Rajat Sharma

देशद्रोह कानून को हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए

akb full_frame_60183152 साल के बाद भारत में देशद्रोह कानून के खात्मे की शुरुआत हो गई है। सरकार की सहमति के बाद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन. वी. रमण, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हेमा कोहली की बेंच ने अपने आदेश में उम्मीद जताई है कि जब तक सरकार इस कानून के बारे में अंतिम फैसला नहीं करती, तब तक124-A के तहत राजद्रोह के केस दर्ज नहीं होंगे।

सीधे तौर पर कहें तो भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के तहत अब देश में राजद्रोह का कोई नया मामला दर्ज नहीं किया जाएगा। जिन लोगों पर इस कानून के तहत पहले से केस दर्ज हैं, वे भी अदालतों से राहत की गुहार लगा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ‘यदि धारा 124ए के तहत कोई नया मामला दर्ज किया जाता है, तो प्रभावित पक्ष उचित राहत के लिए संबंधित अदालतों का दरवाजा खटखटाने के लिए स्वतंत्र हैं।’

सुप्रीम कोर्ट का आदेश ऐतिहासिक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करके कहा था कि प्रधानमंत्री का दृढ़ विचार है कि औपनिवेशिक युग के कानूनों के बोझ को, जिनकी अब कोई उपयोगिता नहीं रह गई है, ऐसे समय में समाप्त कर दिया जाना चाहिए जब राष्ट्र अपनी आजादी का 75वां वर्ष मना रहा है। हलफनामे में कहा गया था, ‘भारत सरकार ने, राजद्रोह के विषय पर व्यक्त किए जा रहे विभिन्न विचारों से पूरी तरह से अवगत होने के साथ-साथ नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की चिंताओं पर विचार करते हुए, इस महान राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने और संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध रहते हुए, भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के प्रावधानों की पुन: जांच और पुनर्विचार करने का निर्णय लिया है जो केवल सक्षम मंच के समक्ष किया जा सकता है।’

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को राजद्रोह कानून पर फिर से विचार करने के लिए समय देते हुए धारा 124ए की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई जुलाई के तीसरे सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी। सीधे शब्दों में कहें तो सरकार को देशद्रोह कानून पर फिर से विचार करने के लिए करीब 2 महीने का समय मिला है।

अब सरकार इस कानून को रिपील करने की दिशा में कदम उटाएगी, इसे संशोधित करेगी, या इसकी जगह कोई दूसरा कानून लाएगी लेकिन इतना तय है कि धारा 124A अब नहीं रहेगी। इस सुनवाई के दौरान जो सबसे ज्यादा हैरानी की बात सामने आई है, वह यह है कि आजादी के बाद पिछले 75 वर्षों में भारत की किसी भी सरकार ने राजद्रोह कानून को खत्म करने की कोशिश नहीं की। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इस कानून को खत्म करने के हिमायती थे, लेकिन यह IPC में बना रहा। आज सारी पार्टियां कह रही हैं कि यह काला कानून है, इसे खत्म होना चाहिए। सवाल यह है कि इसके बावजूद इस कानून को आजादी मिलने के तुरंत बाद खत्म क्यों नहीं किया गया?

सुप्रीम कोर्ट ने भी 1962 में अपने ऐतिहासिक केदार नाथ सिंह फैसले में देशद्रोह कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने धारा 124A को बरकरार रखते हुए देशद्रोह की सीमा तय की थी। इसने तब कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल सिर्फ तभी किया जा सकता है जब हिंसा के लिए वास्तविक रूप से उकसाया जाए या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित किया जाए, लेकिन सिर्फ सरकार की आलोचना करना देशद्रोह नहीं है।

हाल के दिनों में हमने देखा कि मुख्यमंत्री के आवास के बाहर हनुमान चालीसा का पाठ करने के ऐलान पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो गया। सोशल मीडिया पर कमेंट करने पर, ममता बनर्जी का कार्टून बनाने पर देशद्रोह लग गया। यहां तक कि सरकार के खिलाफ रिपोर्टिंग करने पर भी देशद्रोह लग गया, लेकिन उम्मीद है कि अब ऐसा नहीं होगा।

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने 152 साल पुराने, राजद्रोह के कानून के खिलाफ मोदी सरकार के रुख को सही ठहराया। बेंच ने कहा, ‘यह अदालत एक तरफ देश के सुरक्षा हितों और अखंडता से अवगत है, तो दूसरी तरफ उसे नागरिक स्वतंत्रताओं और नागरिकों का भी ध्यान है। दोनों के बीच संतुलन की जरूरत है जो कठिन काम है। याचिकाकर्ताओं का पक्ष है कि कानून का यह प्रावधान संविधान की रचना से पहले का है और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। अटॉर्नी जनरल ने भी, सुनवाई की पिछली तारीख को, इस प्रावधान के स्पष्ट दुरुपयोग के कुछ उदाहरण दिए थे, जैसे कि हनुमान चालीसा के पाठ के मामले में।’

देशद्रोह के मामले दर्ज करने पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कानून के जानकारों ने स्वागत किया है। वरिष्ठ अधिवक्ता गीता लूथरा ने कहा, ‘देशद्रोह का कानून अंग्रेजों ने बनाया था। नेहरू जी इस कानून को खत्म करना चाहते थे, कर नहीं पाए। इसके बाद इंदिरा गांधी ने इसे और कठोर बना दिया, कॉग्निजेबल ऑफेंस बना दिया। सियासी विरोधियों का मुंह बंद करने के लिए 124 A के दुरुपयोग खूब हुआ। अभी हाल ही में निर्दलीय सांसद नवनीत राणा के ऊपर महाराष्ट्र की सरकार ने राजद्रोह का केस लगाया था क्योंकि वह मुख्यमंत्री आवास के बाहर हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहती थीं। सुप्रीम कोर्ट में कानून की इस धारा को रद्द करने के लिए कई पिटीशन डाली गई थीं, और यह अच्छा है कि अब सरकार के पॉजिटिव रुख के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है। सरकारें देशद्रोह कानून को विरोधियों को चुप कराने का हथियार बना रही थीं, अब यह बंद हो जाएगा।’

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ‘हम आशा और अपेक्षा करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारें आईपीसी की धारा 124A के तहत प्राथमिकी दर्ज कराने, देशभर में राजद्रोह संबंधी कानून के तहत चल रही जांचों को जारी रखने, लंबित मुकदमों और अन्य सभी कार्यवाहियों से तब तक बचेंगी जब तक कि कानून का उक्त प्रावधान विचाराधीन है।’ इसका मतलब है कि जुलाई के तीसरे सप्ताह तक भारत में कहीं भी देशद्रोह का कोई नया मामला तब तक दर्ज नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह पूरी तरह से न्यायोचित न हो।

सुप्रीम कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला द्वारा साइन की हुई एक ड्राप्ट गाइडलाइन पेश की, जिसमें लिखा था, ‘…निम्नलिखित निर्देश जारी किए जाते हैं: (a) विनोद दुआ जजमेंट, 2021 में सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या का ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए (b) धारा 124A से संबंधित एक प्राथमिकी केवल तभी दर्ज की जाएगी जब कोई अधिकारी जो पुलिस अधीक्षक के पद से नीचे का न हो, संतुष्ट हो और लिखित रूप में अपनी संतुष्टि दर्ज करता है कि कथित अपराध में धारा 124A शामिल है, जैसा कि फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विश्लेषण किया गया है।’

केंद्रीय गृह सचिव द्वारा राज्य सरकारों के सभी मुख्य सचिवों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों, सभी राज्यों के DGPs को भेजे गए दिशा-निर्देश स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘भारत संघ उन मामलों में देश के नागरिकों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज करने के मामलों के बारे में चिंतित है, जब तथ्य आईपीसी की धारा 124A के तहत उक्त प्रावधान के रजिस्ट्रेशन और इन्वोकेशन को उचित नहीं ठहराते हैं।’

अब आपको देशद्रोह कानून का इतिहास बताता हूं। अंग्रेजों ने 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 3 साल बाद 1860 में भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code या IPC) लागू की। राजद्रोह की दफा IPC 124A 1870 में जोड़ी गई। इसका मकसद अग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाने वाले, आजादी की मांग करने वाले लोगों को चुप कराना था। अंग्रेजों ने इस कानून का दुरुपयोग करते हुए बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, भगत सिंह, सरदार पटेल, पंडित नेहरू समेत हजारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को कई सालों तक जेल में रखा।

इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 124A को ही बोलचाल की भाषा में राजद्रोह के खिलाफ कानून कहते है। इस कानून के मुताबिक, ‘जब कोई व्यक्ति बोलकर या लिखकर, इशारों, तस्वीरों, वीडियो, कार्टून या किसी और तरीके से लोगों के बीच नफरत फैलाता है, सरकार की अवमानना करने या उसके खिलाफ उकसाने की कोशिश करता है, भारत में कानूनी तरीके से स्थापित सरकार के प्रति असंतोष भड़काने का प्रयास करता है, तो वह राजद्रोह का अभियुक्त माना जाता है। राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। इसमें 3 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा और जुर्माना हो सकता है।’

बाल गंगाधर तिलक पहले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन पर 1897 में अपने अखबार ‘केसरी’ में लिखे एक लेख के लिए देशद्रोह का केस दर्ज किया गया था। उन्हें एक साल जेल की सजा सुनाई गई थी। 1908 में बंगाल के क्रांतिकारियों के समर्थन में लिखने के लिए उन्हें 6 साल कैद की सजा सुनाई गई और बर्मा (म्यांमार) की मांडले जेल भेज दिया गया। 1916 में उन्हें फिर से देशद्रोह के आरोप का सामना करना पड़ा। इसी तरह, मुंबई में सरकार विरोधी प्रदर्शन में भाग लेने के लिए महात्मा गांधी पर 1922 में देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया और 6 साल जेल की सजा सुनाई गई। इलाहाबाद में किसानों को संबोधित करने के लिए 1930 में पंडित नेहरू पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ और उन्होंने 2 साल जेल में बिताए। बंगाल में भाषण देने के लिए 1934 में उन पर फिर से राजद्रोह का केस दर्ज हुआ और 2 साल की कैद हुई।

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि 1951 में पंजाब हाई कोर्ट और 1959 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने IPC की धारा 124A (देशद्रोह) को असंवैधानिक करार दिया था, लेकिन 1962 में बिहार सरकार बनाम केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने धारा को संवैधानिक रूप से सही ठहराया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह के कानून का बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए कई शर्तें जोड़ीं। लेकिन बाद के वर्षों में, मुख्य रूप से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन के दौरान, सुप्रीम कोर्ट की भावना का ख्याल नहीं रखा गया और इस कानून का जमकर बेजा इस्तेमाल हुआ।

सुप्रीम कोर्ट के बुधवार के आदेश पर पूर्व एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि मोदी सरकार ने वह बड़ा और ऐतिहासिक कदम उठाया है, जिसे 75 साल पहले उठना चाहिए था। मुकुल रोहतगी ने पूछा, ‘आजाद भारत में अंग्रेजों की गुलामी वाले कानून की क्या जरूरत है?’ यहां तक कि ब्रिटेन ने यह कानून 2009 में ही खत्म कर दिया था। अमेरिका में राजद्रोह का कानून है, लेकिन वहां इसका इस्तेमाल शायद ही कभी होता है। ऑस्ट्रेलिया ने भी 2010 में कानून से राजद्रोह शब्द हटा दिया है। न्यूजीलैंड और सिंगापुर जैसे छोटे देशों ने इसे खत्म कर दिया है। लेकिन यह कानून अब तक हमारे देश में लागू है, और सिर्फ लागू ही नहीं है, बल्कि इसका दुरुपयोग भी खूब खुलकर हो रहा है।

मैं आपके सामने कुछ आंकड़े रखता हूं। आंकड़ों के मुताबिक, फिलहाल 124 A के तहत 800 से ज्यादा मामलों में देशभर में 13,306 लोग जेलों में बंद हैं। 2010 से 2021 के बीच सिर्फ 13 आरोपियों के खिलाफ आरोप साबित हुए। इस कानून के तहत कन्विक्शन रेट 0.1 फीसदी से भी कम है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक, 2014 से 2019 के बीच देश भर में 548 लोगों को राजद्रोह के तहत गिरफ्तार किया गया, लेकिन इनमें से सिर्फ 6 आरोपी ही दोषी साबित किए जा सके।

सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश के तुरंत बाद कांग्रेस ने इसका श्रेय लेने की कोशिश की। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘सच बोलना देशभक्ति है, देशद्रोह नहीं। सच कहना देश प्रेम है, देशद्रोह नहीं। सच सुनना राजधर्म है, सच कुचलना राजहठ है। डरो मत!।’

कांग्रेस को कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने तीखा जबाव दिय। रिजिजू ने ट्वीट किया, ‘राहुल गांधी के शब्द खोखले हैं। यदि कोई पार्टी आजादी, लोकतंत्र और संस्थाओं के सम्मान की विरोधी है तो वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है। यह पार्टी हमेशा भारत को तोड़ने वाली ताकतों के साथ खड़ी रही है और देश को बांटने का कोई मौका नहीं छोड़ती। और पहला संशोधन कौन लाया था? यह पंडित जवाहरलाल नेहरू थे! लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जनसंघ अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने वाले इस कदम के विरुद्ध खड़े रहे। नेहरूजी ने लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित केरल की सरकार को भी बर्खास्त कर दिया था। और बोलने की आजादी को कुचलने की बात करें तो श्रीमती इंदिरा गांधी इस मामले में स्वर्ण पदक विजेता रहीं। हम सभी आपातकाल के बारे में जानते हैं, लेकिन क्या आपको यह भी पता है कि उन्होंने अनुच्छेद 356 को 50 से ज्यादा बार लागू किया। वह हमारे तीसरे स्तंभ न्यायपालिका को कमजोर करने के लिए एक ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ के विचार के साथ आईं थीं।’

इसमें कोई शक नहीं कि इस कानून में बदलाव की जरूरत है। इस कानून का किस कदर बेजा इस्तेमाल होता है इसके 2 उदाहरण आपको बताता हूं। छत्तीसगढ़ के कांग्रेस विधायक शैलेश पांडे ने विलासपुर के कलेक्टर के खिलाफ देशद्रोह के कानून में केस दर्ज करने की मांग की। वजह ये थी कि कलेक्टर साहब ने जिले में आयोजित छत्तीसगढ़ दिवस समारोह का न्योता विधायक को नहीं दिया था। दूसरा दिलचस्प मामला दिल्ली का है। एक शख्स की ट्रेन छूट रही थी, और उसने ट्रेन को लेट कराने के लिए बम की झूठी कॉल कर दी। ट्रेन लेट हो गई। पुलिस ने उस शख्स को पकड़ लिया और उसके खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज कर दिया। ऐसे सैकड़ों मामले हैं। इसलिए इस कानून को बदलने की जरूरत तो है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जो ऑर्डर दिया है, उसके बारे में कुछ बातें समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 124A के तहत मुकदमा दर्ज करने पर रोक नहीं लगाई है। कोर्ट ने सिर्फ इतना कहा है कि उसे उम्मीद है कि जब तक केंद्र सरकार देशद्रोह कानून की समीक्षा न कर ले तब तक कोई सरकार धारा 124A का इस्तेमाल नहीं करेगी। केन्द्र सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने सुझाव दिया था कि अगर कोई नई FIR दर्ज होती है, जहां दूसरे गंभीर आरोपों के साथ देशद्रोह का केस भी बनता है तो उसे इजाजत दी जाए। यह सुझाव कोर्ट ने मान लिया।

दूसरी बात यह कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में औपनिवेशिक कानून के खिलाफ सरकार के हलफनामे का कई जगह जिक्र किया। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राय दिखाई दी। मोदी ने कहा था कि देशद्रोह का कानून ‘कॉलोनियल बैगेज’ है, अंग्रेजों के जमाने का बोझ है, जिसे खत्म किया जाना चाहिए। सरकार की तरफ से एटॉर्नी जनरल ने नवनीत राणा के केस का उदाहरण दिया था, जहां मुख्यमंत्री आवास के बाहर हनुमान चालीसा के पाठ का ऐलान करने लिए राजद्रोह का केस दर्ज किया गया था। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का भी जिक्र किया। और एक बार तो कोर्ट ने कपिल सिब्बल से यह भी कहा कि वह हवा में बहस न करें।

देशद्रोह के कानून को एक दिन में खत्म नहीं किया जा सकता। इतिहास गवाह है कि जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में देशद्रोह के कानून के खिलाफ एक भाषण दिया था। इंदिरा गांधी ने इस कानून को और सख्त बनाया था। लेकिन मोदी ने इस कानून पर पुनर्विचार और समीक्षा करने की बात की। इसे आप मोदी का मास्टरस्ट्रोक कह सकते हैं। मोदी सरकार ने इस कानून के दुरुपयोग पर जो सवाल उठाए, उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने माना। यह अब मोदी सरकार की जिम्मेदारी है कि राजद्रोह के इस कानून की जब समीक्षा हो, जब इस पर फिर से विचार हो, तो यह सुनिश्चित किया जाए कि अग्रेजों का बनाया ये काला कानून खत्म हो। इसके साथ ही नया कानून ऐसा हो कि कोई भी सरकार अपने विरोधियों के खिलाफ राजद्रोह के कानून का बेजा इस्तेमाल न कर सके।

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