Rajat Sharma

द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना भारत के लिए ऐतिहासिक क्षण है

AKBभारत की सबसे युवा और पहली आदिवासी राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू का शपथ ग्रहण, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘भारत के लिए ऐतिहासिक क्षण है, खासकर गरीबों, वंचितों और कमजोर वर्गों के लिए।’ वह राष्ट्रपति का पद संभालने वाली दूसरी महिला हैं।

मुर्मू की जीवन यात्रा संघर्षों से भरी और अविश्वसनीय रही है। ओडिशा के आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले की एक आदिवासी बस्ती उपरबेड़ा में जन्मी द्रौपदी का मूल संथाली नाम ‘पुती’ था, लेकिन उनके स्कूल टीचर को यह नाम पसंद नहीं आया और उन्होंने इसे स्कूल के रिकॉर्ड में बदलकर ‘द्रौपदी’ कर दिया। वह पढ़ाई में खूब मेहनत करती थीं और प्रतिभाशाली थीं। गांव में बिजली न होने के बावजूद उन्होंने अपनी मेहनत के दम पर क्लास में टॉप किया और मॉनिटर भी बनीं। उनके स्कूल में सिर्फ 8वीं तक पढ़ाई होती थी इसलिए आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा था।

द्रौपदी ने हिम्मत नहीं हारी। वह एक स्थानीय विधायक से मिलीं, उन्हें अपनी मार्कशीट दिखाई और विधायक ने उन्हें भुवनेश्वर के एक सरकारी स्कूल में भर्ती करा दिया। हाई स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने भुवनेश्वर के रमादेवी महिला कॉलेज में ऐडमिशन लिया और कॉलेज के हॉस्टल में रहने लगीं। उनके पिता उन्हें खर्चे के लिए हर महीने सिर्फ दस रुपये भेज पाते थे। ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें राज्य सरकार में सहायक क्लर्क की नौकरी मिल गई, और एक बैंक क्लर्क से उनकी शादी हो गई। शादी के तुरंत बाद उन्हें अपने बच्चों की देखभाल के लिए अपनी सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ी। बाद में वह अपने गृह नगर रायरंगपुर में बतौर शिक्षक अरबिंदो स्कूल में काम करने लगीं ।

द्रौपदी मुर्मू के जीवन में कई त्रासदियों ने दस्तक दी। उन्होंने अपने पति और दोनों बेटे खो दिए। उनके पास सिर्फ अपनी बेटी का साथ बचा। अपने आध्यात्मिक और मानसिक संतुलन को वापस पाने के लिए द्रौपदी ब्रह्माकुमारियों में शामिल हुईं, और फिर सामाजिक कार्य करते हुए रायरंगपुर में पार्षद बनीं। आगे चलकर वह विधायक बनीं, उसी साल मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के मंत्रिमंडल में मंत्री बनीं, और बाद में झारखंड की राज्यपाल भी बनीं। मुर्मू का संघर्ष इस बात का साक्षी है कि किस तरह एक आदिवासी लड़की जीवन की चुनौतियों से पार पा कर देश की पहली नागरिक बनती है।

सोमवार को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद द्रौपदी मुर्मू ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में मंच से हिंदी में भाषण दिया । अपने भाषण में उन्होने कहा, “ये भी एक संयोग है कि जब देश अपनी आजादी के 50वें वर्ष का पर्व मना रहा था तभी मेरे राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई थी। और आज आजादी के 75वें वर्ष में मुझे ये नया दायित्व मिला है।“

द्रौपदी मुर्मू ने हाथ से बुनी हुई संथाली साड़ी, जिसे उनकी भाभी अपने साथ दिल्ली लाई थीं, पहनकर केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों की भव्य सभा को सम्बोधित किया और कहा: “ये मेरे लिए बहुत संतोष की बात है कि जो सदियों से वंचित रहे, जो विकास के लाभ से दूर रहे, वे गरीब, दलित, पिछड़े तथा आदिवासी मुझ में अपना प्रतिबिंब देख रहे हैं। मेरे इस निर्वाचन में देश के गरीब का आशीर्वाद शामिल है, देश की करोड़ों महिलाओं और बेटियों के सपनों और सामर्थ्य की झलक है।“

मुर्मू ने कहा, “ये हमारे लोकतंत्र की ही शक्ति है कि उसमें एक गरीब घर में पैदा हुई बेटी, दूर-सुदूर आदिवासी क्षेत्र में पैदा हुई बेटी, भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंच सकती है।
राष्ट्रपति के पद तक पहुँचना, मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, ये भारत के प्रत्येक गरीब की उपलब्धि है। मेरा निर्वाचन इस बात का सबूत है कि भारत में गरीब सपने देख भी सकता है और उन्हें पूरा भी कर सकता है।“

15वीं राष्ट्रपति ने कहा, “हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने आजाद हिंदुस्तान के हम नागरिकों से जो अपेक्षाएं की थीं, उनकी पूर्ति के लिए इस अमृतकाल में हमें तेज गति से काम करना है।
इन 25 वर्षों में अमृतकाल की सिद्धि का रास्ता दो पटरियों पर आगे बढ़ेगा- सबका प्रयास और सबका कर्तव्य। भारत के उज्ज्वल भविष्य की नई विकास यात्रा, हमें सबके प्रयास से करनी है, कर्तव्य पथ पर चलते हुए करनी है।“

पर्यावरण संरक्षण पर मुर्मू ने कहा, “मेरा जन्म तो उस जनजातीय परंपरा में हुआ है जिसने हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ ताल-मेल बनाकर जीवन को आगे बढ़ाया है। मैंने जंगल और जलाशयों के महत्व को अपने जीवन में महसूस किया है। हम प्रकृति से जरूरी संसाधन लेते हैं और उतनी ही श्रद्धा से प्रकृति की सेवा भी करते हैं। यही संवेदनशीलता आज वैश्विक अनिवार्यता बन गई है।“

द्रौपदी मुर्मू पहली राष्ट्रपति हैं जिनका जन्म 1947 में भारत की आजादी के बाद हुआ है। उन्हें हिंदी में धाराप्रवाह बोलते हुए देखकर यह पता चलता है कि वह मुखर भी हैं और उनमें आत्मविश्वास भी खूब है। राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान कुछ विपक्षी नेताओं ने टिप्पणी की थी कि मुर्मू बोल नहीं सकतीं, लेकिन हिंदी में उनका भाषण ऐसे दावों को झुठला देता है। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत ‘जोहार’ से की, जो कि ‘नमस्कार’ के जैसा पारंपरिक संथाली अभिवादन है।

उन्होंने श्रद्धेय ओडिया संत और कवि भीम भोई की एक पंक्ति का पाठ करके अपना भाषण खत्म किया: ‘मो जीबन पछे नरके पड़ी थाउ, जगतो उद्धार हेउ’, जिसका शाब्दिक अर्थ है, ‘भले ही मेरा जीवन नरक में रहे, मैं विश्व के कल्याण के लिए काम करूंगी।’ द्रौपदी मुर्मू ने अपने भाषण में एक तरफ गांधी, नेताजी, नेहरू, सरदार पटेल, आंबेडकर, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद जैसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानियों और दूसरी तरफ रानी लक्ष्मीबाई, रानी वेलु नचियार, रानी गाइदिन्ल्यू और रानी चेन्नम्मा जैसी महिला विभूतियों को याद किया।

भारत के राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू के चुनाव ने गरीबों, दलितों और आदिवासियों को एक स्पष्ट संदेश दिया है कि वे भी हमारे जीवंत गणतंत्र में अपने सपनों को पूरा कर सकते हैं। यह भारत के लोकतंत्र की शक्ति का द्योतक है और प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व का क्षण भी।

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