Rajat Sharma

बहादुर बेटियों की जीत से एक-न-एक दिन ज़रूर वर्ल्ड चैंपियन हॉकी टीम बनेगी

AKBसोमवार का दिन हर भारतवासी के लिए बेटियों पर गौरव करने वाला दिन था। हम उन बेटियों को सलाम करते हैं जिन्होंने टोक्यो ओलंपिक में हॉकी के मैदान पर इतिहास रच दिया। क्वॉर्टर फाइनल मुकाबले में दुनिया की दूसरे नंबर की टीम ऑस्ट्रेलिया को हराकर देश की बेटियां ओलंपिक हॉकी के सेमीफाइनल में पहुंची हैं। टोक्यो ओलंपिक में मेडल की उम्मीद जगाकर इन बेटियों ने हर भारतीय का दिल जीत लिया। महिला हॉकी टीम ने जो कारनामा किया उसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। ऑस्ट्रेलिया जैसी ताकतवर टीम से मुकाबला था। कोई नहीं सोच रहा था कि इंडिया की महिला हॉकी टीम ऑस्ट्रेलिया को हरा देगी। लेकिन हमारी बेटियों ने वह कर दिखाया जो अब से पहले कभी नहीं हुआ था। ओलंपिक में भारत की महिला हॉकी टीम पिछले 40 सालों में पहली बार सेमीफाइनल में पहुंची।

महिला हॉकी टीम की इस उपलब्धि को बताते-बताते कमेंटेटर रोने लगे। पूरे देश ने जश्न मनाया। यह कमाल का क्षण था। सबसे बड़ी बात ये है कि हमारी टीम की लड़कियां जिन हालात और परिस्थितियों से मुकाबला कर, इस मुकाम तक पहुंची हैं, वह देख कर अपनी टीम पर और भी गर्व होता है। ज्यादातर लड़कियां ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। आप जब उनकी ज़िंदगी के बारे में जानेंगे तो हैरान हो जाएंगे।

सोमवार की रात अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में मैंने देश की महिला हॉकी टीम की खिलाड़ियों के पारिवारिक जीवन के बारे में बताने की कोशिश की। ये खिलाड़ी झारखंड, ओडिशा, हरियाणा, पंजाब और मणिपुर के गांवों से निकलकर अपनी स्पीड और स्किल का प्रदर्शन करने के लिए टोक्यो तक पहुंची हैं। उनका वहां तक पहुंचना किसी चमत्कार से कम नहीं है। जब इन लड़कियों ने खेलना शुरू किया था तो किसी के पास जूते नहीं थे, तो किसी के पास हॉकी स्टिक खरीदने तक के पैसे नहीं थे। उनमें से एक ने तो बांस की हॉकी बनाकर खेल की प्रैक्टिस की और ओलंपिक तक पहुंच गई।

कुछ लड़कियों की मां और बहनें बड़े शहरों में दूसरों के घरों में काम करती थीं, और उन्हें ट्रेनिंग के लिए पैसे भेजती थीं। एक लड़की के पिता ने अपनी बेटी की हॉकी स्टिक खरीदने के लिए ऑटोरिक्शा चलाया। सोमवार को पिता की आंखों में खुशी के आंसू थे। उन्हें ये भी नहीं पता था कि सेमीफाइनल में उनकी बेटी का सामना किस टीम से होगा। उन्होंने कहा कि वह केवल इतना ही जानते हैं कि मेरी बेटी ने देश का नाम रोशन कर दिया।

इन बेटियों की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जिन्हें आप सुनेंगे तो इन्हें खड़े होकर सलाम करेंगे। इन बहादुर बेटियों के पारिवारिक जीवन की ऐसी ही कुछ कहानियां मैं आपको बताने जा रहा हूं।

सबसे पहले मैं आपको ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ हुए मैच में इकलौता गोल करने वाली गुरजीत कौर की कहानी सुनाता हूं। गुरजीत कौर ने सोमवार को मैच के दूसरे क्वॉर्टर के 8वें मिनट में ड्रैग फ्लिक से गोल मारकर ऑस्ट्रेलिया को बैकफुट पर ला दिया था। वह टीम में आमतौर पर टीम में डिफेंडर की पोजिशन पर खेलती हैं। उनका काम विरोधी टीम के खिलाड़ी को गोल पोस्ट तक पहुंचने से रोकना, उन्हें टैकल करना और फिर बॉल को दोबारा अपनी टीम के खिलाड़ियों को पास देना है, यानी उनका मेन फोकस कनेक्टिविटी पर होता है। लेकिन आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि हॉकी स्टिक से इतने बड़े मैच में गोल दागने वाली, इतिहास रचने वाली गुरजीत के गावं में आज भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कनेक्टिविटी नहीं है। 25 साल की गुरजीत पंजाब में अमृतसर के अजनाला इलाके के मियादी कला गांव की रहनेवाली हैं। उनके परिवार में किसी ने हॉकी स्टिक नहीं पकड़ी थी और किसानी करने वाला उनका परिवार सिर्फ खेतों तक का रास्ता जानता था।

गुरजीत की जिद थी कि उन्हें हॉकी में नाम रोशन करना है, इसलिए पिता को झुकना पड़ा। उन्होंने तरनतारन के बोर्डिंग स्कूल में गुरजीत का ऐडमिशन करवाया, लेकिन बेटी को हॉकी की प्रैक्टिस करवाना इतना आसान नहीं था। घरवालों ने बेटी की हॉकी किट खरीदने के लिए, उसकी कोचिंग के लिए अपनी मोटरसाइकिल तक बेच दी। इसके बाद गुरजीत ने भी हॉकी की फील्ड पर अपनी पहचान बनाना शुरू कर दिया। उन्हें देश के लिए खेलने का पहला मौका 2014 में सीनियर नेशनल कैंप में मिला था, हालांकि वह टीम में अपनी जगह पक्की नहीं कर पाई थी। लेकिन 3 साल बाद, 2017 में, वह इंडियन टीम का हिस्सा बन गईं।

सलीमा टेटे भारतीय महिला हॉकी टीम में डिफेंडर के रूप में खेलती हैं। उनका परिवार झारखंड के सिमडेगा जिले के बड़कीछापर गांव में एक झोपड़ी में रहता है। सलीमा ने बचपन से बांस को हॉकी बनाकर खेल की प्रैक्टिस की। खुद हॉकी खिलाड़ी रह चुके और अब खेती-किसानी कर रहे उनके पिता सुलक्षण टेटे के पास इतने पैसे नहीं थे कि उन्हें हॉकी स्टिक खरीदकर दे सकें। सलीमा के परिवार में 5 बहनें और एक भाई हैं। घर की हालत ऐसी नहीं थी कि बेटी को स्पोर्ट्स में भेज सकें, लेकिन सलीमा टेटे के परिवार ने बचपन में ही उनका टैलेंट पहचान लिया। उनकी प्रैक्टिस के लिए पैसे की कमी न हो, इसलिए बड़ी बहन और भाई मजदूरी करने बाहर चले गए।

सलीमा का यह पहला ओलंपिक था लेकिन भारतीय टीम के साथ उनका शानदार प्रदर्शन कई साल से जारी है। 2016 में वह पहली बार भारतीय जूनियर टीम में चुनी गई। उसी साल सलीमा को अंडर-18 एशिया कप के लिए उपकप्तान बनाया गया। 2018 में अर्जेंटीना में हुए यूथ ओलंपिक में सलीमा कप्तान थीं और उनकी लीडरशिप में टीम ने सिल्वर मेडल जीता था। उनके मेडल जीतकर वापस आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे मुलाकात की थी और उन्हें उज्ज्वल भविष्य के लिए आशीर्वाद दिया था।

कहते हैं कि सलीमा जब हॉकी की वर्ल्ड चैंपियनशिप खेलने गईं तो उनके पास ट्रॉली बैग नहीं था. कुछ परिचितों ने किसी से पुराना बैग लेकर दिया। उनके पास पॉकेट मनी भी नहीं थी तो फेसबुक पर मुहिम चलाकर पॉकेट मनी का इंतजाम किया गया, और उस बार भी वह जीत कर लौटी थीं। सलीमा चूंकि नेशनल लेवल पर कई टूर्नामेंट खेल चुकी हैं, इसलिए उन्हें सरकारी नौकरी मिल गई है। उनकी छोटी बहन महिमा ने भी हॉकी में हाथ आजमाया, लेकिन आगे नहीं जा पाईं। महिमा का कहना है कि उनकी ख्वाहिश है कि सलीमा टोक्यो से गोल्ड मेडल लेकर घर आएं।

टीम में झारखंड की एक और बेटी हैं खूंटी जिले की निक्की प्रधान। उनके पिता एक पुलिस कांस्टेबल थे, जो अब रिटायर हो चुके हैं। उन्होंने बेटी के सपने को पूरा करने में खूब मेहनत की। बेटी को हॉकी खेलने का शौक था तो हॉकी दिलवा दी, लेकिन वक्त नहीं दे पाए। पुलिस की नौकरी में परिवार के लिए वक्त नहीं बचता था, इसलिए मां ही बेटी के साथ जाती थीं। कोच का सपोर्ट मिल गया तो थोड़ी आसानी हो गई। उनकी मां ने बताया कि एक बार वह बेटी के साथ रांची गई थीं। बेटी स्टेट लेवल पर रांची के स्टेडियम में मैच खेल रही थी, लेकिन पुलिसवालों ने उन्हें स्टेडियम में नहीं घुसने दिया। निक्की की मां ने बार-बार बताया कि उनकी बेटी मैच खेल रही है, लेकिन किसी ने उनकी बात पर यकीन नहीं किया। इसलिए सोमवार को जब उन्होंने अपनी बेटी की टीम को ऑस्ट्रेलिया से ओलंपिक मैच जीतते हुए देखा, तो उनकी आंखों में आंसू आ गए।

हमारी जो महिला हॉकी टीम ओलंपिक के सेमीफाइनल में पहुंची है, उसमें 9 खिलाड़ी हरियाणा से हैं। उनमें से सबसे खास हैं टीम की ‘दीवार’, सविता पूनिया, जो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ महिला गोलकीपरों में से एक है। झारखंड की लड़कियों की तुलना में हरियाणा के खिलाड़ी आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं। इसके अलावा हरियाणा सरकार ने खिलाड़ियों को हॉकी, मुक्केबाजी, कुश्ती और कई अन्य खेलों में महारत हासिल करने के लिए बेहतर बुनियादी ढांचा प्रदान किया है। 30 साल की सविता सिरसा की रहने वाली हैं। जब वह मुश्किल से 17 साल की थीं, तभी उन्होंने राष्ट्रीय टीम के लिए क्वॉलिफाई कर लिया था। उनके पिता ने 20,000 रुपये में उनके लिए एक हॉकी किट खरीदी थी।

सविता एक अनुभवी खिलाड़ी हैं। वह अब तक 100 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मैच खेल चुकी हैं। उन्होंने 2009 में जूनियर एशिया कप और 2013 में महिला एशिया कप में हिस्सा लिया था। 2014 में वह इंचियोन एशियाई खेलों में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली टीम का हिस्सा थीं। 2016 में उन्होंने जापान की तरफ से एक के बाद एक कई पेनल्टी कॉर्नर्स को नाकाम कर दिया था जिससे भारत की 1-0 की बढ़त बरकरार रही और टीम ने रियो ओलंपिक के लिए क्वॉलिफाई कर लिया 2018 में उन्होंने एशिया कप और वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया।

सोमवार को सविता पूनिया ने दीवार की तरह खड़ी रहकर भारत को ऑस्ट्रेलिया के 7 पेनल्टी कॉर्नर्स से बचाया। उन्होंने 2 फील्ड गोल भी रोके। मैच के दूसरे 2 क्वॉर्टर्स में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का दबदबा था, लेकिन हमारी टीम का डिफेंस काफी मजबूत था और उनकी सारी कोशिशें नाकाम रहीं। जैसे ही टीम ने सेमीफाइनल में जगह बनाई, सिरसा के जोधका गांव में उनके घर पर जश्न का माहौल हो गया।

महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के शाहबाद मारकंडा की रहने वाली हैं। 27 साल की रानी के पिता रिक्शा चलाते थे, भाई कारपेंटर का काम करता था। पिता को 80 रुपए दिहाड़ी मिलती थी, मां दूसरों के घरों में मेड का काम करती थी। रानी ने 6 साल की उम्र से हॉकी खेलना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू में उनका परिवार उन्हें हॉकी खेलने की इजाजत देने में झिझक रहा था, क्योंकि उनके माता-पिता के पास उनकी डाइट और ट्रेनिंग का इंतजाम करने के लिए पैसे नहीं थे। यहां तक कि उनकी बिरादरी ने भी उनके शॉर्ट्स में हॉकी खेलने पर आपत्ति जताई थी। रानी ने टूटी हुई हॉकी स्टिक से प्रैक्टिस की और फिर सीनियर खिलाड़ियों से पुरानी हॉकी स्टिक उधार लेकर खेलना शुरू किया।

आज के जमाने में जब ओलंपिक खिलाड़ियों की डाइट का पूरा हिसाब-किताब रहता है, कार्बोहाइड्रेट, फैट और कैलोरीज का पूरा चार्ट मेंटेन करना पड़ता है, डाइट प्लान को फॉलो करना पड़ता है, रानी अपनी भूख को शांत रखने के लिए जेब में चने रखकर प्रैक्टिस करती थीं। जब वह ट्रेनिंग के लिए एकेडमी जाती थीं तो उस वक्त हर खिलाडी से कहा जाता था कि आधा लीटर दूध पीना जरूरी है, लेकिन परिवार की हालत ऐसी नहीं थी कि रोज आधा लीटर दूध बेटी को दे सके। इसलिए रानी रामपाल 200 मिलीलीटर दूध में पानी डालकर उसे आधा लीटर बनाती थीं और फिर उसे पीकर हॉकी के मैदान में ट्रेनिंग करती थीं। 2020 में उन्हें पद्म श्री और भारत के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित किया गया।

हॉकी फॉरवर्ड वंदना कटारिया 29 साल की हैं और उत्तराखंड के हरिद्वार के पास स्थित रोशनाबाद की रहने वाली हैं। हालांकि अब उनके परिवार की हालत पहले से अच्छी है, लेकिन बचपन में उन्होंने पेड़ की टहनी से हॉकी खेलना सीखा। वंदना की काबिलियत का अंदाजा आपको उनके क्वॉलिफाइंग राउंड के प्रदर्शन के बारे में जानकर लगेगा। उन्होंने साउथ अफ्रीका के खिलाफ मैच में 3 गोल दागे और ओलंपिक में हैट्रिक लगाने वाली पहली महिला खिलाड़ी बन गईं। वंदना का हॉकी खेलने का सफर आसान नही था। उनकी मां और भाई-बहनों ने उके हॉकी खेलने का विरोध किया, लेकिन पिता नाहर सिंह उनके साथ खड़े रहे।

वंदना ने भी मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी, लेकिन मलाल इस बात का है कि बेटी की इस सफलता को देखने के लिए पिता नाहर सिंह इस दुनिया में नहीं है। 3 महीने पहले ही अचानक उनका निधन हो गया। चूंकि वंदना ओलंपिक की ट्रेनिंग के लिए बेंगलुरू में हॉकी कैंप में थीं, इसलिए वह पिता की मौत पर घर भी नहीं पहुंच सकीं। उनके परिवार ने सोमवार को कहा कि वंदना खेल के मैदान पर पिता की आखिरी ख्वाहिश पूरा करने के लिए खेल रही हैं। वंदना 200 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मैच खेल चुकी हैं। वह 2014 में हुए एशियाई खेलों में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली भारतीय टीम का हिस्सा थीं। 2013 में हुए वर्ड कप जूनियर हॉकी टूर्नामेंट में उन्होंने भारत की तरफ से सबसे ज्यादा गोल दागे थे।

सोमवार की जीत ने हिट हिंदी फिल्म ‘चक दे! इंडिया’ की यादें ताजा कर दीं। 2007 में बनी इस फिल्म में सुपरस्टार शाहरुख खान ने एक शानदार भूमिका अदा की थी। लेकिन वह एक कहानी थी, उसमें जो हुआ वह ऐक्टिंग थी, लेकिन सोमवार को जो हमने देखा वह असलियत थी, उसकी स्क्रिप्ट किसी ने नहीं लिखी थी। लेकिन वह मुकाबला, उस टीम में खेलने वाली लड़कियों की कहानी, उनकी जिंदगी की सच्चाई और फिल्म के कैरेक्टर्स की कहानी काफी-मिलती जुलती है।

फिल्म में कोच कबीर खान की टीम वर्ल्ड चैंपियनशिप खेलने के लिए ऑस्ट्रेलिया जाती है, शुरुआती मैचों में बुरी तरह हारती है, लेकिन इसके बाद ऐसा कमबैक करती है कि फाइनल अपने नाम कर लेती है। टोक्यो ओलंपिक में हमारी टीम नीदरलैंड, जर्मनी और ब्रिटेन से शुरुआती 3 मैच हार गई, और जब उम्मीदें टूट रही थीं, तब डच कोच सोजर्ड मारिन ने खिलाड़ियों को प्रेरित करने के लिए एक फिल्म दिखाई, उन्हें मोटिवेट करने के लिए एक लंबी स्पीच दी, और फिर खिलाड़ियों ने जोरदार वापसी की। उन्होंने क्वॉर्टर फाइनल में पहुंचने के लिए, जहां उनका मुकाबला ऑस्ट्रेलिया से हुआ, आयरलैंड और साउथ अफ्रीका को धूल चटाई। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है।

इसमें कोई शक नहीं कि 3 बार वर्ल्ड चैंपियनशिप जीतने वाली ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ हमारी महिला हॉकी टीम सोमवार को चैंपियन की तरह खेली। जब गुरजीत ने 22वें मिनट में एकमात्र गोल दागा तो ऑस्ट्रेलियाई टीम के पास अभी 38 मिनट का समय बचा था, लेकिन हमारी बहादुर लड़कियां सविता पूनिया के नेतृत्व में चट्टान की तरह खड़ी रहीं। हमारी लड़कियों ने भी अटैकिंग हॉकी खेली और विरोधियों को बराबरी करने का मौका ही नहीं दिया।

सोमवार की जीत कोई तुक्का नहीं थी, हमारी लड़कियां इस जीत की हकदार थीं। मैच खत्म होने के बाद ऑस्ट्रेलियाई लड़कियां सदमे में थीं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हो गया। हॉकी के मैदान पर हमारी टीम की जीत का जश्न और ऑस्ट्रेलियाई टीम की आंखों में आंसू, ये वे तस्वीरें हैं जिन्हें हम कभी भुला नहीं पाएंगे।

बुधवार को जब हमारी टीम सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से भिड़ेगी तो एक अरब से भी ज्यादा भारतीयों की दुआएं और शुभकामनाएं उसके साथ होंगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारी टीम ओलंपिक मेडल जीतकर आती है या नहीं, वह पहले से ही भारतीयों के दिलों पर राज कर रही है। सोमवार की जीत ने एक ऐसी भारतीय टीम की नींव रख दी है, जो आने वाले समय में वर्ल्ड चैंपियन होगी, जो गोल्ड जीतेगी और जिसे कोई हरा नहीं पाएगा।

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