जम्मू और कश्मीर पिछले 75 वर्षों से हम सबके लिए एक अधूरा एजेंडा बना हुआ है। इस पूर्व रियासत के एक बड़े हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा है। पाकिस्तान ने गिलगित-बाल्टिस्तान को अपना पांचवां सूबा घोषित कर दिया है, जबकि ये जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था।
गुरुवार 27 अक्टूबर को, भारतीय सेना ने श्रीनगर के पुराने बडगाम एयरफील्ड में ‘शौर्य दिवस’ मनाया। 75 साल पहले 1947 में इसी दिन पहली सिख रेजिमेंट बडगाम पहुंची थी, और कश्मीर घाटी में घुसे पाकिस्तानी कबायली घुसपैठियों को खदेड़ा था। यह स्वतंत्र भारत का पहला आर्मी ऑपरेशन था। इस एक कदम ने सन् 1947-48 के प्रथम भारत-पाकिस्तान युद्ध की दिशा बदल दी।
शौर्य दिवस के अवसर पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि यह अधूरा एजेंडा जरूर पूरा होगा। उन्होंने कहा, भारतीय संसद ने नब्बे के दशक में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का संकल्प पारित किया था, और यह संकल्प निश्चित रूप से पूरा होगा।
उन्होंने कहा, पाकिस्तान ने भारत की पीठ में छुरा घोंपा और वह PoK में रह रहे कश्मीरियों पर अत्याचार कर रहा है। उन्होंने चेतावनी दी कि पाकिस्तान को अपने कर्मों के फल भुगतने होंगे, और पीओके के कुछ हिस्सों को वापस हासिल किया जाएगा। रक्षा मंत्री ने कहा, ‘हमने अभी जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विकास की ओर अपनी यात्रा शुरू की है, और जब हम गिलगित और बाल्टिस्तान पहुंचेंगे तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। हम पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में कश्मीरियों के दर्द को महसूस करते हैं।’
राजनाथ सिंह ने कहा कि धारा 370 को निरस्त करने के केंद्र के फैसले ने जम्मू-कश्मीर के लोगों के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कहा, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह भेदभाव 5 अगस्त, 2019 को समाप्त हुआ, जब धारा 370 को खत्म कर दिया गया।’
27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना के जवान डकोटा विमान में सवार होकर बडगाम में उतरे थे। यह ऑपरेशन बेहद खतरनाक था क्योंकि पाकिस्तानी घुसपैठिए श्रीनगर के बाहर तक पहुंच चुके थे और जरा भी देर होती तो भारतीय जवानों को लेकर जा रहा ये विमान उतर न पाता। उस ऑपरेशन में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के पिता बीजू पटनायक ने भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। वह एक कुशल पायलट थे और उन्होंने डकोटा के जरिए सैनिकों को सुरक्षित कश्मीर में उतारा था। गुरुवार को दोबारा एक डकोटा विमान को बडगाम में ठीक उसी जगह उतारा गया, जहां 27 अक्टूबर 1947 को पहला विमान उतरा था।
भारत और पाकिस्तान के बीच पहली जंग एक साल से भी ज्यादा समय तक चली । 1 जनवरी 1949 को जाकर दोनों देश युद्धविराम पर सहमत हुए। तब तक जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में जा चुका था। इसे आज हम POK के नाम से जानते हैं। कश्मीर के उस टुकड़े पर आज पाकिस्तान की सेना का राज है। वहां वह आतंकवादियों के लिए ट्रेनिंग कैंप चलाती है। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने POK में आतंकवादियों के लॉन्चिंग पैड बना रखे हैं। पाकिस्तानी फौज के जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले POK के नागरिकों को टॉर्चर किया जाता है। इसी संदर्भ में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि पाकिस्तान POK की जनता पर जो जुल्म ढा रहा है, उसका अंजाम पाकिस्तान की फौज और हुकूमत को भुगतना पड़ेगा।
27 अक्टूबर हमारी सेना के लिए उत्सव का दिन है, और साथ ही यह एक ऐसा दिन है जिसे हर भारतीय को याद रखना चाहिए। इसी दिन, जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय पत्र को भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने स्वीकार किया था। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का अभिन्न अंग बन गया था।
आजादी के समय देश में राजाओं और नवाबों द्वारा शासित 565 रियासतें थीं। इनमें चार सबसे बड़ी रियासतें थीं – हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा और जम्मू कश्मीर । मैसूर और बड़ौदा के शासकों ने तुरंत भारत में विलय का फैसला कर लिया, लेकिन हैदराबाद के निज़ाम और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह अपनी रियासत को भारत या पाकिस्तान में मिलाने के फैसले को टालते रहे।
हमें इतिहास की किताबों में अभी तक यही बताया गया कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय का फैसला तब किया जब पाकिस्तान ने घाटी पर हमला कर दिया और कबाइली लुटेरे श्रीगनर के बेहद करीब पहुंच गए। इसके बाद 26 अक्टूबर 1947 को महाराजा ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए।
लेकिन गुरुवार को देश के कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कश्मीर के विलय के इतिहास का बहुत बड़ा राज खोला। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में देरी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी।
रिजिजू ने 24 जुलाई 1952 को लोकसभा में नेहरू के भाषण का हवाला दिया। नेहरू ने उस दिन कहा था: “कश्मीर का एकीकरण सबसे पहले अनौपचारिक रूप से हमारे सामने आया – यह एक तरह से हमेशा हमारे सामने था, लेकिन यह जुलाई या जुलाई के बीच में अनौपचारिक रूप से हमारे सामने आया – हमने कश्मीर रियासत को जो सलाह दी थी – और, यदि मैं ऐसा कह सकता हूं, तो हम वहां के लोकप्रिय संगठन नेशनल कॉन्फ्रेंस और उसके नेताओं के साथ संपर्क में थे, और महाराजा की सरकार के साथ भी संपर्क में थे – हमने दोनों को सलाह दी कि कश्मीर एक विशेष मामला है और वहां जल्दबाज़ी में कुछ करना सही या उचित नहीं होगा।”
नेहरू ने 24 जुलाई 1952 को लोकसभा में कहा था, “… हमने यह साफ कर दिया था कि अगर महाराजा और उनकी सरकार भारत में शामिल होना चाहते हैं, तो हम कुछ और चाहते हैं, और वह है उस कदम को उठाने से पहले कश्मीर की जनता की स्वीकृति ।”
रिजीजू ने कहा, नेहरू की पहली गलती थी: महाराजा हरि सिंह जुलाई 1947 में विलय के लिए तैयार थे, लेकिन नेहरू ने मना कर दिया। रिजिजू ने कहा, एकीकरण को औपचारिक रूप देने के बजाय, नेहरू ने कश्मीर को एक ‘विशेष मामला’ माना और ‘कुछ और ज्यादा’ की मांग की। नेहरू ने जानबूझकर कश्मीर को एक ऐसा मामला बना दिया जहां शासक विलय के लिए तैयार था, लेकिन भारत सरकार विलय को अंतिम रूप देने में हिचकिचा रही थी।
रिजिजू ने कहा, भले ही महाराजा हरि सिंह विलय चाहते थे, लेकिन नेहरू कश्मीर की जनता की स्वीकृति चाहते थे और साथ ही साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख शेख अब्दुल्ला को अन्तरिम प्रधानमंत्री बनवाना चाहते थे।
रिजिजू ने कहा कि नेहरू को यह गुमान था कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर की जनता की आवाज का प्रतिनिधित्व करते थे, और वह चाहते थे कि महाराजा एकीकरण से पहले एक अंतरिम सरकार बनाएं और उस अंतरिम सरकार के मुखिया शेख अब्दुल्ला हों।
रिजिजू ने 21 अक्टूबर, 1947 को नेहरू द्वारा जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री एम.सी. महाजन को लिखे एक पत्र का हवाला दिया। पत्र में, नेहरू ने लिखा: ‘यही कारण है कि मैंने आपको अस्थायी सरकार के गठन की तरह कुछ कदम तत्काल रूप से उठाने का सुझाव दिया था। शेख अब्दुल्ला, जो स्पष्ट रूप से कश्मीर में सबसे लोकप्रिय व्यक्ति हैं, को ऐसी सरकार बनाने के लिए कहा जा सकता है…। सभी परिस्थितियों को देखते हुए मुझे लगता है कि इस स्तर पर भारतीय संघ के लिए कोई भी घोषणा करना सही नहीं होगा। यह तभी हो सकता है जब एक लोकप्रिय अंतरिम सरकार काम कर रही हो। मुझे आपको मौजूदा स्थिति के महत्व और उसमें निहित खतरों के बारे में बताने की आवश्यकता नहीं है।’
तब तक पाकिस्तान की सेना और कबायली हमलावर उससे पहले ही 20 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर में घुस चुके थे। उन्होंने काफी तेजी से कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया।
रिजिजू ने कहा कि तेजी से विलय को औपचारिक रूप देने और कश्मीर में सेना भेजने की बजाय नेहरू ने विलय के लिए पूर्व-शर्तों को पर जोर देना जारी रखा। नेहरू ने जुलाई 1947 में अपनी गलती से सीखने के बजाय उसी साल अक्टूबर में वही गलती दोहराई। यह देरी भारत के लिए महंगी साबित हुई और पाकिस्तानी सैनिकों को अपनी स्थिति मजबूत करने और आगे बढ़ने का समय मिल गया। अगर भारतीय सेना कश्मीर घाटी में जल्दी पहुंचती, तो पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के बड़े हिस्से पर कब्जा न कर पाता। रिजिजू ने कहा, 26-27 अक्टूबर को भी, जब विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए जा रहे थे, तब भी नेहरू विलय को स्वीकार करने को लेकर आश्वस्त नहीं थे।
किरेन रिजिजू के मुताबिक, नेहरू की ‘दूसरी बड़ी गलती’ यह थी कि वह विलय के बाद भी इसे अस्थायी (प्रॉविजनल) मानते थे। उन्होंने रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी के प्रस्ताव का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि भारत सरकार ‘इस विलय को अस्थायी रूप से स्वीकार करेगी’ और ‘लोगों की इच्छा के मुताबिक विलय को अंतिम रूप दिया जाएगा।’
रिजिजू ने 26 अक्टूबर, 1947 को नेहरू द्वारा एमसी महाजन को भेजे गए एक नोट का भी हवाला दिया। इससे बिलकुल स्पष्ट हो गया कि नेहरू को कश्मीर के विलय की चिंता कम, और अपने दोस्त शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाने को लेकर चिंता ज्यादा थी। नेहरू के नोट में लिखा है: ‘.. महामहिम महाराजा शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को मैसूर की तरह ही एक अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे।’
नेहरू की ‘तीसरी बड़ी गलती’ यह थी कि महाराजा हरि सिंह ने, अन्य रियासतों के शासकों की तरह, उसी तरह के विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, मतलब रक्षा, विदेश और संचार जैसे मामलों को भारतीय संघ को सौंपा था, लेकिन इसके बावजूद नेहरु ने जम्मू-कश्मीर के विलय को ‘विशेष’ और ‘अस्थायी’ माना। साथ ही नेहरु ने संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुच्छेद 35 के तहत 1 जनवरी, 1948 को सुरक्षा परिषद में कश्मीर मामले को ले जाकर इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। तब संयुक्त राष्ट्र ने UNCIP के नाम से भारत- पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र आयोग की स्थापना की । संयुक्त राष्ट्र में मामला ले जाने के नेहरू के फैसले का पाकिस्तान ने नाजायज़ इस्तेमाल किया और जम्मू-कश्मीर को विवादित इलाका बता कर वह इस पर अपना दावा जताने लगा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नेहरू ने अनुच्छेद 51 की बजाय अनुच्छेद 35 का सहारा लिया, जो कि एक गलत कदम था। अगर वह अनुच्छेद 51 का सहारा लेते तो भारतीय इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा दिखाते, लेकिन उन्होने अनुच्छेद 35 का सहारा लिया, जो कि विवादित क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। यानि भारत ने शुरु में ही मान लिया कि कश्मीर विवादित क्षेत्र है।
नेहरू की ‘चौथी बड़ी गलती’ कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की उनकी ज़िद थी। आमतौर पर लोग यही मानते हैं कि भारत कश्मीर में जनमतसंग्रह कराना नहीं चाहता, लेकिन किरण रिजिजू का कहना है कि UNCIP ने जनमत संग्रह कराने का सुझाव रखा था, उसे मानना भारत के लिए बाध्यकारी नहीं है । इस बात को UNCIP ने भी माना है। 13 अगस्त 1948 को, UNCIP ने कश्मीर के मसले पर तीन भागों वाला एक प्रस्ताव मंजूर किया, जिसे क्रम से लागू किया जाना था, (1) युद्धविराम, (2) समझौता और पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी, और (3) जनमत संग्रह।
भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम 1 जनवरी 1949 को लागू हुआ था, लेकिन भाग 2 के तहत, पाकिस्तान को अपने सैनिकों को POK से वापस लेना था लेकिन उसने मना कर दिया। लिहाज़ा पाकिस्तान के इनकार के कारण, भाग 3, जिसमें कि जनमत संग्रह का उल्लेख है, को कभी लागू नहीं किया जा सका। 23 दिसंबर 1948 को भारत ने UNCIP को अपना एक ज्ञापन भेजा जिसमें इस बात का साफतौर पर जिक्र किया गया था कि अगर पाकिस्तान भाग 1 और भाग 2 को लागू करने में नाकाम रहता है, तो भारत के लिए UNCIP प्रस्ताव को मानना बाध्यकारी नहीं होगा। UNCIP ने बाद में 5 जनवरी, 1949 को एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें भारत के इस विचार का अनुमोदन किया गया।
नेहरू की ‘पांचवीं गलती’ भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल करना था। रिजिजू के मुताबिक, शेख अब्दुल्ला से किया गया अस्थायी विलय और रियायतों का वादा ही अनुच्छेद 306A (जो बाद में अनुच्छेद 370 बना) का कारण बना।
रिजिजू ने कहा कि पंडित नेहरू की इन पांच बड़ी गलतियों के कारण ही भारत का नक्शा आज भी अधूरा है। जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है। कश्मीर के काफी बड़े इलाके पर कब्जा करने के बावजूद पाकिस्तान इस मुद्दे पर जबरन एक पक्षकार बना हुआ है, और वह अक्सर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर को लेकर भारत विरोधी प्रचार कर रहा है।
27 अक्टूबर को जब हम भारत में ‘शौर्य दिवस’ मनाते है, तो पाकिस्तान इसे काला दिवस के रूप में मनाता है, क्योंकि इसी दिन जम्मू एवं कश्मीर का भारतीय संघ में विलय हुआ था। पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आजम शहबाज़ शरीफ और विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने कल इस मौके पर भारत विरोधी बयान दिये। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की तरफ से 100 से ज्यादा देशों को कश्मीर मुद्दे पर एक चिट्ठी भी भेजी गई।
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने गुरुवार को कहा कि कश्मीर के बारे में गलत सूचना फैलाने में पाकिस्तान से बड़ी भूमिका पश्चिमी मीडिया की है। सिन्हा ने कहा, ‘कुछ लोग कहते रहते हैं कि जब तक हम पाकिस्तान से बातचीत नहीं करते, कश्मीर में कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। ये वही लोग हैं जिन्होंने कश्मीर को इस मुकाम तक पहुंचाया है। वे उग्रवाद से सीधे तौर पर जुड़े लोगों से भी ज्यादा खतरनाक हैं। इन लोगों को लगता है कि जब तक घाटी में एक निश्चित स्तर तक हिंसा नहीं होती रहेगी, दिल्ली उनकी कद्र नहीं करेगी।‘
मुश्किल यह है कि हमारे देश में भी कुछ जमात हैं जो पाकिस्तान की भाषा बोलती हैं। गरुवार को महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘मैं भारत के लोगों को बताना चाहती हूं कि जम्मू-कश्मीर अलग झंडे और अगल संविधान की शर्त पर ही भारत का हिस्सा बना था। मोदी ने आर्किटिल 370 खत्म करके वह पुल तोड़ दिया तो अब कश्मीरियों का भारत से क्या वास्ता? कश्मीर, भारत का एकलौता मुस्लिम बहुल राज्य था, बीजेपी उसे भी नहीं संभाल पाई।’
महबूबा के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए मनोज सिन्हा ने कहा, ‘महबूबा मुफ्ती जितना पाकिस्तान का राग अलापती हैं, उतनी मेहनत अगर वह कश्मीर की भलाई के लिए करतीं तो आज कश्मीर वाकई जन्नत बन चुका होता।’
महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला या कांग्रेस के नेता कश्मीर को लेकर, पाकिस्तान को लेकर जो बयानवाजी करते हैं, वह उनकी आज की सियासत को सूट करता है। लेकिन कश्मीर को लेकर मोटी बात यह है कि जुलाई 1947 में महाराजा हरि सिंह कश्मीर का भारत में वैसा ही विलय करना चाहते थे, जैसा दूसरी रियासतों का हुआ, पर नेहरू उसके लिए तैयार नहीं हुए। नेहरू ने इस मामले को उलझा दिया।
सबसे बड़ी बात आज यह कही गई कि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल पर भरोसा करने की बजाए कश्मीर के मसले को माउंटबेटन के पास ले जाना बेहतर समझा, फिर उन्होंने यूनाइटेड नेशंस की मदद से इस मामले को सुलझाने की कोशिश की। इसके बाद उन्होंने आर्टिकल 370 लगाकर जम्मू और कश्मीर को एक स्पेशल स्टेटस दे दिया।
अगर आजादी के वक्त कश्मीर का विलय ठीक से हो गया होता तो न पाकिस्तान कश्मीर के किसी हिस्से पर कब्जा कर पाता, न घाटी में आतंकवाद का जहर फैलता, न ही हजारों लोगों की जान जाती और न ही कश्मीरी पंडितों को अपना घरबार छोड़ना पड़ता। लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है? हम सिर्फ इतिहास को याद कर सकते हैं और अपनी गलतियों से सबक सीख सकते हैं।