द कश्मीर फाइल्स: फारूक अब्दुल्ला से फिर पूछा जाए!
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म पर अब तक खामोश रहे नेशनल कांफ्रेंस के नेता डॉक्टर फारूक अब्दुल्ला और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सुप्रीमो महबूबा मुफ्ती ने सोमवार को पहली बार खुलकर बात की।
एक पत्रकार को दिए इंटरव्यू में पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ को ‘एक प्रॉपेगेंडा फिल्म’ बताया। उन्होंने कहा, ‘इसमें एक ऐसी त्रासदी का ज़िक्र है जिसने राज्य के हर शख्स को प्रभावित किया, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। मेरा दिल आज भी उस त्रासदी पर रोता है। राजनीतिक दलों के की एसे तत्व थे जो एक खास समुदाय का सफाया चाहते थे ।’
फारूक अब्दुल्ला ने कहा, ‘मेरा मानना है कि केन्द्र सरकार एक आयोग नियुक्त करे जो बताये कि इन नरसंहारों के लिए कौन जिम्मेवार था। अगर आप सच जानना चाहते हैं तो आपको एक आयोग नियुक्त करना होगा।’
नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता ने कहा, ‘अगर इसमें मुझे दोषी पाया गया तो मुझे बेशक देश में कहीं भी फांसी पर लटका दिया जाए। आयोग का नेतृत्व करने के लिए एक ईमानदार जज या कमिटी नियुक्त की जाय जो सच को सामने ला सके। आपको पता चल जाएगा कि कौन जिम्मेदार था। मुझे नहीं लगता कि मैं जिम्मेदार था। अगर लोग कड़वा सच जानना चाहते हैं, तो उस समय के इंटेलिजेंस ब्यूरो चीफ या केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से बात करें, जो उस वक्त केंद्रीय मंत्री थे।‘
पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, ‘नब्बे के दशक में न सिर्फ कश्मीरी पंडितों के साथ, बल्कि घाटी में सिखों और मुसलमानों के साथ क्या हुआ, इसकी जांच के लिए आयोग तो बनना ही चाहिए। मेरे विधायक, मेरे कार्यकर्ता, मेरे मंत्री भी मारे गए। उनमें से कुछ की लाशों को हमें पेड़ों से उतारना पड़ा था। ऐसे हालात थे।’
फारूक अब्दुल्ला आयोग से जांच कराने की बात कहकर तो निकल गए, लेकिन वह शायद ये भूल गए कि जब सवाल उठेंगे तो आंच कहां तक पहुंचेंगी।
मंगलवार की रात अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में हमने उस वक्त कश्मीर में तैनात अफसरों की बातें सुनवाईं, जिन्होंने बताया कि कश्मीर घाटी से पंडितों को क्यों भागना पड़ा? उस वक्त कश्मीर के हालात क्या थे? क्या सब कुछ 24 घंटों में हो गया या फिर कश्मीरी पंडितों के खिलाफ साजिश सालों से चल रही थी? और इस साजिश के लिए कौन जिम्मेदार था?
मैं भी चाहता हूं कि 32 साल पहले किए गए गुनाहों का सच सामने लाने के लिए एक आयोग गठित किया जाए। आयोग को अपना काम पूरा करने में कई साल लगेंगे, लेकिन हकीकत बाहर आनी ही चाहिए। फारूक से यह भी पूछा जाएगा कि क्या कश्मीरी पंडितों का नरसंहार उनके पद छोड़ने के 10 घंटे के भीतर हुआ था, या यह उनके शासन के दौरान हुए खून-खराबे का नतीजा था?
फारूक से पूछा जाएगा कि क्या उनकी सरकार को कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हो रही साजिश का कोई इल्म था या नहीं? उन्हें ये भी बताना पड़ेगा कि जब कश्मीर में हालात खराब हो रहे थे तो वह अचानक इस्तीफा देकर लंदन क्यों चले गए? उनसे पूछा जाएगा कि उनके लंदन जाने के कुछ घंटे बाद ही कश्मीरी पंडितों कत्लेआम क्यों हुआ, उनके घर क्यों जलाए गए और उन्हें घाटी छोड़ने की धमकी क्यों दी गई?
जो दस्तावेज सामने आ रहे हैं वे इस बात का सबूत हैं कि फारूक अब्दुल्ला को कश्मीर में पंडितों के खिलाफ हो रही साजिश का अंदेशा था। फारूक अब्दुल्ला को इस बात की जानकारी थी कि कश्मीरी पंडितों को घरबार छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है। इस बात के भी सबूत हैं कि 19 जनवरी 1990 से 3 महीने पहले ही कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया था।
1997 में जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की सरकार थी। उस वक्त उनकी सरकार ने Jammu and Kashmir Migrant Immovable Property Act, 1997 बनाया था। इस ऐक्ट में जम्मू-कश्मीर से पंडितों के पलायन के लिए कट ऑफ डेट 1 नवंबर 1989 लिखी गई है। कश्मीरी पंडितों के पलायन की जो कट ऑफ डेट इस ऐक्ट में बताई गई है, उस वक्त भी कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की ही सरकार थी। ऐक्ट में साफ-साफ जिक्र है कि जनवरी 1990 में फारूक के इस्तीफा देने से तीन महीने पहले ही घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया था!
अब सवाल ये है कि फारूक और उनकी सरकार ने उन बेहद महत्वपूर्ण 79 दिनों के दौरान, 1 नवंबर 1989 से 18 जनवरी 1990 तक, कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम और पलायन को रोकने के लिए क्या किया। फारूक रेंजू शाह 1989 में श्रीनगर में सूचना विभाग में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर तैनात थे। फारूक रेंजू शाह ने कहा कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म साजिश थी, पाकिस्तान से आतंकवादियों को सियासी साजिश के तहत लाया गया था। उन्होंने कहा कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म सितंबर 1989 से ही शुरू हो गए थे, .छोटी-मोटी घटनाएं और हमले उससे भी पहले से हो रहे थे। रेंजू शाह ने कहा कि अगर फारूक अब्दुल्ला चाहते तो हालात ऐसे खराब न हो पाते।
फारूक रेंजू शाह ने यह भी कहा कि कश्मीर में 6 साल 264 दिन तक राष्ट्रपति शासन रहा, और इस दौरान कश्मीरी पंडित अपनी जो जमीन और मकान छोड़कर भागे थे, उनकी खरीद-बिक्री नहीं हुई। उन्होंने कहा कि जैसे ही 1996 में फारूक अब्दुल्ला की सरकार आई, उन्होंने कानून बनाकर कश्मीरी पंडितों की प्रॉपर्टी की खरीद-बिक्री को मंजूरी दे दी। तब तक कश्मीरी पंडित वापस लौटने की आस खो चुके थे, और इसलिए उन्होंने मजबूरी में अपनी संपत्ति कौड़ियों के भाव बेच दी। इसके साथ ही कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी का रास्ता भी बंद हो गया।
मंगलवार की रात अपने शो ‘आज की बात’ में हमने श्रीनगर, गुलमर्ग, कुलगाम और नंदीमार्ग जैसी जगहों पर कश्मीरी पंडितों के तमाम जली हुई हवेलियां और मकानों की तस्वीरें दिखाई, जो खंडहर बनकर खड़े हैं अभी भी बिना बिके पड़े हैं। ये जले हुए और खंडहर बन चुके मकान जनवरी, 1990 में हुई कश्मीरी पंडितों की बर्बादी का जीता जागता सबूत हैं।
1990 में पंडितों के कत्लेआम के समय एस पी वैद्य बडगाम के एडिशनल एसपी थे, जो बाद में राज्य पुलिस महानिदेशक बने। वैद्य ने इंडिया टीवी को बताया कि पंडितों की हत्या और पलायन के लिए तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार था। वैद्य ने कहा, जब जगमोहन ने राज्यपाल का पद संभाला तो हालात पूरी तरह बदल चुके थे। मस्जिदों के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल अज़ान की बजाय कश्मीरी पंडितों को इस्लाम कबूल करने या घाटी छोड़ने की धमकी देने के लिए किया जा रहा था। मस्जिदें उस वक्त अमन की बजाए खौफ का पैगाम दे रही थीं।
वैद्य ने जो बताया उससे एक बात तो साफ है कि 18 जनवरी 1990 की शाम फारूक ने इस्तीफा दिया, और आधी रात के बाद मस्जिदों से ऐलान होने लगा कि कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ दें। कश्मीरी पंडितों पर हमले और आगजनी शुरू हो गई। सुबह तक घाटी का मंजर बदल चुका था और ज्यादातर पंडित अपना घरबार छोड़कर निकलने लगे थे। फारूक अब्दुल्ला से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों को बचाने के लिए क्या किया।
वैद्य ने बताया कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाने की साजिश पाकिस्तान ने रची थी। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने कश्मीर में गड़बड़ी फैलाने के लिए 70 आतंकवादियों का पहला बैच भेजा था। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने उनमें से कई आतंकवादियों को पकड़ लिया था, लेकिन 1989 में फारूक अब्दुल्ला की सरकार ने सभी आतंकवादियों को रिहा कर दिया। इससे कश्मीर में आतंकवाद को जड़ मिल गई और कश्मीरी पंडितों ने डर के साये में जीना शुरू कर दिया।
मेरा केन्द्र सरकार से अनुरोध है कि वह फारूक अब्दुल्ला की राय मान ले और हिंसा भड़काने में शामिल नेताओं, प्रशासकों और स्थानीय स्तर के नेताओं की भूमिका का पता लगाने के लिए एक जांच आयोग का गठन करे। एक बार पुरानी फाइलें दोबारा खुलने के बाद कई सवाल उठना लाजिमी है।
फारूक अब्दुल्ला, सैफुद्दीन सोज़ और महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं को सारे आरोपों का जवाब देने का मौका दिया जाना चाहिए। फारूक अब्दुल्ला को यह बताना चाहिए कि क्या उन्हें सत्ता में रहते हुए कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम की साजिश के बारे में खुफिया जानकारी मिली थी। उन्हें यह भी बताना होगा कि पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकवादियों को पुलिस ने क्यों छोड़ा।
फारूक अब्दुल्ला को यह भी बताना होगा कि पलायन कर गए कश्मीरियों की संपत्ति की खरीद-फरोख्त को कानूनी मान्यता देने का कानून किस नीयत से बनाया गया। महबूबा मुफ्ती को बताना पड़ेगा कि आज वह कश्मीरी पंडितों के लिए हमदर्दी दिखा रही हैं, लेकिन 1986 में जब कश्मीरी पंडितों पर जुल्म शुरू हुए, जब कश्मीर में मंदिरों को तोड़ा गया, उस वक्त अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के रोल पर वह क्या कहेंगी? उन्हें बताना होगा कि 1989 में रुबैया सईद अपहरण मामले में उनके पिता और तत्कालीन गृह मंत्री ने 5 खूंखार आतंकवादियों को रिहा करने का आदेश क्यों दिया था।
मैं जानता हूं कि महबूबा मुफ्ती इन सब सवालों पर खामोश रहेंगी, वह इन सवालों पर नहीं बोलेंगी। मंगलवार को महबूबा मुफ्ती ने कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म को भी हिंदू-मुसलमान का रंग देने की कोशिश की। महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘सिर्फ फिल्म बनाने से सच नहीं बदल सकता। घाटी में जो कुछ भी हुआ उसके पीछे की सच्चाई हर कश्मीरी जानता है।’
उन्होंने कहा, ‘मैंने खुद अपनी आंखों से हिंसा देखी है, हमें और हमारे परिवार के लोगों को हिंसा का सामना करना पड़ा और अब ये लोग आकर सच बोलने का दावा कर रहे हैं। मेरे मामा और चाचा दोनों मार डाले गए, मेरी बहन की हत्या हुई, 19 मुसलमानों को मारा गया, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि मुसलमान भी मारे गए। किसी भी इंसान की हत्या दुखद है और इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।’
महबूबा ने आरोप लगाया कि बीजेपी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश कर रही है, और भारत में कई पाकिस्तान बनवाना चाहती है। उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस ने अपने 60 साल से ज्यादा शासन के दौरान कई गलतियां की , लेकिन कांग्रेस पार्टी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने मज़हब के नाम पर कभी लोगों को बांटा नहीं।’
छत्तीसिंहपोरा, नंदीमर्ग, किश्तवाड़ और सूरनकोट में हुए नरसंहारों का जिक्र करते हुए महबूबा ने कहा, ‘आतंकी हिंसा में हिंदू, मुस्लिम और सिख मारे गए, और कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी। यहां तक कि हमारे करीबी रिश्तेदार भी मारे गए लेकिन हम चाहते हैं कि अच्छे दिन लौट आएं। लेकिन वे (बीजेपी) अमन नहीं चाहते, वे चाहते हैं, हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहें। वे 800 और 500 साल पहले हुकूमत करने वाले बाबर और औरंगजेब की बात कर रहे हैं। बाबर और औरंगजेब से हमारा क्या लेना-देना? ये ऐसे मुद्दे हैं जिनका आज से कोई लेना-देना नहीं हैं।’
ये एक कड़वा सच है कि कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ और इसके कारण उन्हें अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से पलायन करना पड़ा। ये भी सच है कि इस सच्चाई को तीन दशकों से ज्यादा समय से दफनाने की कोशिश की गई। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने हजारों कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म, उनके साथ हुई बर्बरता और उन्हें कश्मीर छोड़कर भागने के लिए मजबूर करने की साजिश का पर्दाफाश किया है। इस फिल्म की वजह से ही कश्मीरी पंडितों के मसले पर देश भर के लोगों का ध्यान गया कि कैसे कश्मीरी पंडितों को अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से भागना पड़ा, जहां उनके खानदान पुश्त-दर-पुश्त सदियों से रह रहे थे। इस त्रासदी को हिंदू-मुस्लिम रंग देकर छुपाया नहीं जा सकता।
कश्मीरी पंडितों को इंसाफ मिलना चाहिए। कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म के लिए जिम्मेदार कौन है, इसका जवाब सामने आना चाहिए। अगर मुसलमानों के साथ कश्मीर में नाइंसाफी हुई है तो इसके लिए भी महबूबा मुफ्ती और फारूख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को जबाव देना चाहिए, क्योंकि पिछले 5 दशकों में जम्मू-कश्मीर में ज्यादातर वक्त इन्हीं दोनों के परिवारों की सरकारें रही ।
जब फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में मंत्री रहे, तब उन्होंने जगमोहन पर सवाल क्यों नहीं उठाए? जब महबूबा मुफ्ती ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई, तब उन्होंने एक बार भी क्य़ों नहीं कहा कि बीजेपी देश में कई पाकिस्तान बनाना चाहती है ?
मुझे अभी भी याद है कि जब संसद में कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाए जाने का बिल पास हो रहा था, उसके कुछ ही दिन पहले महबूबा मुफ्ती ने धमकी दी थी कि ‘अगर ऐसा हुआ तो कश्मीर में खून की नदियां बहेंगी।‘ तब उन्होंने कहा था, ‘कश्मीर घाटी में हिन्दुस्तान का तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं बचेगा।’ ये अच्छी बात है कि कश्मीर में खून की नदियां नहीं बहीं, और उससे भी अच्छी बात ये है कि अब महबूबा मुफ्ती तिरंगा उठाने की बात करने लगी हैं।
The Kashmir Files: Ask Farooq Abdullah again!
After maintaining a stony silence on the movie ‘The Kashmir Files’, National Conference leader Dr Farooq Abdullah and J&K People’s Democratic Party chief Mehbooba Mufti on Monday gave their reactions for the first time in public.
In an interview to a journalist, former chief minister Farooq Abdullah described ‘The Kashmir Files’ as “a propaganda movie”. “It has raked up a tragedy that affected every soul of the state, both Hindus and Muslims. My heart still bleeds over that tragedy. There were some elements from political parties who were interested in ethnic cleansing”, he added.
Farooq Abdullah said, “I think they (BJP government at the Center) should appoint a Commission and it will tell them who is responsible. You want to know the truth, you should appoint a Commission.”
The NC leader said, “I am ready to be hanged anywhere in the country if I am found guilty. The truth will come out when you put an honest judge or committee in place. You will know who was responsible. I don’t think I was responsible. If people want to know the bitter truth, they should talk to the Intelligence Bureau chief at that time, or Kerala governor Arif Mohammed Khan, who was a central minister at that time.”
The former chief minister said, “a Truth Commission of some kind should be put in place to probe not just what happened to Kashmiri Pandits but also to Sikhs and Muslims the Valley during the Nineties. My MLAs, my workers, my ministers were killed, we had to pick the mortal remains of some of them from treetops. That was the situation.”
Farooq Abdullah may have demanded a commission, but he must realize that if the entire truth comes out, the flames of truth are bound to reach him and his party.
In my prime time show ‘Aaj Ki Baat’ on Tuesday night, we showed sound bites of former officials of Kashmir government, who have described in detail why Kashmiri Pandits had to flee the Valley en masse, and which politician was responsible for the mess.
I also want a commission to be set up for crimes that were committed 32 years ago. It will take several years for the commission to complete its work, but the truth must come out. Farooq will also have to face the question whether the pogrom of Kashmiri Pandits took place within 10 hours after he demitted office, or was it the consequence of violence that had been unleashed during his rule?
Farooq will be asked whether he and his government had clear indications about a major conspiracy that was being hatched to kill Kashmiri Pandits and drive them out of the Valley? He will also be asked, why he left for London in a huff, when he knew that violence was brewing against Pandits in the Valley? He will be asked why Kashmiri Pandits were killed, their properties burnt and they were threatened to leave the Valley, hours after he left for London?
Documents that have now come to our knowledge clearly show that Farooq Abdullah knew that a major conspiracy to drive Pandits out of the Valley was in offing. There are documents to show that the exodus of Kashmiri Pandits had begun three months before Farooq resigned on January 18, 1990.
In 1997, it was Farooq Abdullah’s government which got the Jammu & Kashmir Migrants Immovable Property Act legislated. This law clearly states the cut off date for exodus of Kashmiri Pandits from the Valley is November 1, 1989. This was the time when Farooq Abdullah’s government was in power. The Act clearly mentions that the exodus had begun three months before Farooq resigned in January 1990!
Questions will be asked what Farooq and his government did during those crucial 79 days, from November 1, 1989 till January 18, 1990, to stop the killings and exodus of Kashmiri Pandits. Farooq Renzu Shah was assistant director in the J&K government’s information department in 1989. Shah says, trained terrorists were brought from Pakistan as part of a conspiracy to kill Kashmiri Pandits in the Valley. The atrocities had already begun from September, 1989, and had Farooq’s government taken measures, the killings and exodus could have been stopped, says Shah.
Farooq Renzu Shah also says, for 6 years 264 days there was Governor’s Rule in J&K, and during this period all the homes and properties left behind by Kashmiri Pandits remained unsold, and most of the properties were forcibly occupied by some locals. When Farooq came to power again in 1996, he brought a law to remove those encroachments and allow sale and purchase of homes and properties of displaced Kashmiri Pandits. By that time, the Pandits had fully lost hopes of their return to the Valley, and they were forced to sell their properties at throwaway prices. This put a full stop to any chance of return of Pandits to the Valley.
In my show ‘Aaj Ki Baat’ on Tuesday night, we showed visuals of burnt out homes and properties of Kashmiri Pandits in places like Srinagar, Gulmark, Kulgam and Nandimarg, that are still lying unsold. These burnt and vacant properties are living reminders of the holocaust that took place in January, 1990.
Former Director General of Police S.P.Vaidya was Additional SP of Budgam when the killings of Pandits took place in 1990. Vaidya told India TV that the then political leadership was responsible for the killings and exodus of Pandits. Vaidya said, the situation had completely changed when Jagmohan took over as Governor. Instead of religious ‘azaan’ chants from loudspeakers in the mosques, threats were being made to Pandits to either convert to Islam or leave the Valley. The mosques were spreading the message of fear instead of love.
Vaidya’s comments are clear. On January 18, 1990 Farooq Abdullah resigned, and that same evening, loudspeakers in mosques started asking Pandits to leave the Valley. Killings and arson began. By next morning, the situation had changed completely, and most of the Pandits had started leaving. Farooq Abdullah should be asked what measures he took to save the Kashmiri Pandits.
Vaidya says, Pakistan had sent the first batch of 70 terrorists to the Valley, the local police arrested several of them, but in 1989, Farooq Abdullah’s government released all of them. This created an atmosphere of terror and common Kashmiri Pandits started living in fear.
I would request the Centre to accept Farooq Abdullah’s suggestion and set up an Inquiry Commission to establish the role of political leaders, administrators and local level politicians in fomenting violence. Once old files are reopened, many questions are bound to be raised.
Leaders like Farooq Abdullah, Saifuddin Soz and Mehbooba Mufti should be given the chance to reply to all allegations. Farooq Abdullah must disclose whether he had received intelligence inputs about the conspiracy to kill Kashmiri Pandits, when he was in power. He must also disclose why terrorists trained and sent by Pakistan were released by police.
Farooq Abdullah should also disclose what was the objective behind enacting the law for sale and purchase of Kashmiri migrants’ properties. Mehbooba Mufti should reply what was the role of her father Late Mufti Mohammed Sayeed when Hindu temples were demolished in 1986, and why as Union Home Minister Mufti ordered the release of five dreaded terrorists during the Rubaiya Sayeed abduction case.
I know Mehbooba Mufti will remain silent on such questions. On Tuesday, she tried to give the entire issue a communal colour. While addressing a party meeting in Samba, Mehbooba Mufti said, “mere making a movie cannot alter truth. Every Kashmiri knows the truth behind whatever happened in the Valley.”
She said, “I have seen violence with my own eyes, we and our family members faced the brunt of violence and now these people have come and are claiming to be telling the truth. Both my paternal and maternal uncles were killed, my sister was killed, 19 Muslims were killed, but nobody is now saying Muslims were also killed. The killing of any human being is tragic, and it should not be made a Hindu-Muslim issue.”
Mehbooba alleged that BJP was trying to drive a wedge between Hindus and Muslims. She said, Congress might have committed several wrongs in the past during its over 60 years’ rule, but the party deserves credit for not dividing people in the name of religion.
Referring to massacres in Chattisinghpora, Nadimarg, Kishtwar and Surankote, Mehbooba said, “Hindus, Muslims and Sikhs were killed due to terrorist violence, and Kashmiri Pandits had to leave the Valley. Even our close relatives were killed but we want the good days to return. But they (BJP) don’t want peace, they want the Hindus and Muslims to fight against each other. They are raising issues like Babar and Aurangzeb, who rules 800 and 500 years ago. What we have to do with Babar and Aurangzeb? These are issues not relevant to our times.”
The killings of Kashmiri Pandits which led to their mass exodus from the Valley is a bitter truth. The truth was sought to be buried for over three decades. The movie ‘The Kashmir Files’ has exposed the causes behind the terrible tragedy that overtook thousands of Kashmiri Pandit families. It was because of this movie that the attention of the nation is now focused on how several lakhs Kashmiri Pandits had to leave their homes, where they have been living for centuries. This tragedy cannot be covered up by injecting Hindu-Muslim colour.
Kashmiri Pandits must get justice, and those accountable for this great tragedy must be brought to book. If Kashmiri Muslims in the Valley have faced injustice, then, too, both Farooq and Mehbooba must answer questions. This is because these two families have been ruling the state for most part during the last five decades.
Farooq and his son Omar Abdullah were part of BJP-led NDA at the Centre, but they did not then question the role of Jagmohan. When Mehbooba Mufti ran the coalition government with BJP for two years, she never alleged that BJP was trying to create more Pakistans.
I still remember, when Parliament was passing the bill to revoke Article 370 of the Constitution, Mehbooba Mufti had warned a few days earlier that “rivers of blood will flow in the Valley, if such a step is taken”. She had then said, “there will not be a single person left who will raise the tricolour in the Valley”. It is comforting to know that river of blood did not flow in the Valley, and Mehbooba is now speaking about raising the tricolour.
इमरान खान ने मोदी की विदेश नीति की क्यों तारीफ की?
पाकिस्तान में प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार खतरे में है। सरकार के खिलाफ लगभग सभी विपक्षी दलों ने हाथ मिला लिया है। 100 से ज्यादा विपक्षी सांसदों ने नेशनल असेंबली में इमरान सरकार के खिलाप अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है। इमरान खान को अपनी सरकार बचाने के लिए 342 सदस्यों की नेशनल असेंबली में 172 वोटों की जरूरत है। लेकिन सेना द्वारा नियंत्रित कई छोटी पार्टियां और इमरान की अपनी ही पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के 24 सांसदों ने सरकार के खिलाफ वोट देने की धमकी दी है।
सूत्रों का कहना है कि मुख्य विपक्षी दल पूर्व पीएम नवाज शरीफ के भाई और विपक्ष के नेता शहबाज शरीफ को अगला पीएम चुनने पर राजी हो गए हैं। नवाज शरीफ इन दिनों लंदन में हैं। खबरें हैं कि इमरान खान सेना का समर्थन खो चुके हैं। लेकिन दिखावा के तौर पर सेना ने अभी अपने को तटस्थ रखा है। कागजी तौर पर देखें तो इमरान खान के पास संसद में 176 वोट हैं जो कि एक मामूली बहुमत है। इन 176 सांसदों में से 155 सांसद तो उनकी अपनी पार्टी के हैं, लेकिन इनमें से भी कई सांसद दल बदल चुके हैं। इमरान खान की सरकार को छह छोटी-छोटी पार्टियों के 23 सांसदों का भी समर्थन मिला हुआ है।
अब इस बड़ी चुनौती से निपटने के लिए इमरान खान इन दिनों देश भर में बड़ी-बड़ी रैलियां कर रहे हैं। इन रैलियों में इमरान अपने समर्थकों से यह अपील कर रहे हैं कि वे 27 मार्च को संसद के बाहर होनेवाली रैली में बड़ी संख्या में शामिल हों। इसके जवाब में विपक्ष ने भी 25 मार्च को इस्लामाबाद में मार्च निकालने और धरना देने का ऐलान किया है। इमरान खान मुख्य विपक्षी दलों के गुट पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) का मुकाबला करने के लिए जनता का मूड अपनी ओर करने की कोशिश कर रहे हैं।
इमरान खान ने अपनी रैलियों में नवाज शरीफ को गीदड़ और भगोड़ा बताया, साथ ही वे सभी विपक्षी नेताओं को भ्रष्ट और देशद्रोही बता रहे हैं। इमरान खान ने कहा, ‘भगोड़ा और उसकी बेटी सेना के बारे में गलत बातें कहते हैं और शहबाज तो हर किसी की बूट पॉलिश में लगा रहता है।’ उधर इन आरोपों का जवाब नवाज शरीफ की बेटी मरियम अपनी रैलियों में देती हैं। मरियम कहती हैं कि इमरान खान नियाजी का ‘खेल खत्म हो चुका है’, उनकी सरकार नाकाम साबित हुई है।
लेकिन मजे की बात यह है कि जब सरकार जाने वाली है उस वक्त इमरान खान मोदी के मुरीद बन गए हैं। रविवार को अपने खैबर पख्तूनख्वा के मालाकंद इलाके में एक जनसभा को संबोधित करते हुए इमरान ने जो बात कही, उसने बरबस भारतीयों का ध्यान आकर्षित कर लिया। इमरान ने अपने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति की तारीफ की।
उन्होंने कहा, ‘मैं अपने पड़ोसी मुल्क हिंदुस्तान की विदेश नीति के लिए उसकी तारीफ करना चाहूंगा। भारत की विदेश नीति आजाद है और इसका एकमात्र उद्देश्य अपनी अवाम की भलाई करना है। हालांकि भारत ने अमेरिका के साथ गठबंधन किया है, और क्वाड ग्रुप का भी हिस्सा है, फिर भी भारत रूस-यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर तटस्थ है। पाकिस्तान के वजीरे आजम ने कहा कि इस वक्त जब दुनिया के ताक़तवर पश्चिमी मुल्कों ने रूस पर तमाम आर्थिक पाबंदियां लगा रखी हैं, उसके बावजूद भारत रूस से सस्ता तेल ख़रीदने जा रहा है। यह भारत की आजाद विदेश नीति का नतीजा है।
सोमवार को भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने इमरान खान की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा-‘भारत की विदेश नीति की बहुत से मुल्कों ने तारीफ की है और ये सब रिकार्ड पर है। ये कहना गलत होगा कि केवल एक नेता ने भारत की विदेश नीति की तारीफ की है।’
एक वक्त था, जब इमरान खान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नरेंद्र मोदी को हिटलर और नाजी नेता बता रहे थे और अब उनकी विदेश नीति की तारीफ कर रहे हैं, और वो भी ऐसे वक्त जब उनकी सरकार गिरने के कगार पर है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने तटस्थ विदेश नीति अपनाई और भारत के हित को सर्वोपरि रखा। मोदी की विदेश नीति को बताने के लिए इतना ही काफी है। नरेंद्र मोदी अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबाव में नहीं आए।
यूक्रेन जंग के समय भारत ने अपनी नीति को काफी सन्तुलित रखा। भारत ने न तो रूस का खुलकर विरोध किया और न ही खुले तौर पर रूसी हमले का समर्थन किया। इसी तरह, भारत ने सार्वजनिक रूप से पश्चिम द्वारा उठाए गए कदमों का भी विरोध नहीं किया। भारत ने रूस और यूक्रेन दोनों से लड़ाई खत्म करने और बातचीत की टेबल पर आने की अपील की। एक ग्लोबल लीडर के रूप में नरेंद्र मोदी की छवि अब चमक गई है, जिसे इमरान खान जैसे मोदी के प्रखर विरोधी भी नजरअंदाज नहीं कर सकते थे।
सार्वजनिक मंच पर हजारों लोगों की भीड़ के सामने अपने प्रधानमंत्री के मुंह से भारत की विदेश नीति की तारीफ सुनकर पाकिस्तान की अवाम और वहां के नेता हैरान हैं।
मैंने पिछले कुछ समय से देखा है कि जब से इमरान खान प्रधानमंत्री बने हैं, उन्होंने नरेन्द्र मोदी को कॉपी करने की हरसंभव कोशिश की। मोदी के नक्शे कदम पर चल कर इमरान ने पाकिस्तान में भी स्वच्छता अभियान चलाया, फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग शुरू की। फिजूलखर्ची से बचने के लिए मंत्रियों को रैगुलर फ्लाइट से सफर करने को कहा और इसके बाद वज़ीरे आज़म को मिले तमाम कीमती तोहफों की उसी तरह नीलामी की, जिस तरह 2014 में मोदी ने किया था। लेकिन इमरान खान मोदी के काम और उनकी योजनाओं की नकल करके भी मोदी जैसे लोकप्रिय नहीं हो पाए।
ऐसा भी नहीं है कि इमरान ख़ान दिल से मोदी की तारीफ कर रहे हैं। हकीकत यह है कि मोदी की विदेश नीति की तारीफ इमरान खान ने मजबूरी में की है। उनके देश की आर्थिक हालत बहुत ख़राब है और इमरान की कुर्सी खतरे में है। पाकिस्तान पिछले कुछ सालों से चीन के पीछे खड़ा है। अमेरिका से मदद पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है। जब अमेरिका से बात नहीं बनी तो इमरान रूस का चक्कर भी लगा आए। रूस के राष्ट्रपति पुतिन से भी मिले लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जिस वक्त इमरान पुतिन से मिलने रूस पहुंचे थे उसी वक्त रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया था। इमरान को खाली हाथ लौटना पड़ा।
वहीं हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी न किसी के दबाव में आए और न किसी की मिन्नतें कीं। यहां तक कि अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद रूस से S-400 मिसाइलें खरीदीं। मोदी ने उन देशों के साथ भी बेहतर संबंध कायम किए जो कभी पाकिस्तान के करीबी हुआ करते थे। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, ओमान, जॉर्डन, ये सारे मुल्क आज भारत के करीब हैं। सऊदी अरब ने पाकिस्तान को क़र्ज़ देना बंद कर दिया है। संयुक्त अरब अमीरात अब पाकिस्तान के कहने पर कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाता है।
भारत के प्रति बहुत से इस्लामिक देशों का दृष्टिकोण अब बदल चुका है। हालात यह है कि अब पाकिस्तान के विपक्ष के नेता भी यह कह रहे हैं कि इमरान ख़ान मोदी की नजीर न दें। पहले ये बताएं कि उन्होंने खुद पाकिस्तान का क्या हश्र कर दिया कि अब दुनिया पाकिस्तान पर हंस रही है।
इमरान खान को इस बात का अहसास हो गया है कि उनकी कियादत के खिलाफ बगावत हो चुकी है और अब सरकार बचाना मुश्किल है। इमरान कभी फौज से मदद मांगते हैं तो कभी बगावत करने वाले सांसदों को डराने की कोशिश करते हैं, कभी अदालत से उम्मीद करते हैं कि वह दलबदल करने वालों से संसद में वोट देने का हक छीन ले। लेकिन पाकिस्तान मामलों के जानकार कहते हैं कि पाकिस्तान में फौज ने अगर एक बार फैसला कर लिया कि वजीरे आजम को हटाना है तो फिर उन्हें कोई नहीं बचा सकता।
पाकिस्तान 75 साल पहले आजाद हुआ था लेकिन वहां एक भी निर्वाचित प्रधानमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। पाकिस्तान में सरकार फौज के जनरल बनाते हैं औऱ जब चाहें हटा देते हैं। इमरान इस बात की भी शिकायत नहीं कर सकते क्योंकि वह भी फौज की मदद से वजीरे आजम बने थे। अब जनरल बाजवा नाराज हैं इसलिए इमरान का बचना नामुमकिन है। अब सिर्फ चर्चा इस बात को लेकर है कि क्या फौज एक और कठपुतली सरकार बनाएगी या फिर जनरल बाजवा सीधे सरकार का कंट्रोल अपने हाथ में लेंगे।
Why Imran Khan praised Modi’s foreign policy?
Pakistan Prime Minister Imran Khan’s government may be on the verge of collapse with all main opposition parties having joined hands. They have brought a no-confidence motion in the National Assembly, supported by more than 100 MPs. Imran Khan needs 172 votes to survive in the 342-member National Assembly, but several smaller parties, controlled by the Army and nearly 24 MPs of his party Pakistan Tehreek-e-Insaaf (PTI) have threatened to vote against the government.
Sources say, the main opposition parties have agreed to elect Shehbaz Sharif, brother of former PM Nawaz Sharif, and the leader of opposition, as the next prime minister. Nawaz Sharif is presently in self-exile in London. There are reports of Imran Khan losing the backing of the powerful military establishment, but the Army has so far maintained a neutral stand. On paper, Imran has a slim majority of 176 votes in Parliament, which include 155 MPs from his party PTI, but many of his own MPs have defected. Imran was ruling with the support of 23 MPs from six different parties.
To counter this challenge, Imran Khan has been addressing rallies across the country and appealing to his supporters to march to Islamaba and attend a rally outside Parliament on March 27. In response, the Opposition has announced plans to organize a march and sit-in in Islamabad on March 25. Imran Khan is trying to swing the public mood in his favour to counter the heat being applied by Pakistan Democratic Movement (PDM), a conglomerate of main opposition parties.
In his rallies, Imran Khan lashed out at Nawaz Sharif, describing him as ‘geedar’ (jackal) and absconder, and all opposition leaders as corrupt and traitors. Imran Khan said, “the absconder and his daughter say bad things about the army and Shehbaz polishes every boot that he sees”. In response, Nawaz Sharif’s daughter Maryam tells her rallies that “the game is over” for Imran Khan Niazi, whose government has been proved to be incompetent.
What has caught the eyes of Indians here is a remark that Imran Khan made while addressing a public rally in Malakand area of his native Khyber Pakhtunkhwa province on Sunday. Imran Khan praised Prime Minister Narendra Modi’s foreign policy.
He said, “I would like to praise our neighbouring country Hindustan for its foreign policy. India’s foreign policy is free and independent, and its only aim is for the betterment of its own people. Though India has allied with America, and is part of Quad alliance, yet India is neutral on the Ukraine-Russia war issue. India has decided to import crude oil from Russia despite US sanctions. This is because India’s foreign policy is oriented towards the betterment of its own people.”
On Monday, Indian Foreign Secretary Harshvardhan Shringla reacted to Khan’s remark by saying, “India has received across the board praise from different countries for its foreign policy, and our record speaks for itself. It would be wrong to say that only one leader has praised India’s foreign policy.”
It is amusing to note that Imran Khan, who, at one point of time, used to deride Narendra Modi as Hitler and Nazi leader at international forums, has now praised his foreign policy, at a time when his government is on the verge of collapse. The manner in which Prime Minister Modi pursued a neutral foreign policy during the Russia-Ukraine war and kept India’s own interest as paramount, speaks for itself. Modi did not come under pressures from the US and the Western countries.
India’s policy was finely tuned. It did not openly oppose Russia, but also refrained from openly supporting the Russian attack. Similarly, India did not publicly opposed the stand taken by the West, and instead called for immediate cessation of hostilities and resumption of dialogue, between Russia and Ukraine. Narendra Modi’s image as a global leader has now acquired a new shine, which a trenchant critic like Imran Khan could not ignore.
The people and political leaders of Pakistan were themselves surprised when they watched their prime minister praising India’s foreign policy before a crowd of thousands of supporters.
I have noted for the last few years that since the time Imran Khan took over as Prime Minister, he has not only tried to copy Narendra Modi’s image but also several of his public welfare policies. Taking a page out of Modi’s book, Imran Khan launched the cleanliness campaign in Pakistan, and declared a war against corruption. He also copied Modi’s measures, by asking his ministers to travel on regular flights and avoid extravagance. He then auctioned all precious gifts given to him and his predecessors by foreign guests, by copying a similar step by Modi, early in 2014. But in spite of copying Modi’s actions and schemes, Imran Khan failed to attain Modi’s stature in Pakistan.
It is not that Imran Khan has praised Modi from the bottom of his heart, he has done it because of compulsions, both political and economic. His government is in danger and Pakistan’s economic situation is on a downward spiral. Pakistan’s economy has been surviving on huge loans given by its ally China. It tried to curry favour with the US, but when it failed to get any response, Imran Khan landed in Moscow to meet Putin, right at a time when Russia invaded Ukraine. He had to come empty handed.
In contrast, Narendra Modi did not kowtow to any big power to get favours for India, nor did it India come under any pressure, even when it purchased S-400 missiles from Russia, despite US sanctions. On the contrary, Modi established friendly relations with countries like Saudi Arabia, UAE, Bahrain, Oman and Jordan, which were traditional friends of Pakistan. Saudi Arabia has stopped giving loans to Pakistan, and UAE has stopped raising Kashmir issue despite prodding from Pakistan.
Most of the Islamic nations have now changed their attitude towards India and the situation has come to such a pass that even opposition leaders in Pakistan have now started asking their Prime Minister not to give Modi’s examples. These opposition leaders allege that the world is now laughing at Pakistan because of Imran Khan’s incompetence.
Imran Khan has now figured out that the his rule is nearing an end because of rebellion both in his party and in the ranks of other supporting parties. Out of panic, he has been seeking the Army’s support, and on the other hand, berating and threatening the rebels. He is also expecting the Supreme Court to step in and disqualify the defector MPs. But regular Pakistan watchers say, once the Army decides to unseat the Prime Minister, no other force can stop the military establishment.
Pakistan became independent 75 years ago, but not a single elected Prime Minister could complete five-year term. Governments in Pakistan are set up by the Army and also overthrown by the Army. Imran Khan cannot object to this, because his own government came to power with the help of the Army. Now that the Army Chief Gen. Qamar Javed Bajwa is unhappy with him, Imran Khan’s days as Prime Minister are now numbered. The only speculation that is being made now is whether the Army will support a new puppet government or will it take over the reins of power.
द कश्मीर फाइल्स: जगमोहन को दोष क्यों?
नेशनल कांफ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने शुक्रवार को एक ऐसी बात कह दी, जिसने नब्बे के दशक के दौरान घाटी से पलायन कर गए कश्मीरी पंडितों के जख्मों को फिर से हरा कर दिया। उन्होंने कहा कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ‘झूठ का पुलिंदा’ है और इसकी कहानी हकीकत से दूर है।
उमर ने कहा, ‘मैं इस फिल्म के निर्माताओं से सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि यह एक डॉक्यूमेंट्री है या कोई कमर्शल फिल्म। अगर यह एक डॉक्यूमेंट्री है, तो हम समझेंगे कि यह सब सच है, लेकिन फिल्म के निर्माता खुद कह रहे हैं कि यह कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं बल्कि वास्तविकता पर आधारित फिल्म है। यह फिल्म कश्मीरी पंडितों के पलायन के समय के राजनीतिक परिदृश्य को गलत तरीके से दर्शाती है। सच तो यह है कि जब पलायन हुआ तब फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री नहीं थे। यह गवर्नर राज के दौरान हुआ था, और तब जगमोहन साहब गवर्नर थे। वी. पी. सिंह केंद्र में सत्ता में थे, और उन्हें समर्थन किसका था, बीजेपी का।’
उमर ने पूछा कि फिल्म में यह क्यों नहीं दिखाया गया कि जब कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ तब बीजेपी केंद्र में वी.पी.सिंह की सरकार का समर्थन कर रही थी। उन्होंने कहा, ‘सच्चाई को तोड़े-मरोड़े नहीं। यह सही चीज नहीं है।’
उमर ने कहा कि उस समय केवल कश्मीरी पंडित ही आतंकवाद के शिकार नहीं थे। उन्होने कहा, ‘हमें उन मुसलमानों और सिखों के संघर्ष को भी नहीं भूलना चाहिए, जिन्हें उसी बंदूक से निशाना बनाया गया था। कई मुसलमानों और सिखों ने भी कश्मीर से पलायन किया और आज तक वापस नहीं लौटे।’
पूर्व सीएम ने यह भी कहा कि कश्मीरी पंडितों का जबरन पलायन ‘अफसोसनाक था, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीरी पंडितों को सुरक्षित वापस लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की कोशिश की है और यह कोशिश अब भी जारी है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस फिल्म के निर्माता विस्थापित कश्मीरी पंडितों की वापसी चाहते हैं, वे चाहते हैं कि वे हमेशा घाटी से बाहर ही रहें।’
कुल मिलाकर उमर अब्दुल्ला ने अपने पिता फारूक अब्दुल्ला को क्लीन चिट दे दी, जो राज्यपाल शासन लागू होने से ठीक पहले मुख्यमंत्री थे। उनके 2 मिनट के बयान ने पिछले तीन दशकों से पीड़ित कश्मीरी पंडितों के दुख को, उनके दर्द को और बढ़ा दिया।
यह सच है कि 19 जनवरी 1990 को जब मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से दी जा रही धमकियों, आगजनी और हत्याओं से डरे लाखों कश्मीरी पंडित जान बचाकर भाग रहे थे, तब घाटी में राज्यपाल शासन था। जगमोहन ने कुछ देर पहले ही राज्यपाल का पद संभाला था, लेकिन क्या उन्हें पलायन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
उमर अधूरा सच बता रहे हैं। ये सही है कि घाटी में पलायन के शुरू होने के वक्त उनके पिता मुख्यमंत्री नहीं थे, लेकिन उमर पूरा सच जानते हुए भी बताना नहीं चाहते। सच ये है कि 19 जनवरी 1990 को जब मस्जिदों से ऐलान होने लगा, कश्मीरी पंडितों से घाटी छोड़ने को कहा गया, उनके घर जलाए जाने लगे, उनका कत्ल होने लगा, उससे ठीक 10 घंटे पहले तक फारूक अब्दुल्ला ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने 18 जनवरी को इस्तीफा दिया और तुरंत लंदन चले गए। 19 जनवरी को जब जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया, तब तक हिंसा शुरू हो चुकी थी। नए-नए राज्यपाल बने जगमोहन कुछ ही घंटों में क्या कर लेते? क्या जगमोहन को कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्मों के लिए जिम्मेदार ठहराना अन्याय नहीं है?
मुझे यह देखकर भी हैरानी होती है कि उमर ने कहा कि आतंकवादियों ने तो मुसलमानों को मारा और उनका भी घाटी से पलायन हुआ। जब भी कश्मीरी पंडितों की बात होती है तभी ये सवाल क्यों उठाए जाते हैं? ये कश्मीरी पंडितों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।
जब उमर कहते हैं कि उनकी पार्टी घाटी में पंडितों के पुनर्वास के लिए काम कर रही है, तो यह मुझे हास्यास्पद लगता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए 500 करोड़ रुपये की बड़ी परियोजना तैयार की थी, लेकिन उमर के पिता फारूक अब्दुल्ला इसके विरोध में थे। यहां तक कि घाटी में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए अलग से जमीन की तलाशी जा रही थी, लेकिन उमर की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस ने इसका तीखा विरोध किया था।
उमर अब्दुल्ला के आरोपों का पीएमओ में मंत्री जितेंद्र सिंह ने जवाब दिया। उन्होंने कहा, ‘जो लोग भी ऐसी बातें कह रहे हैं वे या तो इतिहास भूल गए हैं या जो हुआ था उसके बारे में उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। देश के बंटवारे के बाद से कश्मीर पर सभी बड़े फैसले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और नेशनल कॉन्फ्रेंस के चीफ शेख अब्दुल्ला ने लिए थे, और अस्सी के दशक के दौरान, कश्मीर पर सभी बड़े फैसले राजीव गांधी और फारूक अब्दुल्ला ने लिए थे। आतंकवाद के लिए ट्रिगर पॉइंट 1987 बना जब घाटी में चुनावों में धांधली हुई थी क्योंकि कांग्रेस को लगा था कि फारूक हार रहे हैं। चुनावों में धांधली के चलते हारने वाले लोग बाद में JKLF में शामिल हो गए।
जितेंद्र सिंह ने कहा, ‘जो लोग कह रहे हैं कि इस सबके पीछे बीजेपी थी, उन्हें पता होना चाहिए कि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष टीका लाल टपलू पहले ऐसे नेता थे जिनकी आतंकियों ने हत्या की थी। आतंकियों के हाथों जान गंवाने वाले दूसरे नेता बीजेपी समर्थक प्रेम नाथ भट्ट थे। आतंकियों के तीसरे शिकार जस्टिस नीलकंठ गंजू थे। क्या विपक्ष यह कहना चाहता है कि बीजेपी ने आतंकियों से कहकर अपने ही समर्थकों की हत्या करवाई?’
शुक्रवार को शहीद टीका लाल टपलू के बेटे आशुतोष टपलू ने आरोप लगाया कि फारूक अब्दुल्ला के शासन के दौरान ही कश्मीरी पंडितों की हत्याएं शुरू हुईं। उन्होंने कहा, ‘यह सब एक बड़ी साजिश का हिस्सा था। इस साजिश के तहत फारूक अब्दुल्ला इस्तीफा देने के तुरंत बाद लंदन के लिए रवाना हो गए। कश्मीरी पंडितों को तो आज बी लगता है कि फारूक को कश्मीरी पंडितों पर होने वाले हमले की पूरी जानकारी थी। शायद इसीलिए जैसे ही उन्होंने इस्तीफा दिया, उसके कुछ ही घंटे बाद कश्मीरी पंडितों की हत्याएं और पलायन शुरू हो गया।’
जम्मू-कश्मीर के पूर्व डिप्टी सीएम और बीजेपी नेता कविंद्र गुप्ता ने आरोप लगाया कि कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों के बीच नफरत की गहरी खाई 1990 में हुए पलायन से कई साल पहले खोद दी गई थी। घाटी में मुसलमानों को सियासी फायदे के लिए उकसाया गया था। शुक्रवार की रात हमारे शो ‘आज की बात’ में दिखाया कि कुछ महीने पहले ही फारूक अब्दुल्ला अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों के बीच बढ़ी नफरत की बात कर रहे थे।
अपने शो में हमने नरेंद्र मोदी की करीब 8 साल पुरानी साउंडबाइट भी दिखाई जिसमें वह कह रहे थे, ‘जम्मू कश्मीर में जिस तरह से धर्म के आधार पर पहचान करके लोगों को घर-बार छोड़कर भागने पर मजबूर किया गया, ऐसा जुल्म दुनिया में कहीं नहीं हुआ, कभी नहीं हुआ। फारूक अब्दुल्ला शीशे का सामने खड़े होकर, चेहरा देखेंगे तो उन्हें गुनाहों के दाग नजर आएंगे। फारूक के पिता (शेख अब्दुल्ला) का इसमें क्या रोल था, ये भी फारूक जानते होंगे।’
यह एक स्थापित तथ्य है कि घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम हुआ, उन्हें धमकाया गया और घाटी से भागने के लिए मजबूर किया गया। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर 1989 में घाटी में 3.35 लाख कश्मीरी पंडित रह रहे थे। अब यह आंकड़ा घटकर 3,000 से भी कम हो गया है। 1990 में जब जगमोहन को राज्यपाल नियुक्त किया गया, तब तक पंडितों को घाटी से निकालने की स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी। कश्मीरी पंडितों को न तो पुलिस पर भरोसा था, न ही प्रशासन पर और राज्यपाल भी बेबस थे।
आपातकाल के दौरान जगमोहन संजय गांधी के भरोसेमंद साथी थे, और जब राजीव गांधी 1984 में कांग्रेस के महासचिव थे, तब उन्हें 5 साल के लिए जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया। जगमोहन उस समय तक राजीव गांधी को चेतावनी दे चुके थे कि कश्मीर में एक तूफान के आसार दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है कि कैसे उन्होंने चिट्ठी लिखकर राजीव गांधी से कहा था कि आप और आपके दोस्त फारूक अब्दुल्ला पूरे मुल्क के सामने कश्मीर की झूठी तस्वीर पेश करने पर तुले हुए हैं। जगमोहन को यकीन था कि न तो राजीव और न ही फारूक ने कश्मीरी पंडितों को बचाने की कोशिश की। जब तक वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री बने, और जगमोहन को दूसरी बार राज्यपाल के रूप में भेजा गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
यदि आप जगमहोन की किताब ‘My Frozen Turbulence In Kashmir’ पढ़ेंगे तो यह जानकर कांप उठेंगे कि गवर्नर पूरी रात सो नहीं सके, क्योंकि उनके टेलीफोन की घंटी लगातार बज रही थी और कश्मीरी पंडित उनकी मदद मांग रहे थे। कई कश्मीरी पंडितों ने उन्हें फोन पर बताया कि वे काफी डरे हुए हैं और उनमें से कुछ ने उनसे कहा, ‘आज की रात हमारी आखिरी रात हो सकती है।’ इसके बाद गवर्नर के रूप में जगमोहन के पास सिर्फ एक ही रास्ता बचा था कि वह किसी तरह कश्मीरी पंडितों को घाटी से सुरक्षित निकलने में उनकी मदद करें। संक्षेप में कहें तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ इसी बारे में है कि सियासी लोग कैसे आधा-अधूरा सच दिखाकर अपनी कमियों और साजिशों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं।
The Kashmir Files: Why blame Jagmohan?
National Conference leader and former J&K chief minister Omar Abdullah on Friday made a remark which has reopened the wounds of Kashmiri Pandits who fled the Valley during the Nineties. He said the movie ‘The Kashmir Files’ was a concocted one and ‘a bundle of lies’.
Omar said, “I only want to ask the makers of this movie whether it is a documentary or a commercial film. If it is a documentary, we would believe that there may be truth to it, but the makers of the movie themselves say that it is not a documentary, but a film based on reality. The film incorrectly depicts the political scenario at the time of the exodus of Kashmiri Pandits. The truth is that when the exodus took place, Farooq Abdullah was not the chief minister. This took place during Governor Raj, and Jagmohan Saheb was Governor. V. P. Singh was in power at the Centre, and who stood behind him, the BJP.”
Omar asked why the movie did not show that the BJP was supporting the V.P.Singh regime at the Centre when the exodus took place. “It is not okay to twist it this way.”
Omar said, Kashmiri Pandits were not the only victims of terrorism at that time. “Let us not forget the sacrifices of Muslims and Sikhs who were also targeted by the same gun. Many Muslims and Sikhs also migrated from Kashmir and haven’t returned yet”, he said.
The former CM also said that while the forced migration of Kashmiri Pandits “was regrettable, National Conference has tried and continues to play its part in bringing them back safely. But I do not think the makers of this movie want the displaced Kashmiri Pandits to return, they want them to always remain outside the valley.”
In other words, Omar Abdullah has given a clean chit to his father Farooq Abdullah, who was the chief minister, immediately before Governor’s Rule was imposed. His two-minute remark has deepened the scar of Kashmiri Pandits who have been suffering for the last three decades.
It is a fact that on January 19, 1990, when lakhs of Kashmiri Pandits, scared of threats over mosque loudspeakers, arsons and killings, fled the Valley, there was Governor’s Rule in the Valley. Jagmohan had just taken over as governor, but can he be held accountable for the exodus?
Omar is speaking half-truth. It is true that his father was not the Chief Minister on the day when the exodus began, but Omar does not want to reveal the whole truth. He is not revealing that ten hours before the homes of Kashmiri Pandits were set on fire and loudspeakers blared from mosques threatening them to leave the Valley, it was Dr Farooq Abdullah, who was the chief minister on January 18, and on that day, he resigned and left for London in a huff. Jagmohan took over as Governor on January 19, and by that time killings and arson had begun. What could the new Governor do within a few hours? Is it justified to blame Jagmohan for the exodus?
I am also surprised to watch Omar saying Muslims were also killed by terrorists and Muslims had also fled the Valley. Why is this point raised whenever the issue of exodus of Pandits is raised? It is like adding salt to their wounds.
When Omar says that his party continues to work for the rehabilitation of Pandits in the Valley, I find it ridiculous. It was Prime Minister Narendra Modi who had prepared a massive Rs 500 crore project to rehabilitate Pandits, but it was Omar’s father Dr Farooq Abdullah who had then opposed it. Even the land for rehabilitating Kashmiri Pandits was identified in the Valley, but it was Omar’s party National Conference, which opposed it.
Jitendra Singh, Minister in PMO, replied to Omar Abdullah’s charges. He said, “people who give this type of arguments, either have forgotten history or they have not read about what had happened. Since Partition, all major decisions on Kashmir were taken by the then PM Jawaharlal Nehru and NC chief Sheikh Abdullah, and during the Eighties, major decisions on Kashmir were taken by Rajiv Gandhi and Farooq Abdullah. The immediate trigger for terrorism was in 1987 when elections in the Valley was rigged as Congress thought that Farooq was losing. Those who lost in that rigged election later joined JKLF.”
Jitendra Singh said, “Those who are saying that it was BJP which was behind all this, must know that the first political leader killed by terrorists in the Valley was BJP state president Tika Lal Taploo, the second politician killed was Prem Nath Bhatt, a BJP supporter, and the third was Justice Neelkanth Ganjoo. Does the opposition want to imply that we in BJP killed our own supporters?”
On Friday, martyr Tika Lal Taploo’s son Ashutosh Taploo alleged, it was during Farooq Abdullah’s rule that the killings of Kashmiri Pandits began. He said, “All this was part of a big conspiracy. As part of this conspiracy, Farooq Abdullah immediately left for London after he resigned. We Kashmiri Pandits still believe that Farooq Abdullah knew that terrorists were planning to kill us. That is why he resigned, and within hours, the killings and exodus began.”
Former J&K deputy CM and BJP leader Kavindra Gupta alleged that the deep chasm of hatred between Kashmiri Pandits and Muslims was dug several years before the exodus of 1990. Muslims in the Valley were instigated for political gains. In my show ‘Aaj Ki Baat’ on Friday night, we showed a sound bite of Farooq Abdullah speaking to his party workers a few months ago about the deep hatred between Pandits and Muslims.
In my show, we also showed an old soundbite of Narendra Modi, nearly eight years ago, when he said, “the manner in which Kashmiri Pandits were identified by their religion and forced to flee the Valley, never happened in the past anywhere in the world. Let Farooq Abdullah stand in front of a mirror. He will find the scars of sin on his face. Farooq also knows what sins his father (Sheikh Abdullah) had committed.”
It is an established fact that Kashmiri Pandits living in the Valley, were killed, threatened and forced to flee the Valley. Official statistics say that there were 3.35 lakh Kashmiri Pandits living in December, 1989 in the Valley. Now the figure has dwindled to less than 3,000. By the time Jagmohan was appointed Governor in 1990, the script for the exodus of Pandits had already been written. Kashmiri Pandits had lost faith in police and administration, and the Governor was helpless.
During Emergency, Jagmohan was a trusted aide of Sanjay Gandhi, and when Rajiv Gandhi was Congress general secretary in 1984, he was appointed Governor of J&K for five years. By that time, Jagmohan had given clear indications to Rajiv Gandhi about the approaching storm in the Valley. In his book, he mentions how he wrote a letter to Rajiv Gandhi saying he and his friend Farooq Abdullah were deliberately presenting a false picture about Kashmir before the nation. Jagmohan was convinced that neither Rajiv nor Farooq tried to save the Kashmiri Pandits. By the time V P Singh became PM, and Jagmohan was sent as Governor for the second time, it was too late.
If you read his book “My Frozen Turbulence In Kashmir”, you will be horrified to note that a Governor could not sleep the whole night, because his telephones were constantly ringing through the night, from Kashmiri Pandits seeking his help. Many Kashmiri Pandits told him on phone that they were living in a state of fear and some of them told him, ‘tonight could be our last night’. Jagmohan, as Governor, had no other options, but to arrange for the immediate transport of Kashmiri Pandits from the Valley. This, in a nutshell, of what the movie ‘The Kashmir Files’ is all about, and how politicians are trying to whitewash their follies and conspiracies, by presenting half-truths.
क्या लद्दाख सीमा पर तनाव खत्म करने पर भारत, चीन सहमत होंगे?
इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि लद्दाख सीमा पर भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच जारी 2 साल पुराना गतिरोध जल्द ही समाप्त हो सकता है। दोनों पक्ष सीमा विवाद को हल करने के काफी करीब पहुंच गए हैं और जल्द ही इसका औपचारिक ऐलान हो सकता है। इंडिया टीवी के डिफेंस एडिटर मनीष प्रसाद के मुताबिक, उनके सूत्रों ने इस बात की पुष्टि की है कि जल्द ही लद्दाख सीमा पर शांति बहाल होने और दोनों सेनाओं के बीच तनाव खत्म होने की उम्मीद है। अगर ऐसा होता है, तो यह निश्चित रूप से भारत के लिए बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत होगी।
गुरुवार की रात को अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में हमने बताया कि पिछले 2 सालों के दौरान क्या-क्या हुआ, कहां-कहां बात की गई, अब बातचीत किस स्टेज पर है, LAC पर किन-किन जगहों पर डिसएंगेजमेंट का प्रोसेस शुरू हो चुका है और इस समय क्या हालात हैं। भारत और चीन के बीच जितनी खामोशी से, जितनी शान्ति से, बातचीत के जरिए सीमा विवाद को सुलाझाने की कामयाब कोशिश हुई, ये जब सामने आएगा तो पूरी दुनिया हैरान हो जाएगी।
भारत-चीन का सीमा विवाद लगभग 60 साल पुराना है और इसके उतार-चढ़ाव का लंबा इतिहास रहा है। पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉक्टर मनमोहन सिंह तक, कोई प्रधानमंत्री इस मसले को सुलझा नहीं पाया। उन पुरानी गांठों को नरेंद्र मोदी ने कैसे खोला, ये पूरी दुनिया जानना चाहती है क्योंकि यह कोई छोटा-मोटा विवाद नहीं था।
2 साल पहले हमारे 20 बहादुर जवान गालवान घाटी में शहीद हो गए थे। दोनों तरफ की सेनाएं आमने-सामने थीं, साथ ही बख्तरबंद रेजिमेंट और फाइटर जेट्स भी तैनात कर दिए गए थे और टकराव के हालात बन रहे थे। दोनों तरफ से 60 हजार फौजी मोर्चा संभाले हुए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गतिरोध के दौरान कहा था कि भारत एक इंच भी जमीन नहीं छोड़ेगा और चीन ने भी कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था। इन सबके बावजूद न एक भी गोली चली, न जुबानी जंग हुई, बल्कि दोनों देशों की सेनाओं और राजनयिकों ने नक्शे की लकीरों को ठीक करने के लिए बातचीत का सहारा लिया।
हमारे डिफेंस एडिटर ने बताया कि सीमा विवाद के हल होने का औपचारिक ऐलान चीन के विदेश मंत्री वांग यी के भारत दौरे के वक्त हो सकता है। चीन के विदेश मंत्री के इसी महीने भारत आने की खबर है। हालांकि सरकार ने अभी तक उनके दौरे की तारीखों की पुष्टि नहीं की है।
लद्दाख में अभी क्या हालात हैं? वहां कई फ्रिक्शन पॉइंट तो ऐसे थे जहां भारत और चीन के सैनिक आमने-सामने हैं और दोनों के बीच बस कुछ सौ मीटर का फासला था। दोनों देशों के बीच अभी तक 15 दौर की बातचीत हो चुकी है। आखिरी दौर की बातचीत 11 मार्च को हुई थी, और उसी वक्त चीनी अधिकारियों के रुख में बदलाव के साफ संकेत मिले थे। ऐसा लगता है कि अब दोनों पक्ष विवाद को खत्म करने पर सहमत हो गए हैं। भारतीय सेना के पूर्व अधिकारी, जो स्थिति पर कड़ी नजर रख रहे थे, अब इस गतिरोध के जल्द खत्म होने की उम्मीद जता रहे हैं।
डेपसांग, डेमचोक, चुमार, हॉट स्प्रिंग्स, पैंगॉन्ग सो, गलवान घाटी और गोगरा, इनमें से टकराव के 3 बड़े पॉइंट पर तनाव अभी भी बरकरार है। हॉट स्प्रिंग्स, जिसे पट्रोलिंग पॉइंट 15 भी कहते हैं, यहां विवाद कम है। जुलाई 2020 में दोनों देश हॉट स्प्रिंग्स से अपनी सेनाएं पीछे हटाने को तैयार हो गए थे, लेकिन बाद में चीन ने वापसी की प्रक्रिया को रोक दिया था। अब हॉट स्प्रिंग्स से सैनिकों की वापसी शुरू हो सकती है।
भारत-चीन के बीच लद्दाख में तनाव का दूसरा बड़ा इलाका है डेमचोक। इस जगह पर तो तनाव 1990 से है। समझौते की कई कोशिशें भी हुईं, मगर अब लगता है कि 32 साल के बाद तनाव खत्म करने में कामयाबी मिल सकती है। भारत और चीन के बीच सबसे बड़ा फ्रिक्शन पॉइंट डेपसांग में है। चीन ने इस इलाके में हमारे सैनिकों को गश्त करने से रोक दिया था, जिसके जबाव में हमारी सेना ने चीन के कुछ पट्रोलिंग पॉइंट बंद कर दिए।
डेपसांग प्लेन का इलाका रणनीतिक तौर पर भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यहीं से होकर भारत की डारबुक-श्योक और दौलत बेग ओल्डी की सड़क जाती है। इसे DS-DBO रोड कहा जाता है। ये दौलत बेग ओल्डी में भारत की सबसे ऊंची एयरस्ट्रिप तक जाने का रास्ता है। चीन को डर है कि दौलत बेग ओल्डी से भारत CPEC (चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर) और तिब्बत से शिंजियांग जाने वाले हाइवे को काट सकता है। लेकिन अगर इस इलाके में चीन मजबूत स्थिति में रहता है तो हमारे लिए सियाचिन ग्लेशियर तक पहुंचने में दिक्कत हो सकती है। डेपसांग के अलावा चुमार भी भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण रणनीतिक इलाका है, जहां विवाद का हल होना जरूरी है।
भारत ने चीन की आक्रामकता के खिलाफ बहुत ही सख़्त रवैया अपनाया हुआ है और अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं पूरी सैन्य शक्ति के साथ चीन को जवाब दिया है। भारत ने बार-बार कहा है कि सीमा के इस विवाद का हल निष्पक्ष और बराबरी का होना चाहिए। गलवान घाटी में हिंसक झड़प के बाद, सबसे पहले दोनों देशों के सैनिकों की गलवान के मोर्चे से वापसी हुई थी। इसके बाद फरवरी 2021 में दोनों देशों ने पैंगॉन्ग झील के उत्तरी और दक्षिणी किनारों से अपनी सेनाएं पीछे हटाई थीं। आखिरी बार पिछले साल 4 और 5 अगस्त को गोगरा में दोनों देशों ने अपने-अपने सैनिक पीछे हटाए थे।
लद्दाख में इस वक्त जमीनी हालात कैसे हैं? हमारे डिफेंस एडिटर ने बताया, पट्रोल प्वाइंट 14 पर चीन की सेना डेढ़ किलोमीटर पीछे गई है, और भारत भी इतना ही पीछे हटा है। इस वक्त दोनों देशों के सैनिकों के बीच 3 किलोमीटर का फासला है। पट्रोलिंग पॉइंट 15 पर दोनों ही देशों ने छोटी बटालियन तैनात कर रखी हैं। ये हॉट स्प्रिंग्स का इलाका है, जिसके बारे में दावा किया जा रहा है कि दोनों देश डिसएंगेजमेंट पर राजी हो गए हैं। इसी तरह पट्रोलिंग पॉइंट 17A पर दोनों देशों की सेनाएं पीछे हट चुकी हैं, और वापसी की प्रक्रिया पूरी हो गई है। इस समय सबसे ज्यादा टेंशन डेपसांग में है, जहां हमारी सेना पट्रोलिंग नहीं कर पा रही है और भारतीय जवानों ने भी चीनी सैनिकों के गश्त के रास्ते को रोक रखा है।
चूंकि बातचीत अंतिम दौर में है, औपचारिक ऐलान नहीं हुआ है, इसलिए ये एक संवदेशनशील समय है। डिफेंस एक्सपर्ट्स का कहना है कि इस वक्त राजनीतिक बयानबाजी, अफवाहों और अटकलों से बचना चाहिए क्योंकि इसका बातचीत पर बुरा असर हो सकता है। लेकिन हमारे यहां AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता हैं, जो अटकलबाजी कर रहे हैं।
ओवैसी ने ट्वीट किया, ‘चीन दावा कर रहा है कि लद्दाख में हॉट स्प्रिंग्स में भारत के साथ सब कुछ पहले ही सुलझा लिया गया है। क्या सरकार कृपया पुष्टि करेगी कि यह सच है? यदि ऐसा है, तो अंतिम 2 दौर की सीमा वार्ता किस बारे में थी?’
ज्यादातर एक्सपर्ट्स ने इस बात की उम्मीद छोड़ दी थी कि भारत और चीन के बीच बातचीत से रास्ता निकल आएगा। तमाम एक्सपर्ट्स तो ये भी मान रहे थे कि यूक्रेन-रूस जंग का फायदा उठाकर चीन, भारत के साथ और तनाव पैदा करने, और जिन इलाकों पर विवाद है, वहां कब्जा करने की कोशिश कर सकता है। लेकिन मुश्किल के इस वक्त में नरेन्द्र मोदी की रणनीति, स्वतंत्र विदेश नीति और दृढ़ इच्छाशक्ति काम आई।
चीन के साथ तनाव का एक मुख्य कारण भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों में सुधार था। चीन को लग रहा था कि भारत अमेरिका से हथियार खरीदकर उसके खेमे में जा रहा है, और क्वॉड का सदस्य बनकर, जो कि अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और ऑस्ट्रेलिया का एक समूह है, एक नई विश्व व्यवस्था में शामिल हो रहा है। चीनी नेतृत्व को डर था कि भारत समेत ये चारों देश उनके देश के खिलाफ गैंग बना रहे हैं। लेकिन जब रूस की सेना ने यूक्रेन पर हमला किया और बमबारी की, तो भारत ने एक स्वतंत्र रुख अपनाया, और चीन की तरह ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ मतदान से परहेज किया।
चीन ने इस बात पर गौर किया कि भारत अमेरिका के दबाव के आगे नहीं झुका। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यह भी देखा कि भारत ने अमेरिका के दबाव में रूस के साथ अपना एस-400 मिसाइल सौदा रद्द नहीं किया। चीन की सरकार ने यह बात भी नोट की कि अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद, भारत ने रूस से 35 लाख टन कच्चा तेल खरीदने का विकल्प चुना। इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी के फैसलों ने चीन की सरकार को स्पष्ट संकेत दिया कि भारत एक स्वतंत्र नीति अपनाएगा, और न तो वह अमेरिकी दबाव के आगे झुकेगा और न ही आंख मूंदकर रूस के साथ जाएगा। इसी का नतीजा है कि चीन ने लद्दाख सीमा विवाद के मुद्दे पर अपना रुख नरम करने का फैसला किया। अब हमें खुशखबरी का इंतजार करना चाहिए।
Ladakh: Will India, China agree to end the border standoff?
There are clear indications that the two-year-old standoff between Indian and Chinese armies on the Ladakh border may end soon. Both sides have almost reached a solution and an official announcement may be made shortly. According to India TV Defence Editor Manish Prasad, his sources have confirmed that peace will return to Ladakh border soon and tension between both armies may come to an end. If this happens, it will surely be a big diplomatic success for India.
In my prime time show ‘Aaj Ki Baat’ on Thursday night, we gave details about what happened during the last two years, at what levels talks took place, from which friction points on Line of Actual Control has the disengagement process started and what is the current situation. The world will sit up and take notice when details will emerge on how officials of both countries sat together, had several rounds of talks, quietly and secretly, and brought peace to the border.
The 60-year-old India-China border dispute has a long history of ups and downs. Prime Ministers from Pandit Jawaharlal Nehru to Dr Manmohan Singh could not solve it, and the world wants to know how Narendra Modi has tried to iron out the differences.
Twenty of our brave jawans were martyred in Galwan Valley two years ago and both the armies had come close to a confrontation sending armoured regiments and fighter planes as part of mirror deployment. There are more than 60,000 troops deployed on both sides. Prime Minister Modi had said during the standoff that India will not yield an inch of territory and China, too, had taken a tough stance. Not a single bullet was fired, nor was there a war of words, but both the armies and diplomats sat at tables to iron out the differences on maps.
Our Defence Editor says that a formal announcement may be made during Chinese Foreign Minister Wang Yi’s proposed India visit. This visit can take place anytime during this month. The government is yet to confirm the dates of his visit.
What is the present situation in Ladakh? There were several friction points where troops from both sides stood several hundred metres apart. Already 15 rounds of talks have taken place. The last round of talks took place on March 11. During the last round, there were clear indications of change in the stance of Chinese officials. It appears as if both sides have decided to put an end to the standoff. Former Indian army officers, who have been keeping a close watch on the situation, now aver that the standoff may end soon.
Among the friction points in Depsang, Chumar valley, Hot Springs, Pangong Tso, Galwan Valley and Gogra, tension remains at three major points. At Patrolling Point 15 in Hot Springs, both sides had agreed on disengagement in July, 2020, but later the Chinese side halted the disengagement process. Now, there is a possibility of a disengagement taking place here.
The other major point of friction was in Demchok, where tension had been prevailing since 1990. There were many rounds of talks, but now, it appears that the disengagement process may also take place here. The biggest point of friction was in Depsang, where Chinese side had stopped our troops from patrolling, and, in return, our troops stopped Chinese soldiers from moving at some other patrolling points.
Strategically, Depsang plain is an important location, because the strategic road linking Daulat Beg Oldie post with Darbuk-Shyok passes through here. It is called the DS-DBO road. The road links Daulat Beg Oldie post with India’s highest airstrip. The Chinese army fears that from Daulat Beg Oldie, India can cut off the CPEC (China-Pakistan Economic Corridor) and the highway that links Xinjiang to Tibet. If China acquires domination in this area, India’s access to Siachen glacier could be cut off. Along with Depsang, India needs to remove friction in Chumar Valley too, as it is also a strategic area.
India’s aggressive stand on the Ladakh border standoff, coupled with strong political will and deployment of full military strength, may now be yielding dividends. It has been India’s consistent stand that the solution to this standoff must be fair and equitable. After the bloody confrontation in Galwan valley, both sides disengaged at that friction point soon after. In February, 2021, both armies had disengaged from north and south banks of Pangong Lake. The last disengagement from both sides in Gogra had taken place on August 4 and 5 last year.
What is the ground situation in Ladakh now? Our Defence Editor says, both the Indian and Chinese troops have withdrawn by 1.5 kilometre at Patrolling Point 14. There is now a three kilometre wide gap between the two armies there. At Patrolling Point 15 in Hot Springs, both armies have deployed small battalions, and if reports are to be believed, both sides have agreed to a disengagement process here. At Patrolling Point 17A, both armies have already disengaged. The point where there is tension currently, is in Depsang, where our troops are unable to patrol and in retaliation, our troops have prevented Chinese from patrolling too.
Since the talks on complete disengagement is now in final stage and there has been no official announcement, the issue is now sensitive. Defence experts say, leaders and opinion makers must avoid giving political statements and refrain from indulging in speculations, because it can stall negotiations. But there are leaders like AIMIM chief Asaduddin Owaisi, who are giving speculative statements.
Owaisi tweeted: “China is claiming that everything is already resolved with India in Hot Springs in Ladakh. Will the government please confirm whether this is true? If that is so, what were the last two rounds of border talks about?”
At a time when many experts had lost hopes about a reconciliation on Ladakh border standoff, and some experts had gone to the extent of predicting that China may try to create fresh tension with India taking advantage of the world’s preoccupation with Russia-Ukraine war, Prime Minister Narendra Modi’s strong political will, independent foreign policy and well-crafted strategy is now yielding dividends.
One main reason behind China’s soured relations with India, was its perception that India was aligning with the American camp by buying arms from the US, and joining the new world order by becoming a member of Quad, a grouping of USA, Japan, Australia and India. The Chinese leadership feared that these four countries, including India, were ganging up against their country. But when Russian forces invaded and bombed Ukraine, India took an independent stand, and like China, abstained from voting against Russia in the UN Security Council.
China noted that India did not bow to American pressure. Chinese President Xi Jinping also noted that India did not cancel its S-400 missile deal with Russia under US pressure. The Chinese leadership also noted that despite US sanctions, India opted to buy 35 lakh tonnes of crude oil from Russia. Prime Minister Modi’s decisions on these vital issues gave clear signals to the Chinese leadership that India will pursue an independent policy, that it will neither bow to American pressure nor blindly follow Russia. China then decided to soften its stance on the Ladakh border standoff issue. Let us wait for the good news to come.
चुनावों में हार: कांग्रेस अब सामूहिक निर्णय वाले रास्ते पर चले
ग्रुप ऑफ 23 (जी-23) के नाम से मशहूर कांग्रेस पार्टी के असंतुष्ट नेताओं की बुधवार को गुलाम नबी आजाद के घर पर दिल्ली में बैठक हुई। इस बैठक में इन नेताओं ने कहा कि 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन के कारण पैदा हुए वर्तमान संकट से आगे बढ़ने का यही रास्ता है कि सामूहिक और समावेशी नेतृत्व की व्यवस्था हो।
बैठक के बाद एक बयान जारी किया गया, इसमें कहा गया : ‘कांग्रेस पार्टी के हम सभी सदस्यों ने विधानसभा चुनावों में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन तथा नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा पार्टी छोड़ने से उत्पन्न स्थिति पर विचार विमर्श किया। हमारा मानना है कि कांग्रेस के लिए आगे बढ़ने का यही तरीका है कि सामूहिक और समावेशी नेतृत्व की व्यवस्था अपनाई जाए और हर स्तर पर निर्णय लेने का प्रबंध हो। भाजपा का विरोध करने के लिए जरूरी है कि कांग्रेस पार्टी को मजबूत किया जाए। हम मांग करते हैं कि कांग्रेस समान विचारधारा वाली सभी ताकतों के साथ संवाद की शुरुआत करे ताकि 2024 के लिए विश्वसनीय विकल्प पेश करने के लिए एक मंच बन सके। इस संबंध में अगले कदमों की घोषणा जल्द की जाएगी।’
इस बयान पर गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, पृथ्वीराज चव्हाण, मनीष तिवारी, भूपिंदर सिंह हुड्डा, अखिलेश प्रसाद सिंह, राज बब्बर, शंकर सिंह वाघेला, मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर, पीजे कुरियन, एमए खान, राजिंदर कौर भट्टल, संदीप दीक्षित, कुलदीप शर्मा, विवेक तन्खा और परनीत कौर ने साइन किया। इनमें मणिशंकर अय्यर और शशि थरूर दशकों से गांधी परिवार के वफादार रहे हैं, लेकिन अब ये भी बगावती तेवर वाले नेताओं में शामिल हो गए हैं।
मैं तो गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल और भूपेन्द्र सिंह हुड्डा जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के सब्र की दाद देता हूं कि कांग्रेस के एक के बाद एक चुनाव हारते जाने के बावजूद उन्होंने आलाकमान के खिलाफ बगावत नहीं की। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे नेताओं ने थक हारकर कांग्रेस छोड़ दी, लेकिन इन नेताओं को उम्मीद है कि कांग्रेस को अब भी फिर से खड़ा किया जा सकता है।
इन नेताओं को यह भी पता है कि उनके कुछ कहने या न कहने से सोनिया गांधी को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह किसी भी तरह से राहुल गांधी को अपनी विरासत सौंपना चाहती हैं, और उन्हें कांग्रेस का अगला अध्यक्ष बनाना चाहती हैं। न सोनिया गांधी को, न राहुल गांधी को और न ही प्रियंका को ये लगता है कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार उनकी वजह से हुई।
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी ने कहा था कि वह और उनका परिवार पार्टी को मजबूत करने के लिए ‘किसी भी बलिदान के लिए तैयार’ है, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, लगभग 5 घंटे के विचार-विमर्श के बाद, कार्य समिति ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में एक बार फिर अपना विश्वास जताया और माना कि ‘रणनीति में कमियां’ थीं। बजट सत्र के बाद एक और ‘चिंतन शिविर’ आयोजित करने का निर्णय लिया गया। CWC ने सोनिया गांधी को ‘राजनीतिक परिवर्तनों को पूरा करने के लिए संगठन में व्यापक बदलाव’ करने के लिए अधिकृत किया। इसके एक दिन बाद, सोनिया गांधी ने उन पांच राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों के इस्तीफे मांग लिए जहां हाल ही में चुनाव हुए थे।
अब कांग्रेस नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है। पंजाब के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने कहा, पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ‘एक बोझ थे जिनके लालच ने पार्टी को डूबो दिया।’ अंबिका सोनी का नाम लिए बिना जाखड़ ने ट्वीट किया: ‘ चन्नी एक एसैट हैं – क्या (आप) मजाक कर रहे हैं? भगवान का शुक्र है कि उन्हें CWC में पंजाब की उस महिला ने ‘नेशनल ट्रेजर’ घोषित नहीं किया, जिन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। उनके लिए वह एक एसैट हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए वह केवल एक बोझ हैं। शीर्ष पदाधिकारियों ने नहीं, बल्कि उनके अपने लालच ने उन्हें और पार्टी को नीचे ला दिया।’ जाखड़ ने अपने ट्वीट के साथ चन्नी की एक तस्वीर पोस्ट की, जिसमें लिखा था, ‘ईडी ने चन्नी के भतीजे से 10 करोड़ रुपये जब्त किए, सीएम ने साजिश की बात कही।’
उत्तराखंड में, कांग्रेस के एक नेता रंजीत रावत ने आरोप लगाया कि हरीश रावत ने टिकट के लिए लोगों से पैसे लिए और अब वे अपना पैसा वापस पाने के लिए उन्हें खोज रहे हैं। इन आरोपों पर हरीश रावत ने तुरंत जवाब दिया और आलाकमान से कहा कि वह उन्हें पार्टी से निकाल दें। हरीश रावत ने ट्वीट किया: ‘टिकट और पद बेचने के आरोप बहुत गंभीर हैं, और यदि ये आरोप एक ऐसे व्यक्ति पर लगाये जा रहे हों, जो मुख्यमंत्री रहा है, जो पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष रहा है, जो पार्टी का महासचिव रहा है और कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य है, तो उसे निष्कासित किया जाना चाहिए।’
कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि सोनिया गांधी या राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर जो भी व्यक्ति सवाल करता है, उसे पार्टी विरोधी या बीजेपी का एजेंट घोषित कर दिया जाता है। कांग्रेस के सीनियर नेता कपिल सिब्बल ने यही गलती की थी। उन्होंने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था, ‘आज कम से कम मैं ‘सब की कांग्रेस’ चाहता हूं, लेकिन कुछ लोग हैं जो ‘घर की कांग्रेस’ चाहते हैं। मैं निश्चित रूप से ‘घर की कांग्रेस’ नहीं चाहता मैं अपनी आखिरी सांस तक ‘सब की कांग्रेस’ के लिए संघर्ष करूंगा।’
इसके तुरंत बाद कपिल सिब्बल को मल्लिकार्जुन खड़गे, अधीर रंजन चौधरी और अशोक गहलोत जैसे कांग्रेस नेताओं के हमले झेलने पड़े। लेकिन कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, मनीष तिवारी, भूपिंदर सिंह हुड्डा, पृथ्वीराज चव्हाण, मणिशंकर अय्यर, शंकर सिंह वाघेला और पीजे कुरियन जैसे नेता राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं और उन्हें पता है कि कब क्या करना चाहिए। यही वजह है कि बुधवार की रात गुलाम नबी आजाद के घर हुई जी-23 नेताओं की बैठक से कांग्रेस में बेचैनी थी।
जब मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेता कहते हैं कि 5 राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों के इस्तीफे पार्टी की कमजोरियों को दूर करने के लिए लिए गए हैं, तो कहने वाले ये भी कह रहे हैं कि इस वक्त पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी तो राहुल गांधी हैं, फिर उनकी जिम्मेदारी क्यों नहीं तय की जा रही? पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू का तो समझ में आता है कि उनके और चरणजीत चन्नी के बीच चले कोल्ड वॉर से कांग्रेस को नुकसान हुआ, लेकिन सिद्धू को शह किसने दी? राहुल और प्रियंका ने ही सिद्धू को कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ हथियार बनाया और अब जब हार हो गई है तो सिद्धू को किनारे लगाने के लिए ‘यूज एंड थ्रो’ की पॉलिसी अपना ली।
खैर, सिद्धू का इस्तीफा तो फिर भी समझ आता है, लेकिन उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू की क्या गलती थी? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सारा काम तो प्रियंका गांधी ही देख रही थीं, अजय कुमार लल्लू तो बस नाम के अध्यक्ष थे। इसी तरह उत्तराखंड में गणेश गोदियाल से तो इस्तीफा ले लिया गया, लेकिन अभी हरीश रावत की जिम्मेदारी तय नहीं की गई, जो कांग्रेस के कैंपेन की अगुवाई कर रहे थे और अपनी सीट भी हार गए।
साफ शब्दों में कहें तो कांग्रेस आलाकमान ने प्रदेश अध्यक्षों को बलि का बकरा बना दिया। अब लोग खुलेआम पूछ रहे हैं कि सिद्धू को पार्टी में कौन लाया, किसने उन्हें आगे बढ़ाया और किसने सिद्धू के ऊपर चन्नी को बिठाया? उत्तराखंड में हरीश रावत को किसने जिम्मेदारी दी? लिस्ट जारी होने के बाद उम्मीदवार क्या गणेश गोंडियाल ने बदले थे? उत्तर प्रदेश में क्या कमान अजय सिंह लल्लू के हाथ में थी या प्रियंका गांधी के हाथ में थी?
ये कुछ ऐसे कठिन सवाल हैं जिनका सामना कांग्रेस आलाकमान के प्रभारी, गांधी परिवार को करना होगा। ये जितनी जल्दी हो, उतना ही बेहतर रहेगा।
Congress electoral debacle: Time for collective decision making
Dissident leaders of Congress party, said to be part of G-23 (Group of 23) on Wednesday night met in Ghulam Nabi Azad’s Delhi residence, and demanded that there should be “collective and inclusive decision-making” in the party to overcome the present crisis caused by the dismal show of the party in the five state assembly elections.
A statement was issued after the meeting, which read: “We, the following members of Congress party met to deliberate on the demoralising outcome of the recent results of Assembly elections and the constant exodus of both our workers and leaders. We believe that the only way forward for the Congress is to adopt the model of collective and inclusive leadership and decision making at all levels. In order to oppose the BJP, it is necessary to strengthen the Congress party. We demand the Congress party to initiate dialogue with other like-minded forces to create a platform to pave the way for a credible alternative to 2024. The next steps in this regard will be announced soon.”
The statement was signed by Ghulam Nabi Azad, Anand Sharma, Kapil Sibal, Prithviraj Chavan, Manish Tewari, Bhupinder Singh Hooda, Akhilesh Prasad Singh, Raj Babbar, Shanker Singh Vaghela, Mani Shankar Aiyar, Shashi Tharoor, P. J. Kurien, M.A. Khan, Rajinder Kaur Bhattal, Sandeep Dixit, Kuldeep Sharma, Vivek Tankha and Preneet Kaur. Among them, Mani Shankar Aiyar and Shashi Tharoor had been loyalists of Gandhi family for decades, but have now joined the dissident camp.
I am amazed at the infinite patience of senior Congress leaders like Ghulam Nabi Azad, Kapil Sibal and Bhupendra Singh Hooda, who despite recurring electoral defeats faced by the party, have not yet revolted against the leadership. These veteran leaders have been witness to the exodus of leaders like Jyotiraditya Scindia, R. P. N. Singh, Capt. Amarinder Singh and Jitin Prasad from the party, and yet, they are still hopeful about the Congress becoming strong again.
These senior leaders also know that it matters the least to Sonia Gandhi what these dissident leaders say or do not say in public. She has already made up her mind to hand over the mantle of leadership to her son Rahul Gandhi and anoint him as the next party president. Neither Sonia nor Rahul and Priyanka believe that the party lost the assembly elections because of the family.
At the Congress Working Committee meeting, Sonia Gandhi had said, she and her family were “ready to make any sacrifice” to strengthen the party, but, as has become routine, the CWC, after nearly five hours of deliberations, reaffirmed its faith in Sonia Gandhi’s leadership, and admitted there were “shortcomings in strategy”. It was decided to hold another ‘chintan shivir’ (introspection camp) after the Budget session. The CWC authorized Sonia Gandhi to make “comprehensive organisational changes to meet political changes.” A day later, Sonia Gandhi sought the resignations of PCC chiefs of all five states which went to elections.
Already the gloves are off and the blame game has begun among Congress leaders. Former Punjab PCC chief Sunil Jakhar said, former CM Charanjit Singh Channi “was a liability whose greed pulled the party down. Without naming Ambika Soni, Jakhar tweeted: “An asset – r u joking? Thank God, he wasn’t declared a national treasure at CWC by the ‘Pbi’ lady who proposed him as CM in first place. May be an asset for her but for the party he has only been a liability, but his own greed pulled him and the party down.” Jakhar posted a photograph of Channi with his tweet, which read, “ED seizes Rs 10 crore from Channi’s nephew, CM cries foul”.
In Uttarakhand, a Congress leader Ranjeet Rawat alleged that the party’s chief ministerial face Harish Rawat took money from ticket aspirants and now they are searching for him to get their money back. Harish Rawat promptly responded, by asking the party high command to expel him. Harish Rawat tweeted: “Accusations of selling tickets and posts are very serious, and if those are being made against a person, who has been a chief minister, regional party chief, general secretary of the party and member of Congress working committee, then he should be expelled.”
The problem with the Congress leadership is that it becomes very touchy if any one questions the leadership capability of Sonia or Rahul Gandhi. Such leaders are promptly labelled as ‘BJP agent’ or ‘anti-party’. Senior Congress leader Kapil Sibal had in a recent interview said, “Today at least I want ‘sab ki Congress’, but there are some others who want a ‘ghar ki Congress’. I certainly don’t want a ‘ghar ki Congress’. I will fight for a ‘sab ki Congress’ till my last breath.”
Soon after, other leaders like Mallikarjun Khadge, Adhir Ranjan Choudhury and Ashok Gehlot lashed out at Sibal. But one must realize that leaders like Kapil Sibal, Ghulam Nabi Azad, Manish Tewari, Bhupinder Singh Hooda, Prithviraj Chavan, Mani Shankar Aiyar, Shanker Singh Vaghela and P. J. Kurien are experienced leaders and they know when to make a move. Naturally, the Congress leadership was worried when the meeting of G-23 leaders took place on Wednesday night.
When leaders like Mallikarjuna Kharge say that the resignations from 5 PCC chiefs were taken to find out the weaknesses in the party, there are questions being raised, like Rahul Gandhi is one of the major weakness of the party, why is his accountability not being fixed? One can understand that the party lost in Punjab due to infighting between Channi and Navjot Singh Sidhu, but who promoted Sidhu in the first place? Both Rahul and Priyanka used Navjot Sidhu as a weapon in order to dislodge Capt. Amarinder Singh, and now that the debacle has happened, they are following a “use and throw” policy to discard Sidhu.
I can understand Sidhu’s resignation, but what about UP Congress chief Ajay Kumar Lallu? He was PCC chief in name only, and the entire party machinery was reporting to Priyanka Gandhi. Similarly, Uttarakhand PCC chief Ganesh Godiyal had to resign, but it was Harish Rawat who was running the show in the state as the chief ministerial face.
To put it bluntly: Congress leadership is trying to make the PCC chiefs as scapegoats (bali ka bakraa). People are now openly asking, who brought Sidhu as PCC chief, and who decided to project Channi as the chief ministerial place instead of Sidhu? Who entrusted all responsibility in Uttarakhand to Harish Rawat? Was the party command in UP in the hands of Ajay Kumar Lallu or Priyanka Gandhi?
These are tough questions which the Gandhi family, in charge of Congress high command, will have to face. The sooner, the better.
हिजाब पर फैसला: कर्नाटक हाईकोर्ट ने अस्थिरता फैलाने वाली ‘अदृश्य ताकतों’ पर क्या कहा
कर्नाटक हाईकोर्ट की तीन जजों की फुल बेंच ने मंगलवार को अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि हिजाब इस्लाम का जरूरी हिस्सा नहीं है, यह कोई अनिवार्य मजहबी लिबास नहीं है। हिजाब से जुड़ी सारी याचिकाओं को खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाने के राज्य सरकार के आदेश को बरकरार रखा।
चीफ जस्टिस ऋतुराज अवस्थी, जस्टिस कृष्णा एम दीक्षित और जस्टिस ज़ैबुन्निसा मोहिउद्दीन क़ाजी की तीन-सदस्यीय फुल बेंच ने अपने 129 पन्नों के आदेश में उन याचिकाओं को खारिज कर दिया जिसमें यह कहा गया था कि शैक्षणिक संस्थाओं में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 15 (आस्था को लेकर कोई भेदभाव नहीं), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) और अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) के तहत मिले अधिकारों का उल्लंघन है।
हाईकोर्ट ने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि हिजाब पहनने की कथित प्रथा का पालन नहीं किया जाता है, जो हिजाब नहीं पहनते वे पापी बन जाते हैं, ऐसा भी नहीं है कि इस्लाम अपना गौरव खो देता है और यह एक धर्म नहीं रह जाता है। याचिकाकर्ता इस संबंध में अपनी दलील और सबूत देने में पूरी तरह से विफल रहे हैं। वे यह साबित नहीं कर पाए कि इस्लाम में हिजाब पहनना एक ऐसी धार्मिक प्रथा है जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता और यह एक ‘अनिवार्य धर्मिक प्रथा’ है।’
हाईकोर्ट ने कहा, स्कूल की तरफ से ड्रेस का निर्धारण करना ‘संवैधानिक रूप से स्वीकार किया गया एक उचित प्रतिबंध है, जिसपर छात्र आपत्ति नहीं कर सकते… (अगर हिजाब की इजाजत दी गई तो) फिर तो स्कूल की ड्रेस समान नहीं रहेगी। इससे सामाजिक तौर पर अलगाव की भावना पैदा होगी जो कि नहीं होना चाहिए। सभी अधिकारों को उसकी प्रासंगिक परिस्थितियों के मुताबिक देखा जाना चाहिए। स्कूल ‘योग्य सार्वजनिक स्थान हैं’… (जो ) अपने स्वभाव से ही सामान्य अनुशासन और मर्यादा के नुकसान को बचाने के लिए व्यक्तिगत अधिकारों के दावे को खारिज करते हैं।’
अपने फैसले में हाईकोर्ट ने कहा, ‘शायद ही यह तर्क दिया जा सकता है कि हिजाब एक परिधान या पोशाक का मामला है, इसे इस्लामी आस्था के लिए मौलिक माना जा सकता है…. धर्म जो भी हो, शास्त्रों में जो कुछ भी कहा गया हो, यह पूरी तरह से अनिवार्य नहीं हो जाता है। इसी तरह से अनिवार्य धार्मिक प्रथा की अवधारणा गढ़ी गई है।’
हाईकोर्ट ने कहा, ‘अगर तार्किक रूप से धर्म के लिए सब कुछ अनिवार्य होता तो इस तरह की अवधारणा जन्म नहीं लेती। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने शायरा बानो मामले में इस्लाम में तीन तलाक की 1,400 साल पुरानी दुखदाई प्रथा को बैन किया। हाईकोर्ट ने कहा कि कुरान में बताई गई बातों को हदीस द्वारा एक जरूरी आदेश में नहीं बदला जा सकता, जिसे कुरान का पूरक माना जाता है।’
हाईकोर्ट की बेंच ने कहा, ‘याचिकाकर्ताओं द्वारा जिस सूरा का उल्लेख किया गया था उसके निहितार्थ को समझाते हुए किसी भी मौलाना द्वारा अदालत के सामने कोई हलफनामा नहीं रखा गया, और इस बात का भी उल्लेख नहीं किया गया था कि याचिकाकर्ता कितने समय से हिजाब पहन रहे थे।’
कर्नाटक हाईकोर्ट ने तीन बुनियादी सवालों पर अपना फ़ैसला सुनाया। पहला तो ये कि हिजाब, इस्लाम का जरूरी हिस्सा है या नहीं? दूसरा ये कि क्या सरकार और स्कूल कॉलेज को ड्रेस कोड तय करने का हक़ है या नहीं? और तीसरा क्या ड्रेस कोड लागू करना छात्रों के संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ हैं?
कोर्ट ने हिजाब को लेकर तस्वीर बिल्कुल साफ़ कर दी। कोर्ट ने कहा कि हिजाब, इस्लाम का बुनियादी हिस्सा बिल्कुल नहीं है। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि हिजाब एक पर्दा है जिसे मुस्लिम महिलाएं आम तौर पर पहनती हैं। हिजाब शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द हजाबा है, जिसका मतलब होता है ‘छिपाना’ । इस हिसाब से हिजाब का मतलब हुआ पर्दा या दीवार। हिजाब का इस्तेमाल आमतौर पर महिलाएं सार्वजनिक रूप से दूसरों से अपना चेहरा छिपाने के लिए करती हैं।
तीन जजों की बेंच ने पूरी स्टडी और रिसर्च के बाद फैसला दिया। हाईकोर्ट ने कहा कि कुरान में हिजाब शब्द का ज़िक्र ही नहीं है। हालांकि कुछ मुस्लिम विद्वानों ने अपनी किताबों में इसका इस्तेमाल ज़रूर किया है। जैसे इस्लामिक क़ानून के जानकार अब्दुल्लाह यूसुफ़ अली ने कुरान की व्याख्या वाली अपनी किताब में जिलबाब का ज़िक्र किया है जो एक तरह से बाहरी पोशाक या लंबा गाउन या चोगा है, जो या तो पूरे शरीर को या फिर गर्दन से सीने तक को ढकने में काम आता है। अब्दुल्ला यूसुफ़ अली ने अपनी किताब में यह भी लिखा है कि पैगंबर हज़रत मुहम्मद के घर में भी हिजाब या पर्दे का इस्तेमाल उनके निधन से पांच या छह साल पहले ही शुरू हुआ था। उससे पहले पर्दा करना अनिवार्य नहीं था।
प्रगतिशील इस्लामी विद्वान इस मत से सहमत हैं। कुछ दिन पहले केरल के गवर्नर आरिफ मोहम्मद खान इंडिया टीवी स्टूडियो आए थे और एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा, कुरान में हिजाब का जिक्र नहीं है। खान ने कहा, मध्य युग में मुस्लिम महिलाओं को महिला दासियों से अलग करने के लिए अरब देशों में हिजाब या पर्दे का इस्तेमाल शुरू हुआ। उन्होंने कहा कि इसका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है।
मैंने कोर्ट के 129 पेज के आदेश को विस्तार से पढ़ा है। कोर्ट ने फ़ैसले के पेज नंबर 86 में लिखा है कि याचिकाकर्ताओं ने एक गंभीर मामले को उठाया मगर इसे साबित करने के लिए कोई तर्क नहीं दिए। कुरान का हवाला तो दिया मगर अपनी बात को सही साबित करने के लिए किसी मौलाना का हलफ़नामा तक नहीं दिया जो यह कहे कि याचिकाकर्ताओं की बात इस्लामिक क़ानून के हिसाब से सही है। हाईकोर्ट आदेश के पेज नंबर 87 में लिखा है कि हिजाब सिर्फ़ पहनावे का मामला है और यह इस्लाम मानने की बुनियादी शर्त नहीं है । कोर्ट ने तमाम मुस्लिम विद्वानों की धार्मिक किताबों का जिक्र किया लेकिन बहुत से मौलाना यह मानने को तैयार नहीं हैं। वह ये भी नहीं बताते कि कुरान में कहां लिखा है कि हिजाब जरूरी है। बस इतना कहते हैं कि यह सब मुसलमानों के खिलाफ सियासी चाल है।
मजलिय इत्तेहादुल मुसलमीन के चीफ असदुद्दीन ओवैसी, पीडीपी चीफ महबूबा मुफ्ती, समाजवादी पार्टी के नेता अबू आजमी और शफीकुर रहमान बर्क जैसे नेताओं ने आरोप लगाया है कि यह मुस्लिम लड़कियों को उच्च शिक्षा से दूर रखने के लिए एक रणनीति का हिस्सा है। पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया और मुंबई की रजा अकादमी जैसे कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों ने ‘इस्लाम खतरे में है’ का हौआ खड़ा कर दिया। उनका तर्क है कि हाईकोर्ट केवल न्यायिक मुद्दों का फैसला कर सकता है, धार्मिक मामलों का नहीं।
कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनका कहना है कि मुस्लिम लड़कियों द्वारा हिजाब पहनना व्यक्तिगत पसंद का मामला है और व्यक्तिगत आजादी से जुड़ा हुआ है । ऐसे लोगों को हाईकोर्ट के उस फैसले को पूरा पढ़ना चाहिए जिसमें हर सवाल का बेहद पारदर्शी जवाब दिया गया। तीन जजों की फुल बेंच में एक प्रख्यात मुस्लिम महिला जज जयबुन्निसा मोहिउद्दीन खाजी भी शामिल थीं। जो लोग इस फैसले पर सवाल उठाने की कोशिश कर रहे हैं दरअसल ये लोग पब्लिक को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।
मैं इस मामले में बड़ी-बड़ी बातें नहीं कहना चाहता। छोटी सी बात है कि मुस्लिम लड़कियों को पढ़ने का पूरा-पूरा मौका मिलना चाहिए। कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि वो अच्छी तालीम लें, तरक्की करें और बड़े-बड़े ओहदों पर पहुंचें। अगर उनके एक हाथ में कुरान हो तो दूसरे में कंप्यूटर हो। वो हिजाब पहनें या पर्दा करें, यह उनकी व्यक्तिगत पसंद है, इस पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए, लेकिन क्लास रूम के बाहर। जब वो क्लास रूम में पहुंचे तो सिर्फ किताब हो, हिजाब नहीं। वहां सब स्टूडेंट हों। हम धर्म को शिक्षा से दूर रखें।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक बड़े खतरे की तरफ इशारा किया। एक ऐसा खतरा जो लड़कियों की तालीम में रूकावट बन सकता है। हाईकोर्ट ने कहा है कि कुछ ताकतें हैं जो देश में अस्थिरता पैदा करना चाहती हैं, मुल्क में माहौल को खराब करने की कोशिश कर रही हैं ऐसी ताकतों को समझने और उनके मंसूबों को नाकाम करने की जरूरत है। हाईकोर्ट ने कहा- ‘जिस तरीके से हिजाब विवाद सामने आया उससे इस बहस को बल मिलता है कि कुछ ‘अदृश्य हाथ’ सामाजिक शांति और सौहार्द बिगाड़ने के लिए लगे हैं। अधिक विस्तार में कहने की जरूरत नहीं है।’
अदालत की बात बिल्कुल सही है। कर्नाटक के एक कॉलेज ने हिजाब पर पाबंदी लगाई थी और यह कोई बड़ा मसला नहीं था। लेकिन इसे हिन्दू-मुसलमान का रंग दे दिया गया। उडूपी जिले के एक कॉलेज के मामले को देश के शहर-शहर तक पहुंचा दिया गया। अलीगढ़ से लेकर इंदौर, उज्जैन, लखनऊ, आजमगढ़, जामनगर, सूरत, पटना, जयपुर जैसे तमाम शहरों में विरोध प्रदर्शन होने लगे। एक कॉलेज के मामले को पूरे देश में एंटी मुस्लिम मुद्दा बनाकर पेश कर दिया गया। यह बड़ी साजिश है और कोर्ट ने बिल्कुल सही कहा। मैं तो इससे एक कदम और आगे की बात कहना चाहता हूं। मुझे लगता है कि कुछ लोग नरेन्द्र मोदी की मुखालफत में किसी भी हद तक जा सकते हैं। हिजाब के मुद्दे पर भी ऐसी कोशिश हुई लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले ने इस साजिश के मंसूबे पर पानी फेर दिया।
Hijab: What Karnataka HC said about ‘unseen hands’ trying to spread unrest
In a landmark verdict on Tuesday, a three-judge full bench of Karnataka High Court declared that wearing of hijab by Muslim women is not an essential religious practice in Islam. While dismissing a bunch of petitions, the bench upheld the state government order banning wearing of hijab in educational institutions.
The bench of Chief Justice Ritu Raj Awasthi, Justice Krishna Dixit and Justice Jaibunnisa Mohiuddin Khazi in its 129-page order, rejected the plea that the ban on wearing of hijab by Muslim girls in educational institutions violates rights guaranteed under Article 14 (equality), Article 15 (no discrimination over faith), Article 19 (freedom of speech and expression), Article 21 (protection of life and personal liberty) and Article 25 (freedom of religion) of the Constitution.
The high court said, “it is not that if the alleged practice of wearing hijab is not adhered to, those not wearing hijab become the sinners, Islam loses its glory and it ceases to be a religion. The petitioners have miserably failed to meet the threshold requirements of pleadings and proof as to wearing hijab is an inviolable religious practice in Islam and much less a part of ‘essential religious practice’”.
The high court said, prescribing school uniform is “a reasonable restriction constitutionally permissible to which the students cannot object… (If hijab is allowed), the school uniform ceases to be uniform…it will establish a sense of social separateness which is not desirable….All rights have to be viewed in the contextual conditions..Schools are ‘qualified public places’…(which) by their very nature repel the assertion of individual rights to the detriment of their general discipline and decorum.”
In the judgement, the high court said, “it can hardly be argued that hijab being a matter of attire, can be justifiably treated as fundamental to Islamic faith…Whichever be the religion, whatever is stated in the scriptures, does not become per se mandatory in a wholesale way. That is how the concept of essential religious practice is coined.”
“If everything were to be essential to the religion logically, this very concept would not have taken birth. It is on this premise the Supreme Court in Shayara Bano case, proscribed the 1,400-year-old pernicious practice of triple talaq in Islam. What is made recommendatory by the Holy Quran cannot be metamorphosed into mandatory dicta by a ‘hadith’ (hadees) which is treated as supplementary to the scripture”, the high court said.
The High Court bench said, “no affidavit sworn to by any maulana explaining the implications of the ‘suras’(from Holy Quran) quoted by the petitioners was placed before the court, and it was not specifically mentioned for how long the petitioners were wearing the hijab.”
The high court order dealt with three main aspects of the case: (1) Is wearing of hijab an essential religious practice in Islam? (2) Do government and educational institutions have the right to decide the dress code? (3) Is enforcement of dress code a violation of fundamental rights?
The court clarified that hijab is not an essential religious practice. It is a veil (purda) which Muslim women wear in public, the word hijab originates from the Arabic word ‘hajabah’ which literally means ‘hiding’. The court said, hijab is normally used by women to hide their face from others in public.
After going through research material, the high court opined that there is no mention of the word ‘hijab’ in the Holy Quran, but some Muslim scholars had indeed used this word in their writings. An expert in Islamic jurisprudence Abdulla Yusuf Ali in his book on Quran has mentioned the word ‘jilbab’, an outer garment in the form of a cloak, which is used to cover either the whole body, or from the face to the chest. Ali mentions that wearing of hijab or veil began in Prophet Mohammed’s home only five to six years before he passed away.
Progressive Islamic scholars agree with this view. A few days ago, the governor of Kerala Arif Mohammed Khan had come to India TV studio, and during an interview, he said, there was no mention of hijab in the Holy Quran. Khan said, wearing of hijab or veil began in Arab countries to differentiate Muslim women from female slaves during the Middle Ages, and it had nothing to do with Islam.
I have gone through the 129-page order of the High Court in detail. On Page 86, it is mentioned that the petitioners failed to produce even an affidavit for maulanas to say that hijab has been mentioned in Holy Quran. On Page 87, the order says, hijab is only a form of attire and wearing of hijab is not an essential Islamic practice for women. In its order, the high court mentioned excerpts from the writing of several Islamic scholars to substantiate its view. But hardliner Islamic clerics in India are unwilling to accept this. They allege that this could be part of a political strategy.
Politicians like AIMIM chief Asaduddin Owaisi, Jammu and Kashmir PDP chief Mehbooba Mufti, Samajwadi Party leaders Abu Azmi and Shafiqur Rahman Barq have alleged that this is part of a calculative strategy to keep Muslim girls away from higher education. Hardline Islamic outfits like People’s Front of India and Raza Academy of Mumbai have raised the bogey of “Islam is in danger”. They have argued that the high court can only adjudicate judicial issues and not religious matters.
There are activists who said wearing of hijab by Muslim girls is a matter of personal choice and it relates to personal liberty. Such activists should read the High Court judgement in its entirety, in which every single question has been transparently answered. Among the three judges on the full bench was an eminent Muslim lady judge, Jaibunnisa Mohiuddin Khazi. Those trying to raise questions on the HC verdict are trying to mislead the people.
I do not want to extrapolate on bigger issues. My issue is very simple: Muslim girls must be given access to better and higher education, so that they can occupy higher posts. They must have a Quran in one hand and a computer in another, as Modi once said in my show ‘Aap Ki Adalat’. Wearing hijab is their personal choice. They can wear hijab in educational institutions, but not inside classrooms. In a classroom taken by a teacher, everybody is a student, not a Hindu or a Muslim. Let us keep religion away from education.
The High Court also made a significant observation. It pointed towards a bigger danger. The high court order said, “The way hijab imbroglio unfolded gives scope for the argument that ‘some unseen hands’ are at work to engineer social unrest and disharmony. Much is not necessary to specify.” It is time for all of us to identify these ‘unseen hands’ and foil their designs. The high court is right The issue began when some Muslim girls started wearing hijab in a college. It was not a big issue. But the Hindu versus Muslim angle was added to it.
From one college in Udupi, the fire spread to cities like Aligarh, Indore, Ujjain, Lucknow, Azamgarh, Jamnagar, Surat, Patna, Jaipur and Hyderabad. A college issue was projected as an anti-Muslim issue across India. It was part of a bigger conspiracy, and the high court was right in making mention about it. I want to add a bit more. I feel, there are some people who, in their blind opposition to Prime Minister Narendra Modi, can go to any extent, and hijab issue was one of them. But the high court order has nipped their plans in the bud.