आज मैं एक संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दे पर बात करना चाहता हूं जो लगभग प्रत्येक भारतीय की आत्मा से जुड़ा है। अब जबकि महामारी की दूसरी लहर स्पष्ट रूप से कमजोर पड़ती जा रही है, इस बारे में एक निष्पक्ष नजरिया रखा जा सकता है कि मई के पहले दो हफ्तों के दौरान उन्नाव, कानपुर और प्रयागराज से लेकर बिहार के बक्सर और पटना में 100 से ज्यादा लाशें गंगा नदी में तैरती हुई क्यों मिली थीं। प्रयागराज में गंगा के किनारे रेत में अभी भी सैकड़ों शव दबे हैं, जिनका अब अंतिम संस्कार किया जा रहा है।
जब मैंने पहली बार नदी में तैरती और नदी के किनारे रेत में दबी लाशों की तस्वीरें देखीं तो मेरे मन में पहला सवाल आया था: लोग इतने क्रूर और असंवेदनशील कैसे हो सकते हैं? लोग अपने प्रियजनों के शवों को नदी में कैसे बहा सकते हैं, या उन्हें रेत में कैसे दफना सकते हैं? क्या लोगों को जरा भी होश नहीं है? आमतौर पर हिंदू धर्म में तो इस उम्मीद में धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद शव का दाह संस्कार किया जाता है कि मृतात्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो।
जब गंगा में शवों के तैरने की खबर आई तो कई तरह के स्पष्टीकरण दिए गए। कुछ लोगों ने कहा, चूंकि कोविड के कारण काफी लोगों की जान गई है इसलिए मृतकों के रिश्तेदार डर गए हैं कि यदि वे अंतिम संस्कार के समय बॉडी को छूएंगे तो वायरस उन्हें भी अपनी चपेट में ले लेगा। इसी डर के चलते शवों को या तो नदी में बहा दिया गया या दफना दिया गया। मुझे इस स्पष्टीकरण पर यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि गंगा नदी में जो लाशें तैरती हुई मिली थीं उनमें से अधिकांश को कोविड प्रोटोकॉल के मुताबिक पॉलीथिन में नहीं लपेटा गया था। इससे साफ था कि ये शव अस्पताल के मुर्दाघर से नहीं आए थे।
दूसरी बात ये सुनने को मिली कि इतनी तादाद में मौते हुई हैं कि श्मशान में लकड़ियां मंहगी हो गई हैं, सामग्री मंहगी हो गई हैं, इसलिए दाह संस्कार करने का खर्चा इतना ज्यादा आ रहा है कि लोगों ने शवों को गंगा में बहा दिया या दफना दिया। लेकिन बाद में पता चला कि अगर परिवार वाले गरीब हैं, या कोरोना मरीज का अंतिम संस्कार करने से डर रहे हैं तो ऐसे में प्रशासन मदद करता है। यह सच है कि कोरोना से मरने वालों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही थी, लेकिन ये मानने को मेरा जी नहीं चाहता था कि लोग अपने प्रियजनों के शवों को पानी में बहाने या दफनाने की हद तक चले जाएंगे।
मजबूरी चाहे जो हो, इस संवेदनशील मुद्दे पर जमकर राजनीति की गई। कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा से लेकर अखिलेश यादव की पार्टी तक के लोगों ने पूछा कि गंगा में तैरती लाशों के लिए कौन जिम्मेदार है? प्रवक्ताओं ने तो कहा कि सरकार को शर्म आनी चाहिए? ऐसे सवालों को उठाने में कुछ भी गलत नहीं था, लेकिन जब गंगा में तैरती या नदी के किनारे दफनाई गई लाशों की तस्वीरें न्यॉयार्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट में और गार्जियन जैसे अंतर्राष्ट्रीय अखबारों में छपीं, और इंटरनेट पर वायरल हुईं, तो काफी हाहाकार मचा। लेकिन इस मूल प्रश्न का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश किसी ने नहीं की कि लोग अपने प्रियजनों की लाशों को गंगा में क्यों बहाएंगे या नदी किनारे क्यों दफनाएंगे।
इंडिया टीवी के रिपोर्टरों और रिसर्चरों ने तथ्यों की गहराई से छानबीन की, और मृतकों के रिश्तेदारों से बात की ताकि यह पता लगाया जा सके कि ऐसी कौन सी मजबूरियां थीं जिसके चलते उन्होंने शवों को नदी में बहा दिया या फिर रेत में दफना दिया। ऐसा क्या था जिसकी वजह से लोगों ने अपनों का दाह संस्कार करने की बजाय शवों पर ‘रामनामी’ कपड़ा डालकर उन्हें नदी के किनारे दफना दिया? हम कह सकते हैं कि जितनी भयानक तस्वीरें सामने आई थीं, उतना ही डराने वाला यह सवाल भी था।
मैं आपको एक हिंदी अखबार में छपी खबर पढ़कर बताता हूं। यह उन्नाव जिले की खबर है। अखबार ने लिखा- उन्नाव में गंगा में बहती मिली 104 लाशों से सनसनी, घाट पर पहुचा प्रशासन। लोगों ने परिजनों के शवों को प्रवाहित किया, स्थानीय प्रशासन ने आनन-फानन में जेसीबी बुलवाकर लाशों को नदी किनारे रेत में दफन करवाया। शासन से मिलने वाले पैसे से अन्तिम संस्कार हुआ। लाशों को दफनाने का विरोध करने पहुंचे राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं को पुलिस ने रोका। प्रशासन ने कहा, विरोध करने वालों के खिलाफ होगी सख्त कारवाई।
आपको लगेगा यह 2 हफ्ते पहले कोरोना वायरस की दूसरी लहर के प्रकोप से मरने वालों के बारे में लिखी गई खबर है। लेकिन इसका जवाब है बिल्कुल ‘नहीं’। यह अखबार 14 जनवरी 2015 का है। यह घटना आज से 6 साल पहले की है। उस समय भी ऐसी ही खबरें छपी थी, ऐसी ही तस्वीरें दिखाई दी थीं। 14 जनवरी 2015 को ही हिंदी के एक बड़े अखबार दैनिक जागरण में छपा था कि उन्नाव में गंगा में 100 से ज्यादा लाशें उतराती हुई मिलीं। इस खबर से तहलका मच गया। IG, पुलिस और प्रशासन के लोग घटनास्थल पर पहुंचे। जेसीबी बुलवा कर शवों को दफनाया गया। उस खबर में यह भी लिखा था कि कैसे चील, कौए और सियार लाशों को खा रहे हैं। यह जनवरी 2015 की बात है, और आपको जानकर हैरानी होगी कि उस समय बीजेपी के नेता इन लाशों पर सवाल उठा रहे थे। बीजेपी के स्थानीय सांसद साक्षी महाराज ने केंद्र से इस मामले की जांच कराने की मांग की थी। उन्होंने शक जताया था कि हो सकता है ये लाशें कन्नौज और फर्रूखाबाद से बहकर उन्नाव आईं हों।
इसी तरह की खबरें इस महीने अखबारों में छपीं। इस बार समाजवादी पार्टी के नेताओं ने बीजेपी की सरकार को घेरते हुए वही सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन ने मरने वालों की संख्या को छिपाने के लिए लाशों रेत के नीचे दबा दिया।
पिछले 6 सालों में सिर्फ वक्त बदला है, सरकार बदली है, विपक्ष में रही पार्टियां बदल गई हैं, लेकिन लाशों की संख्या बढ़ी है। सच्चाई यह है कि गंगा में लाशें तब भी थीं, गंगा के किनारे दफनाए गए शव तब भी थे, और आज भी हैं। बुधवार की सुबह जागरण अखवार ने 2018 में दफनाई गईं और 2021 में दफनाई गईं लाशों की 2 तस्वीरें एक साथ छापीं। जब ये तस्वीरें इंटरनेट पर वायरल होने लगीं, तब इंटरनेट पर पोस्ट करने वालों ने यह जानने की भी जहमत नहीं उठाई कि वे लाशें इसी महीने दफनाई गई हैं, या 3 साल पहले दफनाई गई थीं।
नदी की रेत में दफनाई गई लाशों की तस्वीरों के चलते पिछले दो हफ्ते से भारत की अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बदनामी हो रही थी। इसे इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे भारतीयों के पास इतना पैसा भी नहीं है कि वे अपनों का ठीक से दाह संस्कार भी कर सकें। लोगों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी नहीं मिल रही है और वे शवों को गंगा में बहा रहे हैं या नदी किनारे रेत में दफना रहे हैं। दुनिया के अखबारों में बड़ी-बड़ी बैनर हेडलाइंस छपीं और इन लाशों के वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो गए। लंदन के द टेलिग्राफ, द गार्जियन और लॉस एंजिलिस टाइम्स जैसे अखबारों ने इन तस्वीरों को छापा और भारत को एक विशाल कब्रिस्तान घोषित कर दिया। कुछ अखबारों ने तो दावा किया कि कोरोना से अब तक 10 लाख भारतीयों की जान जा चुकी है, तो किसी ने 5 लाख लोगों के मरने की आशंका जताई। चूंकि खबरें दिल दहलाने वाली थीं, क्योंकि तस्वीरें झकझोर देने वाली थीं, क्योंकि शक की कोई गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि ये केवल दावे नहीं थे बल्कि उन दावों का समर्थन करने वाली तस्वीरें थीं, इसलिए इन खबरों का व्यापक असर हुआ।
मेंने अपनी संवाददाता रूचि कुमार को प्रयागराज के श्रृंगवेरपुर घाट पर भेजा। वह आसपास के गावों में गईं और लोगों से बात की। कुल मिलाकर यह साफ थआ कि लोगों की मौत हुई हैं, और उनकी लाशों को रेत में दफनाया गया है या गंगा में बहाया गया है। स्थानीय लोगों ने माना कि पिछले सालों की तुलना में इस बार गंगा में बहकर आने वाली लाशों की संख्या ज्यादा है। अधिकांश ग्रामीणों ने कहा कि परिजनों द्वारा अपने प्रियजनों के शवों को गंगा में बहा देना या नदी किनारे रेत में दफना कर कब्र पर ‘रामनामी’ ओढ़ा देना काफी पुरानी परंपरा का हिस्सा है। ग्रामीणों ने कहा कि हालांकि आमतौर पर हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार शवों का अंतिम संस्कार किया जाता है, लेकिन महामारी या बड़ी संख्या में मौतें होने की हालत में उन्हें नदी में बहाया या नदी के किनारे रेत में दफनाया भी जा सकता है।
गंगा में लाशें पहले भी बहाई जाती थीं और उस समय कोई सवाल नहीं उठाता था। चूंकि इस बार कोरोना महामारी की दूसरी लहर के चलते भारत में रोजाना बड़ी संख्या में मौतें हो रही थीं, इसलिए दुनिया के अखबारों का ध्यान इन लाशों के दफनाए जाने पर केंद्रित हो गया था। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने यह दिखाने के लिए कि अधिकांश भारतीय इतने गरीब हैं कि दाह संस्कार का खर्च नहीं उठा सकते, रेत में दबे लोगों की छवियों को प्रकाशित करके इसे एक बड़ी कहानी बना दिया, जो गलत था। तथ्य यह है कि गरीब परिवारों को स्थानीय प्रशासन से दाह संस्कार का खर्च मिलता है, लेकिन चूंकि यह महामारी का समय था, इसलिए उन्होंने अपने मृतकों को विसर्जित करने या दफनाने का विकल्प चुना। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की ओर से भारतीयों को ‘संवेदनहीन’ कहना गलत था। मैं केवल इतना कह सकता हूं कि हमारे लोग न तो ‘संवेदनशून्य’ हैं और न ही वे आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं। कुछ रीति-रिवाज या परंपराएं हैं जिनका वे पालन करते हैं, और उनका पालन करना कोई अपराध नहीं है।