचों में 14 गोल कर चुके हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि शुरुआत में वह ओलंपिक में जाने वाली 16 सदस्यीय टीम में शामिल नहीं थे। लेकिन जब इंटरनेशनल ओलंपिक कमिटी ने कोविड-19 महामारी के कारण 2 वैकल्पिक खिलाड़ियों को शामिल करने की इजाजत दी, तो उनका नाम 18 सदस्यीय टीम में शामिल किया गया। शुरुआती 2 मैचों में सिमरनजीत को खेलने का मौका नहीं मिला, लेकिन ऑस्ट्रेलिया ने भारत को जब 7-1 से हराया तो उन्हें प्लेइंग इलेवन में शामिल किया गया। उन्होंने स्पेन के खिलाफ अपने पहले ही मैच में गोल किया, इसके बाद बेल्जियम के खिलाफ सेमीफाइनल में नहीं खेले, लेकिन गुरुवार को सिमरनजीत की हॉकी ने मैदान में अपना कमाल दिखाया और उन्होंने टीम की जीत की बुनियाद रख दी।
आज की जीत के एक और हीरो जिनका मैं नाम लेना चाहूंगा, वह हैं रूपिंदर सिंह। उनके पिता एक हॉकी खिलाड़ी थे लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उन्होंने खेलना बंद कर दिया था। हालत यह थी जब घर चलाने और पैसे जोड़ने के लिए रूपिंदर की मां कपड़े सीने का काम करती थीं। रूपिंदर भी पैसे बचाने के लिए सिर्फ एक वक्त का खाना खाते थे। रूपिंदर और उनके बड़े भाई अमरवीर दोनों हॉकी खिलाड़ी बनना चाहते थे, लेकिन परिवार सिर्फ एक बच्चे को हॉकी स्टिक और इस खेल की ट्रेनिंग दिला सकता था। इसलिए बड़े भाई ने छोटे भाई के लिए मैदान छोड़ दिया। इसके बाद तो रूपिंदर आगे बढ़ते चले गए। पहले राज्य स्तर के खिलाड़ी के रूप में उभरे और फिर 2010 में भारतीय सीनियर टीम का हिस्सा बन गए। 8 साल तक टीम के मुख्य खिलाड़ियों में रहे। वह पहले ड्रैग फ्लिकर थे और अब डिफेंडर के तौर पर खेलते हैं। यह उनका दूसरा ओलंपिक था।
29 साल के मनप्रीत सिंह भारतीय हॉकी टीम के कप्तान हैं। वह 2012 और 2016 के बाद अपने तीसरे ओलंपिक में हिस्सा ले रहे थे। उन्होंने 19 साल की उम्र में भारत के लिए अपना पहला मैच खेला और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंजाब के जालंधर से आने वाले मनप्रीत को मिडफील्ड का जादूगर कहा जाता है। बॉल को मिडफील्ड से गोल पोजिशन तक पहुंचाने का काम मनप्रीत से बेहतर शायद ही कोई और खिलाड़ी कर पाए। गुरुवार को जर्मनी के खिलाफ हुए मैच में भी मनप्रीत के तमाम काफी सटीक थे और उन्होंने साथी खिलाड़ियों को कई बार गोल बनाने के मौके दिए। मनप्रीत सिंह 2017 में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान बने और 2019 में उन्हें इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन की तरफ से ‘प्लेयर ऑफ द ईयर’ के सम्मान से नवाजा गया। इस बार टोक्यो ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में वह मैरीकॉम के साथ भारत के ध्वजवाहक बने थे।
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का विशेष धन्यवाद, जिन्होंने भारत की पुरुष और महिला हॉकी टीमों को प्रायोजित किया। ओडिशा सरकार ने इन खिलाड़ियों की ट्रेनिंग से लेकर उनके खाने-पीने और रहने तक सारी जरूरतों का ख्याल रखा। उन्होंने सुनिश्चित किया कि खिलाड़ियों की प्रैक्टिस में किसी तरह की रुकावट न हो। एक हॉकी स्टेडियम का निर्माण भुवनेश्वर में और एक अन्य स्टेडियम का निर्माण राउरकेला में किया जा रहा है।
मैं गुरुवार को भारत के लिए सिल्वर मेडल जीतने वाले पहलवान रवि कुमार दहिया की भी सराहना करना चाहूंगा। 57 किलोग्राम की फ्रीस्टाइल कैटिगरी में रवि दहिया का मुकाबला 2 बार के वर्ल्ड चैम्पियन रूस के पहलवान जायूर उगयेव से था। जब मैंने रजत पदक जीतने वाले दहिया की बात सुनी तो मन भर आया। इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने वाले रवि दहिया ने कहा कि देश को उनसे गोल्ड मेडल की उम्मीद थी, वह इसके लिए ही लड़ भी रहे थे लेकिन नाकाम रहे। उन्होंने कहा, ‘इस बार मैंने गलती की, लेकिन अगली बार गोल्ड ही जीतूंगा।’
तमाम बड़ी हस्तियों और नेताओं की तरफ से खिलाड़ियों पर बधाइयों की बारिश हो रही है, मैं कहना चाहता हूं कि: यह हमारे ऐथलीटों की लगन और मेहनत का श्रेय लेने का समय नहीं है। यह वक्त खिलाड़ियों का स्वागत करने का, भविष्य के मुकाबलों के लिए उनका हौसला बढ़ाने का और सारा का सारा श्रेय खुद खिलाड़ियों को देने का है। उनकी मेहनत और लगन की वजह से भारत का नाम उंचा हुआ है। स्टेडियम किसने बनवाए, खिलाड़ियों के लिए नीतियां किसने बनाईं, इस बारे में बात करने का कोई फायदा नहीं है। बात इस पर होनी चाहिए कि हमें और मेडल कैसे मिलें, कैसे रवि दहिया जैसे पहलवान अचानक युवाओं के लिए एक आदर्श बन गए, और हम अन्य राज्यों कई और रवि दहिया के उभरने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि हमारी हॉकी टीम ने 41 साल के बाद ओलंपिक में मेडल जीता है और यह भी सही है कि ब्रॉन्ज मेडल जीता है। लेकिन ब्रॉन्ज मेडल जीतने पर खुशी जाहिर करने, अपने खिलाड़ियों को शाबासी देने की बजाए क्या हम उनसे यह पूछें कि उन्होंने गोल्ड मेडल क्यों नहीं जीता? यह कहना कि चूंकि वे गोल्ड मेडल नहीं ला पाए इसलिए यह जीत बेकार है, इन मेहनती खिलाड़ियों के साथ अन्याय के अलावा कुछ भी नहीं है।
कांग्रेस के सांसद शशि थरूर का ट्वीट पढ़कर मुझे दुख हुआ। उन्होंने लिखा, ‘हम भारत में कभी-कभार ओलंपिक का ब्रॉन्ज मेडल जीतने पर जश्न मनाते हैं, जबकि चीन के बड़े-बड़े राष्ट्रवादी सिल्वर मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों से भी सवाल पूछते हैं।’ मुझे लगता है ऐसी बात कहना स्पोर्ट्समैन स्पिरिट नहीं है। यह देश की भावना के खिलाफ है। हमारे खिलाड़ियो ने बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल की है और देश का मान बढ़ाया है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने मेडल जीतकर हमारे राष्ट्रीय खेल के प्रति गौरव करने का मौका दिया।
इसका फायदा ये होगा कि अब बड़ी संख्या में हॉकी के प्रति युवाओं की दिलचस्पी बढ़ेगी। एशियाई खेलों, राष्ट्रमंडल खेलों और ओलंपिक में मेडल जीतकर हरियाणा के पहलवानों ने पूरे भारत में यह संदेश दिया है कि अब उनका राज्य पहलवानों की नर्सरी बन चुका है। इसी तरह हॉकी में यह जीत केंद्र और राज्य सरकारों को हमारे हॉकी खिलाड़ियों के लिए और भी ज्यादा इन्फ्रास्ट्रक्चर और ट्रेनिंग सेंटर बनाने के लिए प्रोत्साहित करेगी, ताकि हम इस खेल में अपना खोया हुआ गौरव वापस पा सकें। इसका पूरा श्रेय हमारे हॉकी खिलाड़ियों को जाता है जिन्होंने निराशा को एक बड़ी उम्मीद में बदलकर रख दिया है।