Rajat Sharma

My Opinion

दिल्ली में यमुना के गंदे पानी में छठ पूजा करने को मजबूर हुए श्रद्धालु

AKB

गया, पटना, वारणसी, गोरखपुर समेत तमाम शहरों में बुधवार को लाखों श्रद्धालुओं ने डूबते सूरज को अर्घ्य दिया। नदियों के किनारे, तालाबों पर छठ पूजा के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ थी। बेंगलुरु, मुंबई, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और लखनऊ जैसे उन सभी शहरों में छठ मनाया गया, जहां बिहार और पूर्वांचल के लोग रहते हैं। दिल्ली में भी श्रद्धालुओं ने कड़ी पाबंदियों के बीच छठ पूजा की।

ये पाबंदियां वैसे तो कोरोना के नाम पर लागू की गई थीं, लेकिन यमुना किनारे से सामने आई तस्वीरों ने साफ कर दिया कि स्थानीय अधिकारी नदी पर तैरते हुए झाग को लोगों की नजरों से छिपाना चाहते थे। दो दिन पहले दिल्ली सरकार ने दावा किया था कि यमुना का पानी साफ है और सारा झाग और गंदगी उत्तर प्रदेश सरकार के नियंत्रण वाले ओखला बैराज में है, लेकिन बुधवार को दिल्ली सरकार के अधिकारी यमुना से झाग को हटाने की भरपूर कोशिश करते हुए नज़र आए लेकिन इससे और किरकिरी हुई।

इन तस्वीरों को देखकर किसी को हंसी भी आ सकती है और दुख भी हो सकता है। अब तक लोग देखते आए थे कि नदी के किनारे खाली टैंकर खड़े होते थे और उनमें पानी भरा जाता था, लेकिन बुधवार को मामला उलट था। दिल्ली जल बोर्ड के टैंकरों से पानी का छिड़काव किया जा रहा था ताकि नदी से झाग हटाया जा सके। अब तक लोग देखते थे कि पर्व त्योहार के मौके पर नदी में बांस और बैरिकेड्स लगाए जाते थे, जिससे कोई डूब न जाए, लेकिन बुधवार को लोगों की नजरों से गंदगी छिपाने के लिए, झाग को रोकने के लिए बांस के बैरिकेड्स लगाए गए। इन दृश्यों को देखकर स्थानीय अधिकारियों की मंशा को लेकर काफी चिंता होती है।

बुधवार सुबह से ही अफसरान काम पर लगे हुए थे और उनका एकमात्र उद्देश्य था, यमुना में तैर रहे झाग को जनता की नजरों से छिपाना । आमतौर पर जो पानी दिल्ली के लोगों की प्यास बुझाता है, उसी का इस्तेमाल दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारी यमुना में तैरते झाग पर छिड़काव के लिए कर रहे थे। हालांकि दिल्ली सरकार ने कालिंदी कुंज के घाट पर छठ पूजा करने पर रोक लगा दी थी, लेकिन वहां भी झाग पर पानी के छिड़काव के लिए दिल्ली जल बोर्ड के पानी के टैंकर लगाए गए थे। यह काम शाम तक जारी रहा, लेकिन यमुना में झाग फिर भी तैरता रहा। नदी का पानी गंदा ही रहा। दिल्ली सरकार ने देसी नावों के साथ-साथ 15 मोटर बोट्स भी तैनात की थीं, जिनपर सवार कर्मचारी डंडा मार-मार कर झाग को तितर-बितर करने की कोशिश करते रहे। लेकिन ये दोनों उपाय कुछ खास काम नहीं आए।

इसके बाद एक तीसरा फॉर्मूला निकाला गया। झाग को जनता की नजरों से छिपाने के लिए नदी में बांस के बैरिकेड्स लगा दिए गए। इन बैरिकेड्स ने झाग के प्रवाह को तो रोक दिया, लेकिन जहां-जहां बैरिकेडिंग की गई थी, वहां झाग जमा होता रहा। बुधवार को यमुना में स्नान करने आए श्रद्धालुओं ने शिकायत की कि नदी का पानी काला और गंदगी से भरा हुआ है।

उत्तर प्रदेश के जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ने कहा, राज्य सरकार यमुना के पानी को साफ रखने की पूरी कोशिश करती है। उन्होंने आरोप लगाया कि दिल्ली सरकार यमुना को 22 किलोमीटर के स्ट्रेच तक भी साफ नहीं रख पाती। उत्तर प्रदेश में यमुना अंदर कम से कम 900 किलोमीटर तक बहती है। हरियाणा बीजेपी के अध्यक्ष ओम प्रकाश धनकड़ ने कहा कि हरियाणा से दिल्ली को सप्लाई किया जाने वाला यमुना का पानी साफ होता है, और पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने दिल्ली सरकार पर यमुना को साफ रखने में नाकाम रहने का आरोप लगाया और कहा कि राजधानी में कई सौ नाले यमुना में गिरते हैं।

केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा, केंद्र ने ‘नमामि गंगे’ परियोजना के तहत यमुना की सफाई के लिए 3,900 करोड़ रुपये दिए, लेकिन योजना को लागू करना दिल्ली सरकार पर निर्भर करता है। उन्होंने आरोप लगाया कि दिल्ली सरकार की तरफ से यमुना को साफ करने की इच्छा शक्ति और नीयत में कमी है। शेखावत ने आरोप लगाया कि दिल्ली में यमुना की सफाई की कई योजनाएं तय समय से पीछे चल रही हैं, और कई योजनाएं तो ऐसी हैं जो अभी तक शुरू ही नहीं हुईं। उन्होंने डीसेंट्रलाइज्ड सीवरेज ट्रीटमेंट प्रॉजेक्ट का खासतौर पर जिक्र किया। उन्होंने कहा, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने इस प्रोजेक्ट की रूपरेखा रखी गई, लेकिन चूंकि इसके लिए कई जमीन उपलब्ध नहीं थी, इसलिए यह पूरा प्रॉजेक्ट अटक गया।

दिल्ली सरकार ने कोरोना का हवाला देकर यमुना के सभी घाटों पर छठ मनाने पर रोक लगा दी थी। सरकार की तरफ से कहा गया कि 800 कृत्रिम घाट बनाए गए हैं और पब्लिक इन घाटों पर जाकर सूर्य भगवान की आराधना, और छठी माता की पूजा कर सकती है। बीजेपी के स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया, और उनकी अगुवाई में श्रद्धालु नदी किनारे पूजा करने के लिए पहुंच गए। दिल्ली बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा ने श्रद्धालुओं को ITO यमुना घाट ले गए, जबरन बैरिकेड्स हटाए और पूजा-अर्चना की।

दिल्ली बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा सांसद मनोज तिवारी ने अपने समर्थकों के साथ सोनिया विहार इलाके में यमुना घाट पर छठ पूजा की। बीजेपी के इन दोनों नेताओं ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल छठ पूजा करने वाले श्रद्धालुओं की आस्था को कुचलने का काम कर रहे हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने भी सैकड़ों श्रद्धालुओं के साथ कृत्रिम तालाब में पूजा की। उन्होंने बीजेपी के आरोपों का जवाब देने से इनकार करते हुए कहा कि आस्था से जुड़े मामलों पर सियासत नहीं होनी चाहिए।

केजरीवाल की बात सही है। ऐसे मामलों में सियासत में नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन उनकी सरकार को इस बात का जवाब देना चाहिए कि यमुना को दूषित होने से बचाने के लिए अब तक क्या किया गया। इस बात से तो केजरीवाल भी इनकार नहीं कर सकते कि दिल्ली में यमुना एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। यमुना के जिस पानी में लोगों ने मजबूरी में डुबकी लगाई, उस पानी से केजरीवाल, मनोज तिवारी या प्रवेश वर्मा आचमन भी नहीं करेंगे, हाथ भी नहीं लगाएंगे, डुबकी लगाना तो दूर की बात है। वैसे भी लोगों को यमुना के घाट पर जाने से रोकना इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। छठ पवित्रता और आस्था का पर्व है, जिसमें स्वच्छता और शुद्धता का महत्व बहुत ज्यादा है।

नदी के पवित्र जल से स्नान करके, नदी के शुद्ध पानी से घर को पवित्र करके, नदी के स्वच्छ जल से प्रसाद बनाकर ही छठ का व्रत शुरू होता है। व्रत रखने वाली महिलाएं 36 घंटे तक पानी भी नहीं पीतीं। यह एक कठिन व्रत है, प्रकृति और पर्यावरण की उपासना का पर्व है। इस पर्व की शुरुआत नाले जैसे गंदे पानी में डुबकी लगाकर करनी पड़े, और डूबते सूर्य को अर्घ्य भी इसी गंदे पानी से देना पड़े, इससे ज्यादा त्रासदी की बात और क्या हो सकती है। दिल्ली सरकार जितनी जल्दी यमुना की सफाई का मिशन शुरू करे, उतना ही बेहतर होगा।

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Chhath Pooja : Devotees forced to perform rituals in Delhi’s filthy Yamuna river

akb fullMillions of people offered Chhath Pooja prayer during sunset in Patna, Gaya, Varanasi, Gorakhpur, Mumbai, Bengaluru, Ahmedabad, Chandigarh, Lucknow and other cities on Wednesday on the banks of rivers and ponds, but in Delhi, people had to perform prayers amidst tight restrictions.

The restrictions were ostensibly imposed to prevent the spread of Covid pandemic, but visuals that emerged from Yamuna bank clearly showed that the local authorities wanted to hide the froth floating on the river from public view.

Two days ago, Delhi government had claimed that the Yamuna water was clean and all the froth and dirt was at Okhla barrage controlled by UP government, but on Wednesday, officials of Delhi government were making a spectacle of themselves by trying hard to remove the froth from Yamuna.

Watching these visuals can make anybody laugh and also become sad. Till now, people were used to watching tankers collecting water from river banks, but on Wednesday it was the reverse. Delhi Jal Board tankers were deployed to spray water to remove foam from the river. Till now, people were used to watch bamboo barricades at river banks to prevent devotees from drowning, but on Wednesday, bamboo barricades were erected to hide the foam from public view. These visuals raise serious concern about the intent of local authorities.

The authorities were busy working since Wednesday morning and their sole aim was to hide the foam in Yamuna from public view. Precious drinking water that is normally supplied to people in Delhi, was being used by Delhi Jal Board officials to spray on foam floating in Yamuna. Though Delhi government had imposed restrictions on offering Chhath prayer at Kalindi Kunj bank, DJB water tankers were brought to spray water on foam. The work continued till evening, but the foam continued to float in Yamuna. The water remained dirty. Delhi government also deployed 15 motor boats along with country boats with staffers trying to disperse the foam with sticks. But both the ideas failed to click.

A third idea was implemented. Bamboo barricades were erected in the river to hide the foam from public view. These barricades stopped the flow of foam, but the froth continued to accumulate inside the barricaded area. Devotees who took bath in Yamuna on Wednesday complained that the water was blackish and full of dirt.

UP Jal Shakti minister Mahendra Singh said, the state government tries its best to keep the Yamuna water clean. He blamed Delhi government for failing to keep Yamuna clean on its 22 kilometre stretch. The Yamuna flows at least 900 km inside UP. Haryana BJP chief Om Prakash Dhankad said, Yamuna water that is supplied by Haryana to Delhi is clean, and is used for drinking purpose. He blamed Delhi government for failing to keep the Yamuna clean as several hundred drains fall into the river inside the capital.

Union Jal Shakti Minister Gajendra Singh Shekhawat said, the Centre provided Rs 3,900 crore to clean up the Yamuna from Namami Gange project, but the onus is on Delhi government which has to implement the scheme. He alleged that the intent to clean the Yamuna was lacking on part of Delhi government. Shekhawat alleged that many of the schemes to clean Yamuna in Delhi were going behind schedule, and there were several schemes which had not taken off at all. He made particular reference to Decentralized Sewerage Treatment project, which he said, was placed before National Green Tribunal, but since no land was available, the project has got stuck.

While imposing restrictions on Chhath Pooja at Yamuna river banks, Delhi government had set up nearly 800 artificial ponds for devotees to perform pooja. The local BJP leaders objected, and they led groups of devotees to perform pooja at river banks. Delhi BJP MP Parvesh Verma led devotees to ITO Yamuna bank, removed barricades and performed pooja.

Another BJP MP Manoj Tiwari led his supporters to perform pooja at Sonia Vihar bank. Both BJP leaders alleged that chief minister Arvind Kejriwal was trying to hurt the feelings of Chhath Pooja devotees. Chief Minister Kejriwal along with hundreds of devotees performed pooja at an artificial pond. He refused to reply to BJP’s charges by saying that matters relating to faith must not be politicized.

Kejriwal is right. Matters relating to faith must not be politicized, but his government must reply what it did to prevent Yamuna from becoming dirty. Kejriwal cannot deny that Yamuna has now become a filthy drain in Delhi. Neither Kejriwal, nor Manoj Tiwari or Parvesh Verma will ever dare to drink the filthy Yamuna water for ‘aachaman’ while performing pooja, leave alone taking a bath. Preventing people from performing pooja at river bank cannot be the solution. Chhath is a sacred festival of faith where cleanliness and purity are a must.

The Chhath festival begins with a devotee taking bath in fresh river water, sprinkling water inside homes, and making festive delicacies using fresh river water. Women perform ‘vrat’ (fast) for 36 hours without taking a drop of water. Chhath is a festival to celebrate nature and environment in all its glory. There can be no bigger tragedy for devotees than being forced to take bath in the dirty Yamuna and to offer prayers to the Sun God standing in filthy drain water. The sooner the Delhi government takes up the mission for cleaning the Yamuna, the better.

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राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर पर्यावरण संरक्षण नहीं हो सकता

akb

आज मैं आपको बताना चाहता हूं कि सरहद पर दुश्मन का मुकाबला करने के लिए हमारी फौज को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि सरहद पर साजो-सामान पहुंचाने के वास्ते बॉर्डर फीडर रोड्स को चौड़ा करने की इजाजत लेने के लिए सेना को अदालत में केस लड़ना पड़ रहा है? क्या आप इस बात पर यकीन कर सकते हैं कि बॉर्डर तक पहुंचने के लिए अगर फौज को अच्छी सड़क चाहिए तो उसके लिए भी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है? क्या आप मान सकते हैं कि भारत में ऐसे भी गैर-सरकारी संगठन हैं जो कोर्ट से कहते हैं कि सेना को बॉर्डर की सड़कों को चौड़ा करने की इजाजत न दें क्योंकि ऐसा करने के लिए पेड़ों को काटना होगा।

हमारी फौज को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ रही है कि पेड़ों के कारण रास्तों को चौड़ा करने से न रोकें। हमारी फौज ने अदालत को बताया है कि दुश्मन सरहद के उस पार पूरी तैयारी के साथ जम चुका है और हमें बॉर्डर पर सड़कों को 5.5 मीटर से बढ़ाकर 10.5 मीटर करने की जरूरत है।

हो सकता है कि आपको इस पर यकीन न हो। जब सवाल देश की सुरक्षा का हो तो कौन हमारी फौज को रोक सकता है, लेकिन ये सही है। हमारे देश में यही हो रहा है। मामला सेना के आधुनिकीकरण का हो, बात सेना को अत्याधुनिक हथियार देने की हो, मामला सरहद पर आधारभूत संरचना विकसित करने का हो, या फिर सेना के मूवमेंट को और तेज करने के लिए सड़कें बनाने का हो, हर मामले में कोई न कोई शख्स या एनजीओ कोर्ट पहुंच जाता है। कोई व्यवस्था का सवाल उठाता है, कोई नियमों का हवाला देता है, और कोई पर्यावरण का मुद्दा उठाकर फौज का रास्ता रोक देता है।

कोर्ट भी सभी पक्षों को सुने बिना फैसला नहीं कर सकता। कई बार तो सालों साल तक मामला अदालत में ही चलता रहता है, तारीख पर तारीख मिलती रहती है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं अचानक ये सारी बातें क्यों कह रहा हूं। मंगलवार को, सुप्रीम कोर्ट उत्तराखंड में भारत-चीन सीमा की ओर जाने वाली फीडर सड़कों को चौड़ा करने के लिए केंद्र की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसका एक NGO ‘सिटिजन्स फॉर ग्रीन दून’ ने जमकर विरोध किया है। इस NGO का कहना है कि पेड़ों को काटने से पर्यावरणीय आपदा आ सकती है।

जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि सतत विकास को राष्ट्रीय सुरक्षा आवश्यकताओं के साथ संतुलित करना होगा। क्या सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय सशस्त्र बलों की चिंताओं को पर्यावरण के आधार पर नजरअंदाज कर सकता है, विशेषकर सीमा पर हालिया घटनाओं को देखते हुए?’

बेंच ने यह भी कहा, ‘भारत की रक्षा के लिए सड़कों को बेहतर बनाने की जरूरत है। दूसरी तरफ की तैयारियों को देखिए। क्या देश की रक्षा जरूरतों पर पर्यावरण भारी पड़ेगा या इसे संतुलित किया जाना चाहिए?’ अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने मौजूदा सड़कों को 7 से 10 मीटर चौड़ा करने की जरूरत पर एक विस्तृत प्रस्तुति दी, क्योंकि शीर्ष अदालत ने पहले सशस्त्र बलों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए केवल 5.5 मीटर की चौड़ाई की इजाजत दी थी।

अटॉर्नी जनरल ने कहा, ‘1962 की जंग में हमारे सैनिकों तक सप्लाई नहीं पहुंच पा रही थी और उन्हें सीमा चौकियों तक पहुंचने के लिए पहाड़ों पर लंबी चढ़ाई करनी पड़ती थी। हम जानते हैं कि इसका नतीजा क्या हुआ। बॉर्डर के हालात और चीनी सरकार द्वारा पारित नए कानून को देखते हुए, सीमावर्ती क्षेत्रों के विवाद पर पड़ोसी देशों के दावों को खारिज करने के लिए भारी तोपखाने, टैंक, मिसाइल लॉन्चर और सैनिकों की तेज आवाजाही के लिए बुनियादी ढांचे का तुरंत निर्माण करने की जरूरत है।’

मंगलवार की रात अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में हमने उत्तराखंड में भारत-चीन सीमा पर अंतिम सीमावर्ती गांव माणा की ओर जाने वाली संकरी फीडर सड़क को दिखाया फथा। भारी सैन्य साजो-सामान ढोने के लिए इस सड़क को युद्ध स्तर पर चौड़ा करने की जरूरत है, लेकिन अब मामला देश की शीर्ष अदालत तक पहुंच गया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सेना को कोर्ट में दलीलें पेश करनी पड़ें, ये दुनिया में शायद ही कहीं और होता होगा। कुछ लोग कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को पहली ही नजर में इस तरह के केस को खारिज कर देना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को भी कानूनी प्रक्रिया का पालन करना होगा और सभी पक्षों की दलीलों को सुनना होगा।

अटॉर्नी जनरल को सीमा पर चीन द्वारा किए जा रहे भारी सैन्य निर्माण के बारे में शीर्ष अदालत को बताना पड़ा। चीन ने मिसाइल और रॉकेट तैनात किए हैं, LAC तक जाने वाली सड़कें बनाई हैं, बड़े-बड़े आर्मी कैंप बनाए हैं।

दूसरी तरफ हमारी फौज को बॉर्डर तक चौड़ी सड़कें बनाने के लिए भी कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। मंगलवार को हमारे संवाददाता आनंद प्रकाश पांडे ने केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी से बात की। गडकरी ने कहा कि चार धाम परियोजना के तहत 825 किलोमीटर सड़क में से लगभग 600 किलोमीटर सड़क पर काम पूरा हो चुका है और सिर्फ 225 किलोमीटर सड़क पर काम बाकी है। उन्होंने कहा कि चूंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है, और रक्षा मंत्रालय ने भी अपना पक्ष रखा है, इसलिए अदालत अब जो भी फैसला लेगी उसके हिसाब से काम शुरू होगा। अटॉर्नी जनरल ने अदालत को यह दलील देने के लिए बॉर्डर की सड़कों के नक्शे दिखाए कि इन फीडर सड़कों को चौड़ा करने की जरूरत है।

चीन अपनी तरफ बड़ी तेजी से बॉर्डर एरिया को विकसित कर रहा है। उसने लद्दाख से लेकर उत्तराखंड, सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश तक, अपने इलाके में अच्छी सड़कें बना दी हैं, एयरफोर्स के लिए एयर स्ट्रिप्स बना दी हैं। तिब्बत में बुलेट ट्रेन दौड़ रही है, रेलवे लाइनों और ऑल वेदर रोड्स का निर्माण किया गया है। दूसरी तरफ हमारे देश में भी लद्दाख से लेकर अरूणांचल तक अच्छी सड़कें बनाई जा रही हैं, टनल और ब्रिज बनाए जा रहे हैं, लेकिन चार धाम प्रॉजेक्ट के तहत उत्तराखंड में जो सड़कें बननी हैं, उनका काम कानूनी अड़चनों के कारण अटक गया है।

12,500 करोड़ रुपये के चार धाम प्रॉजोक्ट के 85 प्रतिशत हिस्से पर काम चल रहा है। 15 फीसदी काम कानूनी विवादों में फंसा है। गडकरी ने मंगलवार को हमारे संवाददाता से कहा कि केंद्र पर्यावरण संरक्षण के खिलाफ नहीं है, और अगर एक पेड़ काटा जाता है तो काम खत्म होने के बाद 5 नए पेड़ लगाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि सरहद तक सेना का साजो-सामान भेजने के लिए बेहतर सड़कों की जरूरत है। गडकरी ने कहा कि सिर्फ पेड़ों के कटने की बात कहकर देश की सुरक्षा से समझौता नहीं किया जा सकता।

जब जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने याचिका दाखिल करने वाले एनजीओ के वकील से पूछा कि क्या हिमालयी क्षेत्र में कई प्रॉजेक्ट्स को अंजाम दे रहे चीन को पर्यावरण की चिंता है, तो वकील ने जवाब दिया कि चीनी सरकार को पर्यावरण की कोई चिंता नहीं है, लेकिन हमें तो फिक्र करनी चाहिए।

पेंटागन में अमेरिकी रक्षा विभाग ने हाल ही में एक रिपोर्ट रिलीज की थी, जिसमें उसने तस्वीरों के जरिए बताया था कि कैसे चीन ने 1959 में जबरन कब्जाए गए इलाके में अरूणाचल के पास त्सारी चू नदी के किनारे इस गांव को बसाया है, और इसमें 100 ड्यूल यूज घर बनाए हैं। यह गांव अरूणाचल प्रदेश के ऊपरी सुबनसिरी जिले के विवादित इलाके में है। पिछले साल बना यह गांव दोनों देशों के बीच हुए द्विपक्षीय समझौतों का पूरी तरह से उल्लंघन है। दरअसल, चीन ने लद्दाख से अरूणाचल प्रदेश तक फैली 2,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगते हुए 628 ‘बॉर्डर डिफेंस विलेज’ बनाए हैं।

हमारे देश में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो बार-बार कहते हैं कि चीन की फौज ने बॉर्डर पर क्या-क्या बना लिया। वे कहते हैं कि चीन सड़कों को सरहद तक ले आया, ट्रेन पहुंचा दी, गांव बसा दिया, इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया और फिर वे लोग इसकी तुलना भारत से करते हैं कि हम कितने पीछे हैं, उनकी सड़कें देखो और हमारी देखो, उनकी तेजी देखो और हमारी धीमी चाल देखो। ये लोग भूल जाते हैं चीन और भारत में बहुत फर्क है।

हमारे देश में लोकतंत्र है, जहां कार्यपालिका और न्यायपालिका को सबकी बात सुननी पड़ती है, जबकि चीन में एक पार्टी या बल्कि एक व्यक्ति का शासन है। वहां अदालतें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन हैं। चीनी अधिकारियों के किसी भी फैसले पर सवाल उठाने वाले किसी भी शख्स पर देशद्रोह का आरोप चस्पा कर दिया जाता है और वह सार्वजनिक जीवन से गायब कर दिया जाता है। CPC अपने केंद्रीय सैन्य आयोग के माध्यम से PLA (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) को भी नियंत्रित करता है, जिसकी अध्यक्षता राष्ट्रपति शी जिनपिंग के अलावा कोई नहीं करता है जो कि जल्द ही आजीवन राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं।

चीन में न तो ह्यूमन राइट्स की बातें करने वालों की बात सुनी जाती है, न पर्यावरण के नारे लगाने की छूट दी जाती है। अगर देश के विकास के लिए लोगों के घर उजाड़कर उन्हें दूसरी जगह बसाना हो तो चीन की सरकार एक पल के लिए भी नहीं सोचती और न किसी को विरोध करने की इजाजत दी जाती है। लेकिन भारत में मसला भले ही देश की सुरक्षा से जुड़ा हो, एनजीओ और ऐक्टिविस्ट कोर्ट पहुंच जाते हैं। हमारे देश में ये कहने वाले भी हजारों लोग मिल जाएंगे कि देश की सुरक्षा से ज्यादा पेड़ जरूरी है। दुश्मन भले ही हमारे ऊपर हमला कर दे, भले ही हमारे फौजियों को सरहद तक पहुंचने के लिए नाकों चने चबाने पड़े, लेकिन पेड़ नहीं कटने चाहिए।

ज्यादा जरूरी क्या है? भारत की सुरक्षा या पेड़ों को बचाना? मैं नहीं कहता की पेड़ काटने चाहिए, मैं नहीं कहता की पहाड़ काटने चाहिए, पर पर्यावरण से जुड़े ये सारे नियम सामान्य हालात के लिए हैं। बॉर्डर पर हम जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं, उसमें युद्ध स्तर पर कार्रवाई की जरूरत है। पेड़ों को बचाने के नाम पर हम अपनी सेना को सड़कों को चौड़ा करके अग्रिम इलाकों में जाने से नहीं रोक सकते। भारत की रक्षा सर्वोपरि है। मैं इस मामले की सुनवाई के दौरान प्रासंगिक सवाल उठाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जजों को धन्यवाद देना चाहता हूं। यह दुख की बात है कि हमारे पास ऐसे लोग हैं जो पर्यावरण के नाम पर हमारी फौज के मूवमेंट को रोकने की कोशिश करते हैं।

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Environmental protection cannot be at the cost of national security

AKBToday I want to share with you some facts relating to what our valiant army jawans are facing while defending our borders.

Can you imagine our army has to fight a battle in court to seek permission to widen the border feeder roads so that heavy army equipment can reach the frontier? Can you believe our army, which needs good roads to reach the border, has to fight legal battles? Can you believe there are NGOs in India which tell the court not to allow the army to widen border roads because this will mean cutting down trees?

Our army has to plead before the apex court not to prevent widening of border roads in the name of protecting trees. Our army tells the court that the adversary is ready with its infrastructure on its side of the border and it needs to widen the border roads from 5.5 metres to 10.5 metres.

We live under the false impression that nobody can stop our army when national security is concerned, but sadly, this is a fact. Whether it is modernisation of army or acquisition of sophisticated weapons, or developing border infrastructure to speed up troop movement, any individual or NGO can go to the court to stall them. Questions relating to systems, rules and environment are raised.

The judiciary, on its part, cannot give a verdict without hearing all concerned parties. In some cases, the hearing stretches over several years. You might be wondering why I am raising this. On Tuesday, the Supreme Court was hearing Centre’s plea for widening of feeder roads leading to India-China border locations in Uttarakhand, which was being vehemently opposed by an NGO ‘Citizens for Green Doon’. This NGO said, cutting of trees can cause environmental disaster.

The Supreme Court bench of Justice D Y Chandrachud, Justice Surya Kant and Justice Vikram Nath said, “There is no doubt that sustainable development has to be balanced with national security requirements. Can the highest constitutional court override the concerns of armed forces, particularly given the contemporary developments at the border?”

The bench also said, “Defence of India requires upgradation of roads. Look at the preparedness on the other side. Can the environment trump the defence requirements or should it be balanced?” Attorney General K K Venugopal gave a detailed presentation on the need to widen the existing roads to 7 to 10 metres width, because the apex court had earlier permitted the width to be only 5.5 metres to meet the requirements of armed forces.

The Attorney General said, “In the 1962 war, our troops were without supplies and had to undertake arduous treks to reach the border outposts. We know what happened. Given the situation at the border and the new legislation passed by the Chinese government to override claims of neighbouring countries on disputes over border lands, there is an urgent need to build infrastructure to carry heavy artillery, tanks, missile launchers and swift movement of troops.”

In my prime time show ‘Aaj Ki Baat’ on Tuesday night, we showed the narrow feeder road leading to Mana, the last border village on India-China border in Uttarakhand. This road needs to be widened on a war footing to carry heavy military equipment, but now the matter has reached the highest court of the land.

Probably, in no other country in the world, an army has to go to court to seek permission for widening roads for the nation’s defence. There are people who may say that the Supreme Court should quash such appeals from NGOs, when defence of India is concerned, but even the apex court has to follow a legal process and hear arguments from all sides.

The Attorney General had to tell the apex court about the huge military build-up by China on the border. China has deployed missiles and rockets, and has built roads leading right up to the Line of Actual Control. Huge military camps have been set up by China.

On the other hand, our army officials have to go to courts to argue that border feeder roads need to be widened. On Tuesday, our reporter Anand Prakash Pandey spoke to Union Surface Transport Minister Nitin Gadkari, who said, out of 825 kilometres road under Char Dham project, work on nearly 600 km roads is complete, and work on only 225 km road remains. Since the matter is now in Supreme Court, and the Ministry of Defence has placed its views, work can start only after the apex court gives its verdict. The Attorney General showed to the court border road maps to argue that these feeder roads need to be widened.

On the Chinese side, from Ladakh to Uttarkhand, Sikkim and Arunachal Pradesh, China has already developed road infrastructure, and has built airstrips for its air force. A bullet train is running in Tibet, rail tracks and all-weather roads have been built. On our side, tunnels, roads and bridges are being built in Ladakh and Arunachal Pradesh, but work in Uttarakhand on the famous Char Dham project is now stuck because of legal hassles.

The Char Dham project involves cost of Rs 12,500 crore, and work is going on 85 per cent of the project. Fifteen per cent of the work is entangled in legal disputes. On Tuesday, Gadkari told our reporter that the Centre is not against environmental protection, and if one tree is cut, five new trees are planted after the work is over. He said, the army needs better roads to send heavy military equipment to border posts. National security cannot be compromised on grounds of cutting of trees, he added.

When Justice D Y Chandrachud asked the petitioner NGO’s lawyer whether China is concerned about environment when it is carrying out so many projects in the Himalayan region, the lawyer replied, Chinese government has no concern about environment, but we, in India, should be concerned.

Already, the US Defense Department in Pentagon, in its report, has published images of how China has built a village of 100 dual-use homes on the banks of River Tsari Chu, near Arunachal Pradesh in a territory which it forcibly occupied in 1959. This village is in the disputed area of Upper Subansiri district of Arunachal Pradesh. The village, built last year, is in total violation of bilateral agreements between the two countries. In fact, China has built 628 ‘border defence villages’ along the 2,488 km long Line of Actual Control stretching from Ladakh to Arunachal Pradesh.

There are many in India who complain how China is building villages, camps, roads and railway tracks near the LAC, and then compare these with lack of infrastructure on the Indian side. They forget the basic difference in the politico-legal systems that prevail in India and China.

Here, in India, we have a thriving democracy, where the executive and judiciary have to listen to grievances from all sides, while in China, they have one-party, or rather one-man rule, where the judiciary is subservient to the Chinese Communist Party. Anybody questioning any decision of the Chinese authorities faces charges of sedition and vanishes from public life. The CPC also controls the PLA (People’s Liberation Army) through its Central Military Commission, headed by none other than President Xi Jinping, who is soon going to become lifetime President.

In China, voices of human rights and environment activists are not heard at all. Millions of people are displaced in the name of development in China. But, in India, NGOs and activists go to the courts, even if the matter relates to defence of the country. They try to stall widening of border roads, essential for troop movement, by arguing that thousands of trees will have to be cut.

Which is more important? Defence of India, or saving the trees? I am not in favour of deforestation, but these environmental regulations are meant for normal times. The situation that we are facing on the border requires action on a war footing. In the name of saving trees, we cannot prevent our army from moving up to forward areas by widening roads. Defence of India is supreme. I would like to thank the Supreme Court judges for raising pertinent questions during the hearing of this case. It is sad that we have people who try to stall our army’s movements in the name of environment.

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दिल्ली में यमुना नदी में कहां से आया जहरीला झाग?

akb दिल्ली में दिवाली के बाद से ही वायु प्रदूषण के कारण सुबह के समय स्मॉग (धुंध) देखने को मिल रहा है। दुनिया भर के लोगों ने सोमवार को वे तस्वीरें देखीं जिनमें यमुना नदी झाग से भरी नजर आ रही है। इसी नदी में कमर तक गहरे पानी में खड़े होकर छठ पूजा कर रहे श्रद्धालु भी नजर आए। पिछले कुछ सालों में यमुना नदी की सफाई पर दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने लगभग 5,000 करोड़ रुपये की भारी रकम खर्च की है, लेकिन नतीजे निराशाजनक रहे हैं। दिल्ली में यमुना का पानी काला पड़ चुका है और यह नहाने या हाथ धोने के लायक भी नहीं है, पीना तो बहुत दूर की बात है। इस तरह देखा जाए तो दिल्ली वायु और जल प्रदूषण, दोनों ही तरह के खतरों का सामना कर रही है।

एक्सपर्ट्स का कहना है कि झाग से भरी नदी में नहाने से चर्म रोग हो सकते हैं। 4 दिनों तक चलने वाले छठ पूजा के पर्व की सोमवार को शुरुआत हो गई। इसके साथ ही श्रद्धालुओं के यमुना में स्नान को लेकर सियासत भी शुरू हो गई। जहां दिल्ली आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने यमुना तट पर पूजा-अर्चना पर रोक लगाई थी, वहीं स्थानीय नेताओं के नेतृत्व में बीजेपी के कार्यकर्ता सोमवार सुबह पूर्वांचल के श्रद्धालुओं के साथ अनुष्ठान के लिए नदी किनारे पहुंच गए। छठ के पर्व की शुरुआत नदी में नहाने से होती है। नदी के पानी से ही प्रसाद बनाया जाता है, खाना बनाया जाता है और घरों में छिड़काव होता है। झाग और इसके नीचे यमुना के प्रदूषित पानी को देखकर यह सोचना मुश्किल है कि भक्त किस स्थिति में अनुष्ठानों को संपन्न कर रहे होंगे।

दिल्ली के कालिंदी कुंज के पास झाग से भरी यमुना को देखकर किसी को भी हैरानी हो सकती है कि क्या ये अलास्का की ठंड के चलते जम चुकी नदी है या अंटार्कटिका के पिघलते हुए ग्लेशियर हैं। यमुना दिल्ली की लाइफलाइन है। वजीराबाद और सोनिया विहार के पास यमुना के पानी का इस्तेमाल पीने के लिए होता है, जबकि आगे चलकर इसी नदी में उद्योगों और घरों से छोड़ा गया कचरा नजर आता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यमुना नदी में जैव रासायनिक ऑक्सीजन और डिजॉल्व्ड ऑक्सीजन का लेवल बेहद खराब क्वॉलिटी का है और यह पानी नहाने लायक भी नहीं है।

सवाल यह है कि यमुना ऐक्शन प्लान और अन्य सभी प्रॉजेक्ट्स का क्या हुआ जिनके लिए फंड जारी किया गया था, लेकिन सारी कोशिशें बेकार गईं?

मैं आपके सामने कुछ तथ्य रखता है। दिल्ली सरकार अब तक यमुना की सफाई पर 2387 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। पड़ोसी राज्यों, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को भी इस नदी की सफाई पर पैसे खर्च करने थे। उत्तर प्रदेश सरकार ने यमुना की सफाई पर 2052 करोड़ रुपये खर्च किए, जबकि हरियाणा सरकार अब तक 549 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। तीनों राज्यों का खर्च मिला दें तो अब तक सरकारें 4988 करोड़ रुपये यमुना की सफाई में बहा चुकी हैं, लेकिन इसका पानी साफ होने के बजाय गंदा ही होता गया।

आपको जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली सरकार यमुना ऐक्शन प्लान 1 और 2 के तहत 1514 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी हैं। ‘नमामि गंगे’ प्रॉजेक्ट के तहत यमुना नदी की सफाई के लिए 17 परियोजनाओं को मंजूरी मिली थी जिनकी लागत 3941 करोड़ रुपये हैं। इसके अलावा यमुना ऐक्शन प्लान तो 1993 से चल रहा है। तबसे लेकर आज तक 28 साल का वक्त बीत गया, लेकिन यमुना साफ नहीं हो पाई।

यमुना के पानी में गंदगी को लेकर सोमवार को बीजेपी और AAP नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी रहा। बीजेपी नेता मनोज तिवारी ने लोगों को याद दिलाया कि कैसे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह स्वच्छ बनाने का वादा किया था। तिवारी ने मांग की कि सुप्रीम कोर्ट को इस तथ्य का स्वत: संज्ञान लेते हुए दिल्ली सरकार से जवाबदेही की मांग करनी चाहिए। जवाब में आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली जल बोर्ड के उपाध्यक्ष राघव चड्ढा ने हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर आरोप लगाया कि ये दोनों पड़ोसी राज्य यमुना में कुल मिलाकर 15 करोड़ गैलन गंदा पानी रोजाना छोड़ते हैं।

कालिंदी कुंज में यमुना नदी में झाग के सवाल पर राघव चड्ढा ने कहा कि बड़ी मात्रा में सर्फेक्टेंट से भरा पानी ऊंचाई से कालिंदी कुंज में गिरता है, जिसके चलते झाग बनता है। उन्होंने यमुना नदी में बढ़ते जहरीलेपन के लिए हरियाणा सरकार को जिम्मेदार ठहराया।

सियासत को छोड़ दिया जाए तो सच्चाई यही है कि दिल्ली में पिछले तीन दशकों में बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सरकारें रही हैं। 1,400 किलोमीटर लंबी यमुना दिल्ली में सिर्फ 22 किलोमीटर बहती है और नदी को साफ रखने की जिम्मेदारी दिल्ली सरकार की है। चड्ढा ने उत्तर प्रदेश सरकार पर भी आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा, कालिंदी कुंज के पास ओखला बैराज की जिम्मेदारी यूपी सरकार की है, लेकिन यूपी के मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने कहा कि राज्य सरकार केवल ओखला बैराज में पानी के प्रवाह के लिए जिम्मेदार है न कि उसके ट्रीटमेंट के लिए। उन्होंने दिल्ली सरकार को और अधिक STP (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) स्थापित करने की सलाह दी ताकि यमुना स्वच्छ रह सके।

एक्सपर्ट्स का कहना है कि दिल्ली में डिटर्जेंट बनाने वाली फैक्ट्रियां फॉस्फेटिक केमिकल्स से भरा कचरा छोड़ती हैं जो अम्लीय पानी के साथ प्रतिक्रिया करके झाग की शक्ल अख्तियार कर लेता है। उन्होंने कहा कि इसे राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के दिशानिर्देशों को सख्ती से लागू करके रोका जा सकता है।

यमुना पुनरुद्धार योजना (Yamuna Revitalization Plan) के तहत यमुना में छोड़े जा रहे कचरे में प्रदूषकों की केवल परमिसेबल लिमिट सुनिश्चित करने का प्रस्ताव था, लेकिन पिछले 2 सालों में कुछ खास नहीं हुआ है। इसके बाद NGT ने 2018 में मॉनिटरिंग कमेटी बनाई ताकि ट्रिब्यूनल के के फैसले को लागू किया जाए, लेकिन जनवरी 2021 में इसे भंग कर दिया गया। यमुना में प्रदूषण के प्रमुख कारणों में जल स्तर का कम होना और 18 नालों (मुख्य रूप से नजफगढ़ और बारापुला) द्वारा नदी में इंडस्ट्रियल वेस्ट छोड़ना शामिल हैं। नजफगढ़ नाले में गुरुग्राम और मानेसर के कारखानों द्वारा छोड़ा गया कचरा भी आता है। वजीराबाद के बाद सबसे पहले नजफगढ़ नाला ही यमुना में आकर मिलता है जिससे पानी इतना प्रदूषित हो जाता है कि इसमें ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम हो जाती है।

अब सवाल ये उठता है कि दिल्ली सरकार क्या कर रही है? एक महीने पहले दिल्ली पॉल्युशन कंट्रोल कमेटी ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली में रोजाना 720 मिलियन गैलन (MGD) का सीवेज, यानी प्रदूषित पानी पैदा होता है। दिल्ली सरकार कहती है कि इसे साफ करने के लिए 20 जगहों पर 34 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) लगे हुए हैं और इन STP की क्षमता रोजाना 577 MGD कचरे को साफ करने की है। लेकिन यही रिपोर्ट कहती है कि ये ट्रीटमेंट प्लांट अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाते और 577 में से सिर्फ 514 MGD कचरा ही रोज साफ हो पाता है। यानी 11 प्रतिशत कचरा सीधे यमुना नदी में गिरता है। दूसरे शब्दों में कहें तो 720MGD कचरे में से 206 MGD कचरा सीधे नदी में चला जाता है।

दिल्ली सरकार ने मॉनिटरिंग कमिटी को बताया था कि वह जून 2019 तक STP के जरिए 99 पर्सेंट कचरे को साफ करेगी, लेकिन इस बात को भी 2 साल बीत चुके हैं। इंटरसेप्टर सीवर प्रॉजेक्ट का काम भी सिर्फ कागजों पर ही हुआ है। दिल्ली की 1700 कॉलोनियों में 40 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। इनमें से सिर्फ 561 कॉलोनियों में सीवर लाइन है। बाकी कॉलोनियों से सीवेज नालों के जरिए सीधे यमुना में जाता है। कुछ स्थानों पर ठोस कचरे में पाए जाने वाले प्रदूषक ‘वांछनीय स्तर’ से 760 गुना ज्यादा हैं।

अब सवाल यह उठता है कि इसका समाधान कैसे हो? मोटे तौर पर दो कदम उठाए जाने की जरूरत है।

पहला कदम यह कि यमुना में पानी के प्रवाह का स्तर पूरे साल बढ़ाए रखा जाए। इसका मतलब है कि जब यमुना में कम पानी होता है (लीन सीजन) उस दौरान पड़ोसी राज्यों से नदी में ज्यादा पानी छोड़ा जाए। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (NIH, रूड़की) की एक रिपोर्ट कहती है कि ‘लीन सीजन’ के दौरान यमुना में 23 क्यूसेक पानी की आवश्यकता होती है। चूंकि राज्यों के बीच पहले से ही कई तरह के समझौते हैं, इसलिए इसे लागू करना आसान नहीं है।

दूसरा तरीका है कि पानी में मौजूद कचरे को ज्यादा से ज्यादा साफ किया जाए और इसके लिए ज्यादा STP लगाए जाएं। रिठाला, कोंडली, यमुना विहार और ओखला में STP लगाने का काम पहले से ही चल रहा है। इसके अलावा 595 कॉलोनियों में सीवर पाइप बिछाए जा रहे हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यमुना में जाने से पहले पानी स्वच्छ हो जाए।

इस समय एक मजबूत राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। फिलहाल इसकी कमी नजर आ रही है। नीति तो बनती है लेकिन नीयत साफ नहीं है। चाहे बीजेपी हो, कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी, तीनों ने यमुना को साफ करने का वादा किया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

13 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ISBT के यमुना घाट पर यमुना आरती करने गए थे। तब उन्होंने वादा किया था कि वह अगले 5 सालों में यमुना का पुनरोद्धार कर देंगे, लेकिन सोमवार को पूरी दुनिया ने देखा कि उस वादे का क्या हुआ। यमुना को साफ करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने 5000 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। जापान से कर्ज लेकर भी यमुना की सफाई की गई। सारा पैसा बर्बाद हो गया और यमुना मैली की मैली रह गई। 1993 से लेकर अब तक, यमुना की सफाई के लिए कई बार डेडलाइन बनाई गई और फिर आगे बढ़ाई गई।

अब एक नई डेडलाइन तय की गई है। नेशनल कैपिटल रीजन प्लानिंग बोर्ड ने कहा है कि 2026 तक यमुना पूरी तरह से साफ हो जाएगी। दिल्ली की AAP सरकार ने 2023 तक यमुना को साफ करने का वादा किया है। मुझे लगता है कि जब तक हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारें केंद्र के साथ मिलकर काम नहीं करेंगी, तब तक यमुना का उद्धार होना मुश्किल है। इसके साथ ही लोगों को भी इस मिशन से जुड़ना होगा। उन्हें यमुना में कचरा फेंकना बंद करना होगा। इसके बाद ही हम दिल्ली में स्वच्छ यमुना नदी के सपने को साकार कर सकते हैं।

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Why is Yamuna river in Delhi frothing?

akbSince Diwali, Delhi had been witnessing smog in the morning due to air pollution. On Monday, people across the world watched visuals of the Yamuna river in Delhi covered with froth, and Chhath Puja devotees standing waist deep in the river. Despite a huge spend of nearly Rs 5,000 crores by Delhi, Haryana and UP on cleaning up Yamuna over the years, the end result is disappointing. The water of Yamuna in Delhi is blackish, and it is neither fit for drinking, nor bathing or even washing hands. Thus Delhi is facing a twin danger of both severe air and water pollution.

Experts say, bathing in the river filled with froth could cause skin diseases. As the four-day Chhath Puja festival began from Monday, there was politics over devotees bathing in the Yamuna. While Delhi Disaster Management Authority has banned rituals on the Yamuna banks, BJP workers led by local leaders went with groups of Purvanchal devotees for the rituals on Monday morning. During Chhath Puja, water from river is taken for preparing ‘prasad’ and food, and the water is sprinkled inside homes. Seeing the abysmal quality of Yamuna water beneath the foam and froth, one wonders how devotees would be carrying out the rituals.

The visuals of Yamuna frothing near Delhi’s Kalindi Kunj could make one wonder whether these are from Alaska’s sub-zero temperature region, or of a glacier melting in Antarctica or of a river covered with ice. Yamuna is the lifeline of Delhi. Water from Yamuna upstream near Wazirabad and Sonia Vihar is used for drinking purpose, while Yamuna downstream carries industrial effluents and waste from households. The levels of biochemical oxygen and dissolved oxygen in Yamuna river are of very poor quality and not fit for even bathing, experts say.

The question is: what has happened to the Yamuna Action Plan and all other projects for which money was sanctioned, but all efforts went down the drain?

Let me state the facts. Delhi government has so far spent Rs 2387 crore on ‘cleaning’ the Yamuna. Neighbouring states Haryana and UP were also supposed to spend money on cleaning this river. UP government spent Rs 2052 crore, while Haryana government spent Rs 549 crore on ‘cleaning’ Yamuna. Adding all the money spent by these three states, it comes to Rs 4988 crore. The result: Yamuna continues to be a river of filth in Delhi.

You will be surprised to know, Delhi government has already spent Rs 1,514 crore under Yamuan Action Plan-1 and Yamuna Action Plan-2. Seventeen projects estimated at Rs 3941 crore were approved for cleaning Yamuna under ‘Namami Gange’ plan. The Yamuna Action Plan was implemented way back from 1993. Twenty eight years have passed and the Yamuna is still a river filled with garbage.

Charges flew back and forth between BJP and AAP leaders on Monday over the dirty Yamuna. BJP leader Manoj Tiwari reminded people of how Chief Minister Arvind Kejriwal had promised to make Yamuna as clean as the river Thames of London. Tiwari demanded that the Supreme Court should take suo motu cognizance of the fact and seek accountability from Delhi government. In reply, AAP leader and Delhi Jal Board vice-chairman Raghav Chadha blamed neighbouring states Haryana and UP for collectively releasing 150 million gallons per day of untreated sewage into the Yamuna.

On the frothing of Yamuna river at Kalindi Kunj, Raghav Chadha said, water filled with huge amounts of surfactants falls into Kalindi Kunj from a height, which causes foam. He blamed Haryana government for the rising toxicity in Yamuna river.

Politics apart, the fact remains that BJP, Congress and Aam Aadmi Party have been in power in Delhi for the last three decades. The 1,400 km long Yamuna flows only 22 km in Delhi, and it is Delhi government’s responsibility to keep the river clean. Chadha has blamed the UP government too. He said, the Okhla barrage near Kalindi Kunj is operated by UP government, but UP minister Siddharth Nath Singh said, the state government is responsible only for flow of water at Okhla barrage, and not for treating water. He advised Delhi government to set up more STPs (sewage treatment plants) so that Yamuna can remain clean.

Experts say, detergent making factories in Delhi release untreated waste full of phosphatic chemicals which while reacting with acidic water cause foam. This, they said, can be stopped by strictly enforcing National Green Tribunal guidelines.

Under the Yamuna Revitalization Plan, it was proposed to ensure only permissible limit of pollutants in waste being released in Yamuna, but nothing much has happened during the last two years. A monitoring committee set up in 2018 by NGT was dissolved in January this year. Among the main reasons for Yamuna pollution are: low water level, 18 drains (mainly Najafgarh and Barapullah) releasing sewage into the river. The Najafgarh drain also carries waste released by factories in neighbouring Gurugram and Manesar. After Wazirabad, it is the Najafgarh drain which falls into Yamuna, polluting water and lowering oxygen level.

The question is: what is the Delhi government doing? One month ago, Delhi Pollution Control Committee prepared a report. It says, daily 720 MGD (million gallons per day) sewage (water waste) is produced in the capital daily. Delhi government claims there are 34 STPs (sewage treatment plants) working at 20 locations across the capital, which have a collective capacity of treating 577 MGD waste daily. The report says, these STPs do not work to optimum capacity. They can treat only 514 out of 577 MGD of waste daily. It means, 11 per cent waste falls directly into the Yamuna. In other words, 206 MGD of waste out of a total of 720MGD of waste, falls into the river directly, untreated.

Delhi government had told the monitoring committee that its STPs would be able to treat 99 per cent of waste by June 2019, but more than two years have passed. The Interceptor Sewage project is presently only on paper. More than 40 lakh people live in 1700 colonies across Delhi. Only 561 colonies have sewer lines. From rest of the colonies, sewage gets dumped into Yamuna through drains directly. Pollutants found in solid waste at some locations are 760 times more than the “desirable level”.

What, then, is the solution? Broadly, it requires two important steps.

One, raise the water flow level in Yamuna round the year. It means, neighbouring states must release more water in Yamuna during the lean season. A report from National Institute of Hydrology, Roorkee, says Yamuna, in Delhi, requires 23 cusecs of water during lean season. Since there are inter-state agreements existing already, implementing this is not an easy job.

Two, more and more sewage and waste must be treated by installing more STPs. Work is already going on for installing STPs at Rithala, Kondli, Yamuna Vihar and Okhla. In coming years, 42 STPs are proposed to be installed. Moreover, in 595 colonies, sewer pipes are being laid, to ensure that sewage is treated before entering Yamuna.

A strong political and administrative will is the need of the hour. At present, this seems to be lacking. Policies (neeti) are framed, but the intent (neeyat) is lacking. Whether it was the BJP, or Congress, or AAP, all the three parties promised a cleaner Yamuna, but it did not happen.

On November 13, 2015, chief minister Arvind Kejriwal had gone to perform Yamuna Aarti at Yamuna Ghat, ISBT. He had then promised he would rejuvenate Yamuna in the next five years. The world saw on Monday what happened to that solemn promise. Both the Centre and states spent nearly Rs 5000 crore to clean up the Yamuna over the years. Loan was taken from Japan for this purpose. All the money has gone waste, it went down the drain that is called Yamuna. Since 1993, deadlines for cleaning Yamuna were set and then extended several times.

A new deadline has been set now. National Capital Region Planning Board has set 2026 as the year by which Yamuna will become clean. Delhi’s AAP government has promised to clean Yamuna by 2023. I think, until and unless all the three state governments work in tandem with the Centre, Yamuna cannot be cleaned. People will have to join this mission too. They must stop throwing waste into the Yamuna. Only then can we realize the dream of having a clean Yamuna river in Delhi.

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मुद्दा नमाज़ का: कैसे कुछ लोग विदेशों में भारत की छवि खराब करने पर आमादा हैं

AKB शुक्रवार को, मैंने अल जज़ीरा नेटवर्क पर भारत के बारे में एक खबर देखी, खबर की हेडलाइन थी, “भारत के गुड़गांव में शुक्रवार की नमाज़ वाली जगह पर मुसलमानों को जाने से रोका गया।” मिडिल ईस्ट में अलजज़ीरा एक बड़ा न्यूज नेटवर्क है जिसका मुख्यालय कतर में है। मुझे हैरानी हुई कि दिल्ली के नजदीक गुरुग्राम की एक स्थानीय घटना को एक विदेशी न्यूज नेटवर्क ने ऐसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया मानो भारत में मुसलमानों की नमाज़ पढ़ने की आज़ादी छीन ली गई हो।

मैने इंडिया टीवी के रिपोर्टर्स को इस स्थानीय घटना की तह तक जाने के लिए गुरुग्राम भेजा। जब डिटेल में गए तो पता चला कि बात बिल्कुल लोकल हैं। गुरुग्राम के सेक्टर 12ए में हर जुमे को मुस्लिम समुदाय के लोग सरकारी जमीन पर नमाज पढ़ने के लिए इकट्ठा होते हैं, और शांति से चले जाते हैं। लंबे वक्त से स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे थे। शुक्रवार को कुछ हिन्दू संगठनों ने उसी जगह पर गोवर्धन पूजा का ऐलान किया था, बात इतनी थी, जिसका फसाना बना दिया गया। लेकिन इस घटना को इस तरह पेश किया गया कि जैसे पूरे भारत में मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है और मुसलमानों को नमाज पढ़ने से रोका जा रहा है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है।

अल जज़ीरा ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गुरुग्राम में मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने से रोका गया। ये भी कहा गया कि जगह मुसलमान नमाज़ अदा करते थे वहां पर हिंदूवादी संगठनों ने अपना धार्मिक आयोजन किया। खबर में बताया गया कि स्थानीय प्रशासन ने पहले 37 सार्वजनिक जगहों पर मुसलमानों को नमाज पढ़ने की इजाजत दी थी, लेकिन अब इनमें से आठ जगहों पर नमाज पढने पर रोक लगा दी गई है। अल जजीरा ने जिस हेडर के साथ ये खबर छापी, उसमें लिखा था “इस्लामोफोबिया” (इस्लाम का भय). साफ तौर पर, दुनिया को गुमराह करने की कोशिश की जा रही थी कि भारत में मुसलमानों को दबाया जा रहा है और उन्हें नमाज नहीं पढ़ने दी जा रही।

इस पूरे घटनाक्रम में ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अल जज़ीरा की रिपोर्ट को AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने हाथोंहाथ लपक लिया। ओवैसी ने तुरंत ट्वीट किया, “गुड़गांव में शुक्रवार की नमाज के खिलाफ विरोध प्रदर्शन इस बात का सटीक उदाहरण है कि ये “प्रदर्शनकारी” कितने कट्टरपंथी हो गए हैं। यह मुसलमानों के प्रति साफ नफरत है। अपने मज़हब को मानना और हफ्ते में एक बार 15-20 मिनट के लिए जुम्मे की नमाज अदा करना कैसे किसी के खिलाफ हो सकता है?” ओवैसी ने अपने ट्वीट में अल जज़ीरा को भी टैग किया।

मुझे तो हैरानी इस बात पर हुई कि कैसे ओवैसी जैसे वकील बिना तथ्यों की गहराई में गए अल जज़ीरा की खबर पर मुहर लगा देते हैं। हैरानी इसलिए भी, क्योंकि आम तौर पर अन्रराष्ट्रीय मंचों पर ओबैसी हमेशा भारत के हक़ में परचम उठाते हैं। भारत के खिलाफ बात करने वालों को उतनी ही कड़ाई से जबाव देते हैं, जितने तीखे अंदाज में वह नरेन्द्र मोदी का विरोध करते हैं। लेकिन, गुरुग्राम की जमीनी हकीकत क्या है, ये मैं आपको बताता हूं।

गुरुग्राम के सेक्टर 12ए में शुक्रवार को दो हिंदू संगठनों, विश्व हिंदू परिषद और संयुक्त हिंदू संघर्ष समिति ने HUDA (हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण) के प्लॉट पर टेंट लगाया था। सैंकड़ों हिंदू भक्तों द्वारा गोवर्धन (भगवान कृष्ण) की एक मूर्ति रखी गई थी। मुसलमानों ने शांति बनाए रखने के लिए दूसरी जगह इकट्ठा होकर नमाज़ पढने का फैसला किया। कुछ मुसलमान तो हिन्दुओं के साथ ‘प्रसाद’ बांटने में भी शामिल हो गए और माहौल पूरी तरह से तनाव मुक्त था। न तो कोई टकराव हुआ और न ही कोई हंगामा।

ये सही है कि सेक्टर 47 में मुसलमान नमाज़ अदा नहीं कर सके क्योंकि पुलिस को शांति भंग होने की आशंका थी। अल जज़ीरा नेटवर्क ने इस बात का जिक्र तो किया, लेकिन इस बात का जिक्र नहीं किया कि शुक्रवार को ही गुरुग्राम में 20 सार्वजनिक स्थलों पर मुसलमानों ने जुमे की नमाज अदा की। न तो अल जज़ीरा और न ही ओवैसी ने यह बात कही। कुछ मुसलमानों ने सेक्टर 12ए में भी खुले में नमाज़ अदा की, लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया गया।

हमारे संवाददाताओँ ने स्थानीय मुसलमानों से बात की, जिन्होंने बताया कि पहले मुसलमान गुरुग्राम में 100 से अधिक सार्वजनिक स्थानों पर जुमे की नमाज अदा करते थे, लेकिन कुछ जगहों पर स्थानीय निवासियों ने पुलिस से शिकायत की। पुलिस, आरडब्ल्यूए और मुसलमानों के बीच बातचीत के बाद, गुरुग्राम में 37 सार्वजनिक स्थानों पर मुसलमानों को जुमे की नमाज़ अदा करने की अनुमति देने का निर्णय लिया गया। लेकिन स्थानीय निवासियों की तरफ से और शिकायतें आईं, और अंत में, मुसलमानों को 22 सार्वजनिक स्थानों पर जुमे की नमाज़ अदा करने की अनुमति दी गई।

BJP नेता कपिल मिश्रा ने बताया कि किसी के पास 37 सार्वजनिक जगहों पर नमाज़ पढने की लिखित अनुमति नहीं थी। कपिल मिश्रा का दावा है कि ये परमीशन 2018 में रमजान के दौरान सिर्फ एक दिन के लिए दी गई थी, बस इसी को आधार बनाकर स्थानीय मुसलमान सरकारी जमीन पर खुले में जुम्मे की नमाज़ पढ़ते रहे।

गुरुग्राम प्रशासन ने भी इस बात की पुष्टि की कि मुस्लिमों को 22 सार्वजनिक स्थानों पर जुमे की नमाज अदा करने की कोई लिखित अनुमति नहीं दी गई थी। प्रशासन का कहना है कि चूंकि सिर्फ ‘जुमे’ के दिन नमाज पढने का मसला था, इसलिए कोई सख्ती नहीं की गई।

हमारे रिपोर्टर ने एक स्थानीय मुस्लिम नेता हाजी हारिस से बात की, जिन्होंने कहा कि चूंकि जुमे की नमाज अदा करने वाले मुसलमानों की संख्या लगातार बढ रही है, इसलिए मस्जिदों के अंदर नमाज़ मुश्किल हो गया था। उन्होंने कहा, जुमे की नमाज अदा करने वालों में ज्यादातर प्रवासी मजदूर थे, न कि स्थानीय मुस्लिम।

एक अन्य मुस्लिम नेता हाजी शहज़ाद ने कहा कि गुरुग्राम में कई मस्जिदें बंद हो चुकी हैं, कहीं भैंस बांध दी, तो कहीं चारा भरा हुआ है, इस वजह से लोग खुले में नमाज़ अदा करते हैं। हमारे रिपोर्टर ने स्थानीय आरडब्ल्यूए पदाधिकारियों से बात की, जिन्होंने कहा, पहले दो चार लोग पार्क में नमाज पढने आते थे, फिर दो दर्जन आने लगे और अब सैकड़ों लोग आते हैं। इस वजह से सड़कें बंद हो जाती है और चूंकि सबके सब बाहरी होते हैं, इसलिए सुरक्षा को लेकर आशंका बनी रहती हैं।

मुझे यहां एक स्थानीय विवाद को लेकर इतने विस्तार में बात इसलिए करनी पड़ी क्योंकि ऐसी घटनाओं के जरिए ही पूरी दुनिया में भारत की सेक्युलर छवि को खऱाब करने की कोशिश की जाती है। इसी तरह की स्थानीय घटनाओं को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जाता है। इसी एक घटना के आधार पर अब असद्दुदीन ओबैसी जैसे कुछ लोग ये पूछ रहे हैं कि मुसलमानों से इतनी नफरत क्यों है। ओवैसी और उनके जैसे लोग तर्क दे रहे हैं कि हफ्ते में एक दिन सरकारी जमीन पर बैठकर कोई इबादत कर लेगा तो क्या चला जाएगा, वो लोग नमाज पढ़ने जाते हैं, सरकारी जमीन पर कब्जा तो नहीं कर रहे हैं।

ओवैसी अपनी जगह ठीक हो सकते हैं, लेकिन जब इबादत के लिए मस्जिद, मंदिर और चर्च बने हैं तो फिर सरकारी जमीन पर बैठकर इबादत करने की क्या जरूरत है? इसी तरह से तो विवाद ख़ड़े होते हैं। किसी भी धर्म के लोगो को सार्वजनिक जगहों पर प्रार्थना करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। क्या ओवैसी को यह जानकारी है कि इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, ट्यूनीशिया और फ्रांस में भी मुस्लिमों को सार्वजनिक जगहों पर नमाज की अनुमति नहीं है? इंडोनेशिया तो सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है, लेकिन फिर भी वहां पर मुस्लिमों को सड़क पर बैठकर नमाज पढ़ने की अनुमति नहीं है।

कानून सभी धर्मो के मानने वालों पर बराबर लागू होना चाहिए। सरकारी जमीन, सड़क, पार्क में या किसी भी सार्वजनिक जगह पर पूजा, नमाज, या इबादत की इजाज़त किसी को नहीं मिलनी चाहिए। अगर कोई इस तरह का काम करता है तो उसे समझाने की जिम्मेदारी पुलिस की है। इस तरह के मामलों में हिंदू या मुस्लिम नेताओं के कूदने की भी जरूरत नहीं है। अगर मुस्लिम नियमों का उल्लंघन करें तो हिंदुओं को भी बदले में वैसा ही करने का अधिकार नहीं मिल जाता। कानून सभी के लिए समान है। इन छोटी घटनाओं से टकराव होता है और देश की बड़ी बदनामी होती है।

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Muslim namaaz issue: How some people are trying to tarnish India’s image abroad

AKB4On Friday, I watched a report about India on Al Jazeera TV network. The headline said, ‘Muslims barred from Friday prayer sites in India’s Gurgaon’. Al Jazeera is a big news network in the Middle East, with its headquarters in Qatar. I was surprised how a small localized incident in Gurugram near Delhi, is being exaggerated by a foreign news network to say that Indian Muslims have lost their right to offer namaaz prayers.

I sent India TV reporters to Gurugram to find out the cause and extent of this localized incident. Every Friday afternoon, Muslims gather on a government plot in Sector 12A to offer namaaz and leave quietly. Local residents were opposing this. On Friday, some Hindu outfits organized Goverdhan Puja on the same plot of land, and the matter was blown out of proportion. It was reported as if Muslims in India are being persecuted and are not being allowed to offer prayers in public places, which is not so.

The Al Jazeera report said, Muslims were prevented from offering namaaz in Gurugram and pro-Hindu outfits organized a religious event on the land where Muslims used to offer namaaz. The report went on to say the local authorities had earlier allowed Muslims to offer namaaz at 37 public places, but prevented them from doing so at eight public places. The Al Jazeera report had a header titled “Islamophobia”. Clearly, it was an attempt to mislead the world that Muslims in India are not being allowed to offer prayers in public.

The unfortunate part is that this Al Jazeera report was taken up by AIMIM chief Asaduddin Owaisi, who immediately tweeted: “ Protests against Friday namaz in Gurgaon are a perfect case of how radicalized these “protesters” have become. It’s plain hatred towards Muslims. How’s practising my faith or offering Jumah namaz once a week for 15-20 mins hurting anyone?” Owaisi tagged Al Jazeera in his tweet.

I was surprised how a lawyer like Owaisi put his stamp of approval on Al Jazeera report without going into details. Surprised because Owaisi always takes up cudgels against India haters at international forums. Owaisi criticizes India haters with the same zeal with which he criticizes Narendra Modi. But, what was the ground reality in Gurugram?

In Sector 12A, on Friday, two Hindu outfits Vishwa Hindu Parishad and Samyukta Hindu Sangharsh Samiti, had put up tents on the plot of land owned by HUDA(Haryana Urban Development Authority). A statue of Goverdhan (Lord Krishna) was placed by several hundred Hindu devouts. Muslims decided to gather at another place to offer namaaz in order to maintain peace. Some Muslims even joined the Hindus in distributing ‘prasad’ and the atmosphere was free of tension.

In Sector 47 too, Muslims could not offer namaz because police apprehended breach of peace. While Al Jazeera network highlighted this, it did not mention the fact that on Friday, on nearly 20 plots of government land, Muslims offered Friday prayers in Gurugram. Neither Al Jazeera nor Owaisi highlighted this fact. Some Muslims even offered prayers at an open area in Sector 12 too, but even this fact was overlooked.

Our reporter spoke to local Muslims, who said, earlier Muslims used to offer Friday prayers in more than 100 public places in Gurugram, but in some places, local residents complained to police. After talks between police, RWAs and Muslims, it was decided to allow Muslims to offer Friday prayers at 37 public places in Gurugram. More complaints from residents were received, and finally, Muslims were allowed to offer Friday prayers at 22 public places.

BJP leader Kapil Mishra, however, said, that no written permission was given by authorities to Muslims to offer Friday prayers at 37 public places. He said, written permission was given, only once, during Ramzan in 2018, for a single day, but this was construed by local Muslims as standing permission for offering Friday prayers on government land.

The Gurugram administration, too, confirmed that no written permission was given to Muslims for offering Friday prayers on 22 plots of government land. Officials said, since it was a matter of Friday prayers, once a week, it was decided not to prevent Muslims from offering prayers.

Our reporter spoke to Haji Haris, a local Muslim leader, who said that since the number of Muslims offering Friday prayers has increased it was difficult to accommodate them inside mosques. Moreover, he said, most of those offering Friday prayers were migrant labourers and not local Muslim residents.

Another local Muslim leader Haji Shehzad said that several mosques were now closed because people were tying buffaloes and storing fodder in the compounds. Our reporter spoke to local RWA office bearers, who said, earlier the number was few, in dozens, but later it swelled to several hundreds. This caused traffic obstruction and roads had to be closed. Since most of them were outsiders, it was causing security concern for residents.

I am mentioning in detail a localized issue here because India’s secular image is sought to be tarnished by vested interests abroad. Reports about localized incidents are being unnecessarily exaggerated. On the basis of a single local incident, AIMIM chief Asaduddin Owaisi questioned why Muslims are being subject to hate. He and some other leaders are saying why praying for an hour in a public place on Friday every week is being objected to. Muslims are not going to occupy government land, they argue.

Owaisi may be right, but when devouts can pray inside mosques, temples and churches, why this insistence on praying on government land? It is only then that dispute arises. Followers of any religion must not be allowed to pray in public places. Does Owaisi know that Muslims are not allowed to offer prayers in public in Indonesia, Malaysia,Singapore, Tunisia and France? Indonesia has the highest number of Muslim population, but Muslims are not allowed to squat on roads to offer namaaz.

Law should apply equally to followers of all religions. They must not be allowed to occupy public places like roads, parks, public grounds, etc. for offering prayers in whichever religion they may follow. If some people do so, it is the responsibility of police to persuade them not to do so. There is no need for Hindu or Muslim religious leaders to jump into this debate. Goverdhan Puja should not have been allowed to take place on government land. If Muslims violate norms, Hindus have no right to do a similar act in return. The law is equal for all. Small incidents like these cause unnecessary confrontation and ultimately India’s image takes a dent.

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मोदी ने डीजल, पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी घटाई, अब वैट कम करें राज्य

akb

बुधवार की रात पेट्रोल और डीजल पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी में क्रमश: 5 रुपये और 10 रुपये प्रति लीटर की कमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से देश के लोगों को दीपावली का तोहफा है। जी20 और COP शिखर सम्मेलनों की व्यस्त और सफल यात्रा से प्रधानमंत्री के लौटने के कुछ ही घंटों बाद लिया गया यह निर्णय व्यस्तता के बावजूद लगातार काम करते रहने की उनकी क्षमता को दर्शाता है।

यह फैसला आम लोगों की समस्याओं के प्रति प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता और वक्त के हिसाब से निर्णय लेने की उनकी क्षमता को भी दर्शाता है।

यह एक ऐसा कदम है जो निश्चित रूप से उपभोक्ताओं और किसानों समेत समाज के सभी वर्गों को राहत देगा। एक्साइज ड्यूटी में कटौती के साथ ही केंद्र ने सभी राज्य सरकारों से पेट्रोल और डीजल पर वैट (value added tax) को कम करने का आग्रह किया है। NDA शासित 9 राज्यों ने बुधवार देर रात पेट्रोल और डीजल पर वैट में तत्काल कटौती की घोषणा भी कर दी।

उत्तर प्रदेश सरकार ने पेट्रोल और डीजल दोनों पर वैट घटाया और इनकी कीमतें 12 रुपये प्रति लीटर कम हो गईं। यूपी में पेट्रोल और डीजल पर वैट में क्रमश: 7 रुपये और 2 रुपये की कमी की गई है। इसी तरह उत्तराखंड, गुजरात, बिहार, कर्नाटक, असम, त्रिपुरा, गोवा और मणिपुर ने भी आम लोगों को राहत देते हुए पेट्रोल और डीजल दोनों पर वैट कम किया है।

केंद्र ने एक विज्ञप्ति में बुधवार को कहा कि उत्पाद शुल्क में यह कटौती ‘अर्थव्यवस्था को और रफ्तार देने के लिए की गई है। आज के फैसले से समग्र आर्थिक चक्र को और गति मिलने की उम्मीद है।’ विज्ञप्ति में कहा गया कि हाल के महीनों में, दुनिया भर में कच्चे तेल की कीमतों में उछाल देखा गया है। इसके कारण भारत में पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढी और इससे मुद्रास्फीति का दबाव बना। केंद्र ने कहा, इस कदम से बाजार में खपत को बढ़ावा मिलेगा और मुद्रास्फीति कम रहेगी, तथा इससे गरीब और मध्यम वर्ग को मदद मिलेगी।

केंद्र ने कहा, ‘भारतीय किसानों ने अपनी कड़ी मेहनत से लॉकडाउन के दौरान भी आर्थिक विकास की गति को बनाए रखा और अब डीजल सस्ता होने से आने वाले रबी फसल के लिए किसानों को राहत मिलेगी।’

गेंद अब गैर बीजेपी पार्टियों के पाले में है। तथ्यों की बात करें तो गरीबों, मध्यम वर्ग और किसानों की हितैषी होने का दिखावा करने वाले कई विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों की सरकारों ने अपने यहां पेट्रोल और डीजल पर वैट की दरें बहुत अधिक रखी हैं। ये विपक्षी दल केंद्र की लगातार आलोचना करते रहे हैं और ईंधन की कीमतें कम करने की मांग करते रहे हैं। अब उन्हें अपनी कथनी को करनी में भी बदलना होगा।

मिसाल के तौर पर आम आदमी पार्टी द्वारा शासित दिल्ली में पेट्रोल पर वैट 30 फीसदी है, शिव सेना शासित महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में यह 26 फीसदी से ज्यादा है और साथ ही 10.12 रुपये प्रति लीटर का एडिशनल टैक्स लगता है, तृणमूल कांग्रेस द्वारा शासित पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में पेट्रोल पर 25 फीसदी वैट या 13.12 रुपये प्रति लीटर (जो भी अधिक हो) वसूला जाता है, TRS शासन के तहत हैदराबाद में 35.20 प्रतिशत वैट लिया जाता है। कांग्रेस शासित राजस्थान में वैट की दर सबसे ज्यादा 36 फीसदी है और इसके अतिरिक्त 1,500 रुपये प्रति किलोलीटर भी वसूला जाता है।

विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में डीजल पर भी काफी ज्यादा वैट वसूला जाता है। इसकी तुलना गुजरात जैसे बीजेपी शासित राज्यों से करें तो वहां वैट की दर सिर्फ 20 फीसदी है। बुधवार की रात गुजरात सरकार ने वैट की इस दर को और कम कर दिया।

कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि अगर राज्य सरकारें पेट्रोल और डीजल पर वैट कम करें, तो ईंधन सस्ता हो सकता है। इस समय गैर-भाजपा शासित राज्यों में ईंधन पर वैट की दरें ज्यादा हैं।

कुल मिलाकर तस्वीर कुछ ऐसी है। पेट्रोल और डीजल का बेस प्राइस क्रमशः 47.28 रुपये और 49.36 रुपये प्रति लीटर है। इसकी ढुलाई के भाड़े के रूप में 28 से 30 पैसे जोड़ दिया जाए तो वैट और एक्साइज ड्यूटी को छोड़कर डीलरों को पेट्रोल और डीजल क्रमश: 47.58 रुपये और 49.64 रुपये का पड़ता है। बुधवार की रात सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी में कमी के बाद पेट्रोल और डीजल के लिए नई एक्साइज ड्यूटी 27.90 रुपये और 21.80 रुपये है। पेट्रोल और डीजल पर डीलर का कमीशन क्रमश: 3.90 रुपये और 2.61 रुपये प्रति लीटर होता है। पेट्रोल और डीजल पर वैट की दरें अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं और ये 14.37 रुपये से 25.31 रुपये प्रति लीटर के बीच हैं। उपभोक्ता को दिल्ली में पेट्रोल और डीजल के लिए क्रमशः 109.69 रुपये और 98.42 रुपये प्रति लीटर देने पड़ते हैं।

पेट्रोल और डीजल पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी को कम करने के लिए उठाया गया प्रधानमंत्री मोदी का यह कदम सही दिशा में उठाया गया एक सही कदम है। इससे हमारी अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी, जो कि पिछले साल अप्रैल में महामारी के कारण आई मंदी के बाद अब रफ्तार पकड़ने लगी है। इस खुशखबरी के साथ आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

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States should reduce VAT on petrol, diesel, after Modi reduced excise duty

akb

The reduction in central excise duty on petrol and diesel by Rs 5 and Rs 10 per litre on Wednesday night is a Diwali gift for the people from Prime Minister Narendra Modi. The decision taken only a few hours after the Prime Minister returned from a hectic and successful visit to G20 and COP summits, shows his ability of being constantly on the job even after busy schedules.

This decision also reflects the Prime Minister’s sensitivity towards the problems of common people and his ability to take decisions in real time.

This is a move that will surely give relief to consumers, farmers and all sections of society. Along with the excise duty cut, the Centre appealed to all state governments to reduce VAT on petrol and diesel accordingly. Nine NDA-ruled state immediately announced cuts in VAT on petrol and diesel, late on Wednesday night.

The UP government led from the front by slashing VAT on both petrol and diesel making them cheaper by Rs 12 per litre. VAT on petrol and diesel was reduced by Rs 7 and Rs 2 respectively in UP. Similarly, Uttarakhand, Gujarat, Bihar, Karnataka, Assam, Tripura, Goa and Manipur also reduced VAT on both petrol and diesel giving relief to the common people.

The Centre said this cut in excise duty was done “in order to give a further fillip to the economy. Today’s decision is expected to further spur the overall economic cycle”. Due to a global upsurge in crude oil prices, there has been increase in domestic prices of petrol and diesel in recent weeks and this has exerted inflationary pressure, a press release said. The Centre said, the move will boost consumption and keep inflation low, thus helping the poor and middle classes.

The Centre said, “The reduction in excise duty on diesel will come as a boost to farmers during the upcoming Rabi season. The Indian farmers, have, through their hard work, kept the economic growth momentum going even during the lockdown phase.”

The ball is now in the court of non-BJP parties. The fact is: many opposition-ruled state governments that pretend to take care of the poor, middle class and farmers, have kept VAT rates on petrol and diesel in their states too high. These opposition parties have been criticizing the Centre and had been demanding lowering of fuel prices. Now they will have to walk the talk.

For example, VAT on petrol in Delhi, ruled by AAP government is 30 pc, in Mumbai it is 26 pc plus additions Rs 10.12p per litre under Shiv Sena-led government, in Kolkata it is 25 pc or Rs 13.12p per litre, whichever is higher, under TMC rule, in Hyderabad it is as high as 35.20 pc under TRS rule. In Congress-ruled Rajasthan, VAT rates are as high as 36 per cent plus Rs 1,500 per kilolitre. VAT on diesel is similarly too high in opposition-ruled states. Compare this with the VAT rates in BJP-ruled states like Gujarat where the VAT rate is only 20 per cent. On Wednesday night, the Gujarat government reduced the VAT rate further.

The moot point is that if state governments reduce VAT on petrol and diesel, fuel can become cheaper. VAT rates on fuel are on the higher side in states ruled by non-BJP governments.

To give you a concise picture, the base prices of petrol and diesel are only Rs 47.28 and Rs 49.36 per litre respectively. Adding 28p to 30 p as freight charge, the price to dealers, excluding VAT and excise, comes to Rs 47.58 and Rs 49.64 for petrol and diesel respectively. After reduction of Central excise duty on Wednesday night, the new excise rates are Rs 27.90 and Rs 21.80 for petrol and diesel. Dealer commission comes to Rs 3.90 and Rs 2.61p for petrol and diesel. VAT rates differ from state to state and are in the range of Rs 14.37 to Rs Rs 25.31 per litre on diesel and petrol. The consumer ends up paying Rs 109.69 and Rs 98.42 in Delhi for petrol and diesel respectively.

The step taken to reduce Central excise duty on petrol and diesel, therefore, is a right step in the right direction by Prime Minister Modi. This is likely to give a fillip to our economy, that is already booming after the slowdown due to pandemic since April last year. A happy Diwali to all of you, on this bright note.

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उपचुनाव के नतीजों का मोदी की लोकप्रियता या महंगाई से कोई लेना-देना नहीं है

AKBआमतौर पर लोकसभा या विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले उपचुनाव सियासी हवा का रुख बताने का काम करते हैं। मंगलवार को लोकसभा की 3 सीटों और विधानसभा की 29 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे बीजेपी और कांग्रेस के लिए मिलेजुले रहे। फिर भी ये नतीजे आनेवाले महीनों में राजनीतिक उठापटक के संकेत हो सकते हैं।

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल की सभी 4 विधानसभा सीटों पर क्लीन स्वीप किया है जबकि असम में सीएम हेमंत विश्व शर्मा की अगुवाई वाली बीजेपी ने अपने सहयोगी दल के साथ मिलकर सभी 5 सीटों पर जीत दर्ज की है। मध्य प्रदेश में बीजेपी ने खंडवा लोकसभा सीट और 2 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की। इस जीत के साथ ही सीएम शिवराज सिंह चौहान ने भी दिखा दिया कि अभी भी राज्य के मतदाताओं पर उनकी पकड़ है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला और नतीजा ये रहा कि कांग्रेस दोनों विधानसभा सीटें जीतने में कामयाब रही। कर्नाटक में बीजेपी ने एक सीट पर जीत दर्ज की जबकि एक विधानसभा सीट पर उसे हार का मुंह देखना पड़ा।

सबसे अहम रिजल्ट बिहार का रहा जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) ने आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के प्रचार के बावजूद दोनों विधानसभा सीटों पर कड़े मुकाबले में जीत हासिल की। उधर, दादरा नगर हवेली लोकसभा सीट जीतकर शिवसेना ने पहली बार महाराष्ट्र के बाहर अपना खाता खोला।

एक राजनीतिक पर्यवेक्षक के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि किस पार्टी ने कितनी सीटें जीतीं बल्कि इससे ज्यादा मायने इस बात के हैं कि किसने कौन सी सीट जीती। बिहार में लालू प्रसाद यादव को उम्मीद थी कि वो अगर उपचुनाव में दोनों सीटें जीत गए तो नीतीश कुमार की नाक में दम कर देंगे, लेकिन वह नाकाम रहे। ममता बनर्जी ने बंगाल में बड़े अंतर से सीटें जीतीं। इनमें वे सीटें भी शामिल हैं जो 6 महीने पहले बीजेपी ने जीती थीं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने वह सीट जीत ली जहां बीजेपी को जीतने की कभी कोई उम्मीद नहीं होती थी। यहां बीजेपी ने उस आदिवासी सीट पर जीत हासिल की जहां पिछले 70 साल में सिर्फ एक बार बीजेपी को कामयाबी मिली थी। हिमाचल में बीजेपी की बुरी हार हुई। कांग्रेस ने यहां लोकसभा की एक और विधानसभा की 3 सीटों पर जीत दर्ज करते हुए क्लीन स्वीप कर दिया। लेकिन मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा कि हार मंहगाई की वजह से हुई। असम में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए ने सभी 5 सीटों पर जीत हासिल की। इस जीत ने साबित कर दिया कि बीजेपी हाईकमान द्वारा सीएम के तौर पर हिमंत बिस्वा सरमा का चयन गलत नहीं था। लेकिन कर्नाटक में नवनियुक्त मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई अपने गृह जिले हावेरी में हंगल विधानसभा सीट हार गए।

बिहार
राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव इन दिनों जेल से बाहर हैं और बिहार विधानसभा के लिए 2 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के दौरान उन्होंने पार्टी के लिए प्रचार भी किया। लालू ने दावा किया था कि वह नीतीश सरकार का ‘विसर्जन’ करने आए हैं। इन सीटों के नतीजे सियासी समीकरण बदल सकते थे। एक साल पहले दोनों सीटें JDU ने जीती थी लेकिन अगर इस उपचुनाव में दोनों सीटें आरजेडी जीत जाती तो नीतीश कुमार मुश्किल में पड़ सकते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जैसे-जैसे काउंटिंग का क्रम बढ़ता गया वैसे-वैसे दोनों सीटों पर उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर नजर आने लगी।

तारापुर में आरजेडी प्रत्याशी मतगणना के शुरुआती दौर बढ़त बनाए हुए थे लेकिन मतगणना के अंतिम दौर में परिणाम जेडीयू के पक्ष में गया। वहीं कुशेश्वर स्थान में पूरी मतगणना के दौरान जेडीयू मजबूत स्थिति में नजर आई। अंतत: दोनों सीटें जेडीयू के खाते में चली गईं। नोट करने वाली बात ये है कि इन सीटों पर कांग्रेस को चिराग पासवान की पार्टी से भी कम वोट मिले। वहीं आरजेडी की हार पर लालू के बेटे तेजप्रताप यादव ने कहा कि आरजेडी को कांग्रेस से गठबंधन करना चाहिए था। उन्होंने हार के लिए जगदानंद सिंह और शिवानंद तिवारी को जिम्मेदार ठहराया।

बिहार उपचुनाव के नतीजे निश्चित तौर पर लालू यादव और तेजस्वी यादव के लिए एक बड़ा झटका है। दोनों ये मानकर बैठे थे कि नीतीश कुमार से बिहार के लोग नाराज हैं और आरजेडी ये दोनों सीटें आसानी से जीत जाएगी। अगर वाकई में आरजेडी ये दो सीटें जीत जाती तो लालू नीतीश कुमार की सरकार को गिराने की कोशिश करते। रोज खबरें आती है कि वो जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी के लगातार संपर्क में हैं। ये दोनों जेडीयू के सहयोगी दल हैं। लेकिन जेडीयू ने दोनों सीटें जीतकर लालू और तेजस्वी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। चूंकि अब ये तय हो गया है कि नीतीश की सरकार आराम से चलेगी और ज्यादा खतरा नहीं है इसलिए अब आरजेडी को अपने विधायकों को एकजुट रखना जरा मुश्किल हो जाएगा। यह लालू के लिए बड़ी चुनौती होगी। एक मुश्किल ये भी है कि उपचुनाव में भले ही कांग्रेस की हालत खराब हुई हो लेकिन इससे आरजेडी और कांग्रेस के रिश्ते में दरार आई है। इसका फायदा भी नीतीश कुमार को मिलेगा। कुल मिलाकर बिहार उपचुनाव सिर्फ दो सीटों का था। लेकिन इसका असर दूर तक होगा।

मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने भी जीत का सिलसिला टूटने नहीं दिया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खंडवा लोकसभा सीट और तीन अन्य विधानसभा सीटों के लिए ऐसे प्रचार कर रहे थे मानो वह खुद इन सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहे हों। उन्होंने जबरदस्त मेहनत की और एक-एक सीट पर गए। उन्होंने अपनी सरकार के काम गिनाए और लोगों ने भी उनको सपोर्ट किया।

बीजेपी ने खंडवा लोकसभा सीट बड़े मार्जिन से जीत ली। इसके साथ ही पार्टी ने 2 विधानसभा सीटों पृथ्वीपुर और जोबट पर भी जीत दर्ज की जबकि कांग्रेस ने रैगांव सीट पर कब्जा किया। जीत से खुश चौहान ने कहा कि मध्य प्रदेश की जनता ने उनकी होली और दिवाली दोनों मनवा दी है। असल में जोबट और पृथ्वीपुर सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी और यहां से बीजेपी को जीतने की उम्मीद कम थी इसीलिए शिवराज ने कहा कि जिन 2 विधानसभा सीटों पर बीजेपी जीती है वह चमत्कार से कम नहीं है।

चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता कमलनाथ ने चौहान और पीएम मोदी का मजाक उड़ाया था। नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री ने कहा, कांग्रेस नेताओं को हवा में उड़ना बंद कर देना चाहिए। उधर, कमलनाथ ने कहा कि कांग्रेस का मुकाबला प्रशासन और पैसे से भी था। .कमलनाथ तो ज्यादातर चुनावी सभाओं में कहते थे कि शिवराज सिंह चौहान की कुर्सी सुरक्षित नहीं है। उपचुनाव में अगर बीजेपी सभी सीटें हार जाती हैं तो उन्हें दिल्ली बुला लिया जाएगा।

लेकिन मुझे लगता है कि मध्य प्रदेश के लोगों के बीच जमीन से जुड़े नेता, लोगों के साथ व्यक्तिगत संपर्क, ईमानदार और सरल स्वभाव वाले मुख्यमंत्री की छवि शिवराज सिंह चौहान के लिए काम आई। विपक्ष के आरोपों का असर नहीं हुआ। मध्य प्रदेश के उपचुनाव के नतीजों को दूसरे नजरिए से भी देखा जा सकता है। असल में मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने किसान आंदोलन को मुद्दा बनाया था। कृषि कानूनों का हवाला देकर बीजेपी को किसान विरोधी बताया था। कांग्रेस के नेता शिवराज सिंह चौहान की सरकार को दलित और आदिवासी विरोधी बता रहे थे लेकिन बीजेपी ने आदिवासी बहुल जोबट सीट पर भी जीत दर्ज की। यहां 90 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। बीजेपी ने 6,100 वोटों के अंतर से इस सीट को जीत लिया। सत्तर साल में ये दूसरा मौका है जब इस सीट पर बीजेपी जीती है। और इसका क्रेडिट शिवराज सिंह चौहान को मिलना चाहिए।

पश्चिम बंगाल
ममता बनर्जी ने उन सभी चारों विधानसभी सीटों पर जीत दर्ज कर ली जिसे कुछ महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने उनसे छीन ली थीं। जब वोटों की गिनती चल रही थी तो ट्रेंड देखकर मुझे भी हैरानी हुई। ऐसा लग रहा था जैसे ममता की पार्टी के उम्मीदवार के अलावा बाकी सबकी जमानत जब्त हो जाएगी और करीब-करीब ऐसा ही हुआ। बीजेपी समेत ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।

दिनहाटा सीट पर तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार उदयन गुहा ने 1 लाख 63 हजार वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। मतलब अकेले तृणमूल कंग्रेस के उम्मीदवार को 84 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले। अप्रैल में हुए विधानसभा चुनाव में इस सीट से बीजेपी सांसद और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री निशीथ प्रामाणिक ने जीत हासिल की थी। शांतिपुर विधानसभा सीट भी तृणमूल कांग्रेस ने 64 हजार से ज्यादा वोटों से जीती। छह महीने पहले इसी सीट से बीजेपी के जगन्नाथ सरकार जीते थे। लेकिन जगन्नाथ सरकार ने भी विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी थी। इसी तरह गोसाबा सीट पर ममता की पार्टी के सुब्रत मंडल ने एक लाख 43 हजार वोटों के अंतर से जीत हासिल की। यहां तृणमूल कांग्रेस को 87 प्रतिशत वोट मिले। खरदा सीट पर तृणमूल कांग्रेस के शोभनदेब चटर्जी 93 हजार से ज्यादा वोट से जीते।

इन 4 विधानसभा सीटों पर पड़े कुल वोटों का 75 प्रतिशत टीएमसी को मिला है। बीजेपी सिर्फ 14 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सकी जबकि कांग्रेस, लेफ्ट और दूसरी पार्टियों को कुल मिलाकर 11 प्रतिशत वोट मिले।

ममता बनर्जी ने जहां इसे ‘जनता की जीत’ बताया, वहीं बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि ममता के राज में विपक्षी उम्मीदवार पर्चा तो भरते हैं, लेकिन कैंपेन के दौरान उन्हें फर्जी शिकायतों के चलते पुलिस थानों और अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। उन्होंने कहा कि उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार के लिए वक्त ही नहीं मिलता। बीजेपी के नेता दिलीप घोष ने आरोप लगाया कि पश्चिम बंगाल में ममता की पार्टी को चुनाव पुलिस ने जितवाया, लोगों को डरा-धमकाकर वोट डलवाए गए।

ये कहा जा सकता है कि बीजेपी हारी, इसलिए उसके नेता इस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं, इस तरह के इल्जाम लगा रहे हं। आमतौर पर ऐसा होता भी है, लेकिन एक सीधी और सच्ची बात ये भी है कि बंगाल में लोकप्रियता के साथ साथ ममता का खौफ भी है। एक आम वोटर को ममता की पार्टी का डर है, तृणमूल कांग्रेस के काडर का भय है। मई में विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद तृणमूल कार्यकर्ताओं ने विपक्षी दलों के समर्थकों को निशाना बनाया और उनके घरों में तोड़फोड़ की। राज्य में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई, कई विपक्षी समर्थक मारे गए, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और यहां तक कि बलात्कार की घटनाएं भी सामने आईं।
बंगाल में विपक्षी समर्थक दहशत के माहौल में जी रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस के नेता जो बड़ी संख्या में बीजेपी में शामिल हुए थे, आतंक के इस माहौल के चलते ही ‘घर वापसी’ करने लगे और वापस ममता बनर्जी के खेमें में शामिल हो गए। सब जानते हैं कि अगले 5 साल तक बंगाल में ममता बनर्जी का ही शासन होगा, ऐसे में उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को नाराज करना समझदारी नहीं होगी। इसीलिए ममता की पार्टी को एकतरफा जीत मिली है, वरना किसी एक पार्टी के उम्मीदवार को विधानसभा उपचुनाव में 87 परर्सेंट वोट मिलना, ऐसा बहुत कम होता है।

असम
असम में भी उपचुनाव के नतीजे एकतरफा रहे और NDA ने सभी 5 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन बंगाल और असम के नतीजों में एक बुनियादी फर्क था। असम में नतीजे एकतरफा रहे, लेकिन वोटिंग एकतरफा नहीं हुई।

असम के आम मतदाताओं ने मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा पर पूरा भरोसा जताया है। 5 में से 3 सीटें बीजेपी ने जीतीं और अन्य 2 सीटों पर उसकी सहयोगी यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल ने जीत दर्ज की। असम में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस 2 विधानसभा सीटों पर तीसरे और चौथे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री ने जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘दूरदर्शी नेतृत्व’ को दिया।

उपचुनाव के इन नतीजों से बीजेपी में हिमंत विश्व शर्मा का सियासी कद यकीनन बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के हाथों अपमानित होने के बाद वह 6 साल पहले बीजेपी में आ गए थे। ममता बनर्जी की तरह हिमंत विश्व शर्मा भी एक लोकप्रिय और जमीन से जुड़े नेता हैं। ममता और हिमंत दोनों का राजनीतिक जड़ें कांग्रेस में हैं, लेकिन उनमें एक बुनियादी अंतर है। ममता ‘एकला चलो रे’ की नीति में भरोसा करती हैं, जबकि हिमंत सबको साथ लेकर चलने में यकीन करते हैं।

ममता ने बंगाल में अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराने के लिए धमकाने की रणनीति का सहारा लिया, जबकि असम में हिमंत ने कांग्रेस को मात देने के लिए अन्य दलों का समर्थन लिया। मेरा मानना है कि ममता की जीत वोटों के मामले में भले ही बड़ी रही हो, लेकिन हिमंत की जीत नैतिक रूप से ज्यादा बड़ी थी।

राजस्थान
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दोनों विधानसभा सीटों पर जीत हासिल कर फिलहाल अपने प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट से मिल रही सभी चुनौती को हल्का कर दिया है। कांग्रेस ने धारियावाड़ और वल्लभनगर दोनों सीटों पर जीत हासिल की। इन सीटों पर जहां निर्दलीय उम्मीदवारों ने अपनी चमक बिखेरी, वहीं बीजेपी उम्मीदवारों का प्रदर्शन काफी खराब रहा। बीजेपी को राजस्थान में एकजुट होकर काम करने की जरूरत है।

हिमाचल प्रदेश
हिमचाल प्रदेश में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर अपने गृह जनपद की मंडी लोकसभा सीट को भी बचाने में नाकाम रहे। कांग्रेस ने 3 विधानसभा सीटों के साथ मंडी की लोकसभा सीट पर भी जीत दर्ज की। मंडी में कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को मैदान में उतारा, जिन्होंने 7,490 मतों के मामूली अंतर से जीत हासिल की। यह सीट 2019 में बीजेपी के रामस्वरूप शर्मा ने जीती थी। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस महत्वपूर्ण लोकसभा सीट के लिए प्राचार की कमान खुद संभाली थी।

उपचुनावों में हार के बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा कि पार्टी हार के कारणों की समीक्षा करेगी, लेकिन फिलहाल ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस ने जिस तरह महंगाई को मुद्दा बनाया, उसका बीजेपी को नुकसान हुआ। हिमाचल प्रदेश के नतीजों को आगामी विधानसभा चुनाव के ट्रेलर के तौर पर लिया जाना चाहिए। ये नतीजे न तो जयराम ठाकुर के लिए शुभ संकेत हैं और न ही बीजेपी की स्टेट यूनिट के लिए।

मंडी दिवंगत कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह की परंपरागत सीट रही है, लेकिन यह भी सही है कि ये मुख्यमंत्री का गृह जनपद भी है। इसके अलावा अन्य तीन विधानसभा सीटों के आंकड़े भी बीजेपी के लिए चिंताजनक हैं। इन तीनों सीटों पर कांग्रेस को कुल मिलाकर 49 फीसदी वोट मिले, जबकि बीजेपी सिर्फ 28 फीसदी मतदाताओं का ही भरोसा जीत पाई। जयराम ठाकुर चुनावों में हार के लिए महंगाई को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। चुनावों में हार से ज्यादा यह बयान उनके लिए मुसीबत बन सकता है।

बाकी के नतीजों की बात करें तो आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की सत्तारूढ़ YSRCP ने बडवेल विधानसभा सीट बरकरार रखी, इंडियन नेशनल लोकदल के अभय चौटाला ने हरियाणा में ऐलनाबाद सीट पर जीत दर्ज की, कर्नाटक में बीजेपी और कांग्रेस ने एक-एक विधानसभा सीट जीती, महाराष्ट्र में देगलुर विधानसभा सीट पर कांग्रेस विजयी रही, मेघालय में NPP ने 2 और UDP ने एक सीट पर जीत हासिल की, MNF ने मिजोरम में एक सीट जीती और NDPP ने नागालैंड में एक सीट पर परचम लहराया। शिवसेना ने दादरा नगर हवेली के रूप में महाराष्ट्र के बाहर अपनी पहली लोकसभा सीट जीती।

जहां विरोधी दल जीते, वहां नेता कहने लगे कि ये मोदी की हार है। जहां बीजेपी जीती, वहां मुख्यमंत्रियों ने कहा कि हम मोदी की नीतियों की वजह से जीते। हालांकि दोनों जानते हैं कि इन चुनावों का मोदी की लोकप्रियता से या केंद्र सरकार की नीतियों से कोई लेना-देना नहीं है। कांग्रेस के कुछ नेता ये कहते सुनाई दिए कि बीजेपी को महंगाई मार गई, पेट्रोल के बढ़ते दाम घातक साबित हुए, और हिमाचल के मुख्यमंत्री तक ने यह बात कह दी। पर सवाल ये है कि क्या महंगाई हिमाचल में है और मध्य प्रदेश में नहीं है? क्या पेट्रोल के बढ़ते दामों का असर बंगाल में है और असम में बिल्कुल नहीं है? इसलिए इस तरह की बातें बेमानी है।

ये उपचुनाव स्थानीय मुद्दों पर स्थानीय नेताओं ने लड़े। जहां जिस मुख्यममंत्री ने ज्यादा मेहनत की, उसने अपने उम्मीदवारों को जिता दिया। इन उपचुनावों का न मोदी से कोई लेना देना है, न महंगाई से। उपचुनाव के जो नतीजे आए उनका असर मुख्यमंत्रियों के चुनाव जीतने की क्षमता पर जरूर दिखाई देगा। इसलिए बीजेपी में शिवराज सिंह चौहान और हिमंत बिस्वा सरमा मजबूत होंगे, जबकि विरोधी दलों में ममता बनर्जी और अशोक गहलोत का कद अब और बड़ा हो जाएगा। नीतीश कुमार अपनी सरकार बचाने में कामयाब होंगे और शिवसेना महाराष्ट्र से बाहर अपनी पहली लोकसभा सीट जीतने पर खुश होगी। इससे ज्यादा इन उपचुनावों का कोई मतलब नहीं है।

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Byelection results have nothing to do with Modi’s popularity or price rise

akb

Byelections usually act as straws in the wind before a state assembly election or Lok Sabha elections take place. On Tuesday, results for 3 Lok Sabha seats and 29 assembly seats across India came as a mixed bag for both BJP and the Congress. Nevertheless, the results could be pointers for political developments that are going to take place in the coming months.

Mamata Banerjee’s Trinamool Congress made a clean sweep of all four assembly seats in Bengal, while Assam BJP led by chief minister Himanta Biswa Sarma scored emphatic wins for his alliance on all the five assembly seats. Chief Minister Shivraj Singh Chouhan showed that he still continues to have a grip over Madhya Pradesh voters, winning the Khandwa Lok Sabha seat and two assembly seats. In Rajasthan, chief minister Ashok Gehlot led from the front and the Congress won both assembly seats. In Karnataka, BJP won one and lost the other assembly seat.

The most crucial results came from Bihar, where the ruling Janata Dal (United) led by chief minister Nitish Kumar won both the assembly seats in tough contests, despite campaigning by RJD supremo Lalu Prasad Yadav, who is presently out of jail. Shiv Sena opened its account for the first time outside Maharashtra winning the Dadra Nagar Haveli Lok Sabha seat.

For a political observer, it is not important which party won how many seats, but it is significant which party won which seat. Lalu Prasad Yadav had hoped that he could make life hell for Nitish Kumar, had he won both the assembly seats, but he came a cropper. Mamata Banerjee won seats by big margins in Bengal, which the BJP had won six months ago during the state assembly polls. In MP, Shivraj Singh Chouhan won the tribal-dominated seat which his party had won only once in the last 70 years. The Congress did a clean sweep of Mandi Lok Sabha seat and three other assembly seats in Himachal Pradesh defeating BJP, but chief minister Jairam Thakur said, the party lost because of price rise. In Assam, BJP-led NDA won all five assembly seats which proved that Himanta Biswa Sarma’s selection as chief minister by BJP high command was not wrong. But in Karnataka, the newly appointed CM Basavaraj Bommai lost the Hangal assembly seat in his home district Haveri.

BIHAR
RJD supremo Lalu Prasad Yadav, out of jail and campaigning for two assembly seats, had claimed that he had come to perform ‘visarjan’ (immersion) of Nitish Kumar’s government. Winning these two seats, which the JD(U) had won a year ago, was crucial for Nitish Kumar. Both the contests were fierce, with candidates from both parties going through a see-saw battle as counting progressed.

In Tarapur, the RJD was ahead in the initial rounds, but the final rounds went in favour of JD(U). In Kusheshwar Asthan, the JD(U) was in a stronger position during counting. The Congress candidate got lesser votes than what Chirag Paswan’s candidate got. Lalu’s estranged son Tej Pratap Yadav said, RJD should have allied with the Congress. He blamed Jagadanand Singh and Shivanand Tiwari for the defeat.

The results in Bihar were surely a big setback for Lalu and his political successor Tejashwi Yadav. Both of them had presumed that the people of Bihar were unhappy with Nitish Kumar and their party was sure to win. Had Lalu won both these seats, he would have tried to topple Nitish’s government. There were reports of RJD trying to strike deals with Jitanram Manjhi and Mukesh Sahni, both allies of JD(U). Now with both seats gone, RJD may have a tough time in keeping its flock of legislators together. There is one more outcome. Prospects of future alliance between Congress and RJD in Bihar have now become thin.

MADHYA PRADESH

Chief Minister Shivraj Singh Chouhan had been campaigning for Khandwa LS seat and three other assembly seats as if he was himself contesting all these seats. The results showed that his efforts proved fruitful.

The BJP candidate won by a big margin from Khandwa, and the party won two assembly seats Prithvipur and Jobat. Congress won the Raigaon seat. An elated Chouhan said the people of his state has given him a chance to celebrate both Diwali and Holi at the same time. He said, the party’s win on the two assembly seats, considered Congress strongholds, were nothing short of magic.

During campaigning, Congress leader Kamal Nath had made fun of Chouhan and PM Modi. After the results were out, the chief minister said, Congress leaders should stop flying in air. On the other hand, Kamal Nath said, the party’s fight was against money and administration. Kamal Nath was telling crowds at election meetings that Chouhan would lose his chief ministership and will be called back to Delhi, if BJP lost all the seats.

Finally, Shivraj Singh Chouhan’s image of a hardworking, simple and honest leader, having personal connect with voters, paid dividends. Charges levelled by opposition did not stick. The results should be viewed from another angle too. The Congress had made the new farm bills an issue before the electorate. It had painted the BJP as anti-farmer, anti-Dalit and anti-tribal. But the result from Jobat, a scheduled tribe reserved seat, having 90 per cent tribals, surprised many. The BJP won this seat by a margin of 6,100 votes. This was the second time in last 70 years, when the BJP won this tribal seat. The credit for this win rightly goes to Shivraj Singh Chouhan.

WEST BENGAL
Mamata Banerjee wrested all the four assembly seats that the BJP had won a few months back during the state assembly elections. As counting progressed, I was astonished to find Trinamool Congress candidates leading by huge margins on all seats. Most of the candidates, including those from BJP, lost their deposits.

The Dinhata seat was won in April this year by BJP MP and Union Minister of State Nishith Pramanik, but this time, the TMC candidate Udayan Guha, won by a huge margin of 1,63,000 votes. He polled nearly 84 per cent votes. The Shantipur assembly seat was won by TMC by a margin of more than 64 thousand votes. This seat was won in April by BJP’s Jagannath Sarkar. The Gosaba seat was won by TMC candidate Subrata Mondal by a margin of 1,43,000 votes. He polled 87 per cent of total votes. The Khardah seat was won by Sovandeb Chatterjee by a margin of nearly 94 thousand votes.

Cumulatively, taking into account figures from all the four assembly seats, TMC polled 75 per cent and BJP polled 14 per cent votes. Congress, Left and others could hardly poll 11 pc votes.

While Mamata Banerjee described it as a ‘victory of the people’, BJP leader Kailash Vijayvargiya said, in Mamata’s regime, opposition candidates file nominations, but during campaign time, they have to make rounds of police stations and courts because of fake complaints. Candidates do not get time for campaigning, he said. BJP leader Dilip Ghosh alleged that police helped TMC to win and voters were intimidated.

The reactions from BJP leaders were on expected lines, but the fact remains that across the state, Mamata’s image is both popular and fearsome. The common voters are afraid of the intimidating tactics of Mamata’s party cadre. TMC workers had gone on rampage soon after the assembly polls in May, ransacking homes and targeting opposition supporters. There was widespread violence and several opposition supporters were killed, their womenfolk molested and even raped.

Opposition supporters in Bengal are living in an atmosphere of terror. It was because of this reign of terror that a large number of TMC leaders who had joined BJP, ditched the latter and have rejoined Mamata’s camp. The common voter knows that Mamata is set to rule Bengal for another five years and it would not be wise to annoy her party workers. This was a one-sided victory, because rarely in assembly byelections a candidate polls 87 per cent votes. A rarity.

ASSAM

In Assam too, the byelections results were one-sided with NDA winning all five assembly seats. But there was a basic difference with Bengal. The winning margins were not large in Assam.

The common voters of Assam have shown their faith in chief minister Himanta Biswa Sarma. Three seats were won by BJP and the other two seats were won by its ally, United People’s Party Liberal. The main opposition party in Asssam, Congress, stood third and fourth in two assembly seats. The chief minister credited the victory to “the visionary leadership” of Prime Minister Narendra Modi.

The results will surely raise the stature of Himanta Biswa Sarma in BJP, the party he had joined six years ago, after being snubbed by Congress leader Rahul Gandhi. Like Mamata Banerjee, Himanta Biswa Sarma is a popular leader and he has a connect with his roots. Both Mamata and Himanta have their political origin in Congress, but there is a basic difference. Mamata believes in “Ekla Chalo Re” policy, while Himanta believes in taking everybody with him.

In Bengal, Mamata resorted to intimidating tactics against her rivals, while in Assam, Himanta took support from other parties to corner Congress. I believe, Mamata’s victory may have been bigger in terms of votes, but Himanta’s win was larger, morally.

RAJASTHAN

In Rajasthan, chief minister Ashok Gehlot, by winning both the assembly seats, has, for the time being, fended off all challenges from his rival Sachin Pilot. Congress won both the seats, Dhariawad and Vallabhnagar, but independent candidates shone, and BJP candidates performed poorly. BJP needs to put its act together in Rajasthan.

HIMACHAL PRADESH

In Himachal Pradesh, chief minister Jairam Thakur failed to retain the crucial Mandi Lok Sabha seat, which falls in his home district. Congress made a clean sweep of the Lok Sabha seat along with three assembly seats. In Mandi, Congress fielded former CM Virbhadra Singh’s widow Pratibha Singh, who won by a slim margin of 7,490 votes. This seat was won in 2019 by BJP’s Ramswaroop Sharma. Chief Minister Jairam Thakur was in charge of campaigning for this crucial Lok Sabha seat.

After the defeat, the CM said, the party would analyse the reasons, but for now, he could say that the Congress made price rise a big issue during the byelection. The results from HP should be taken as a trailer for the forthcoming assembly elections. The results are not a good sign, both for Jairam Thakur and the state BJP.

Mandi is considered a traditional seat of former CM late Virbhadra Singh, but it also falls in Jairam Thakur’s home district. Moreover, the figures from other three assembly seats are alarming for BJP. Cumulatively, Congress got 49 per cent votes from these three seats, while BJP got 28 pc votes. Jairam Thakur’s remark blaming price rise for the defeat, may cause him more harm than the result itself.

Among other results, the ruling YSRCP of Jaganmohan Reddy retained Badvel assembly seat, INLD’s Abhay Chautala retained his Ellenabad seat in Haryana, BJP and Congress won one assembly seat each in Karnataka, Congress won Deglur assembly seat in Maharashtra, NPP won two and UDP won one seat in Meghalaya, MNF won one seat in Mizoram, and NDPP won one assembly seat in Nagaland. Shiv Sena won its first Lok Sabha seat outside Maharashtra, from Dadra Nagar Haveli.

Wherever opposition parties won, their leaders described it as Modi’s defeat, and where BJP won, its leaders said they won because of Modi’s leadership. Both camps know it very well that these byelections had nothing to do with Modi’s popularity or his government’s policies at the Centre. Some Congress leaders said, BJP lost because of rising fuel prices, and the BJP chief minister in Himachal Pradesh said so, in so many words. The question is: Was price rise a matter of concern in HP, and not in MP? Are rising fuel prices a matter of concern in Bengal and not in Assam? The argument about fuel price hike, therefore, becomes meaningless.

The byelections were fought on local issues by state leaders. Wherever the chief ministers toiled hard, they showed good results. These byelections results have nothing to do with Modi nor with price rise. The byelections results reflect the election winning capability of the chief ministers. Among BJP CMs, the stature of Shivraj Singh Chouhan and Himanta Biswa Sarma may surely rise, while among opposition CMs, Mamata Banerjee and Ashok Gehlot may emerge stronger. Nitish Kumar will manage to save his government and Shiv Sena may rejoice over its first win outside Maharashtra. The byelections results should not be read beyond these limitations.

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