अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ने और काबुल एयरपोर्ट पर तालिबान का पूरा कंट्रोल होने के बाद अब हालात तेजी से बदल रहे हैं। काबुल पहुंचने के बाद तालिबान ने अपनी सार्वजनिक घोषणाओं में नरम रुख अपनाने की बात कही थी, लेकिन अब तालिबान ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। तालिबान ने उन अफगानों के घरों के बाहर नोटिस चिपकाए हैं, जिन्होंने अमेरिका की मदद की थी। नोटिस के जरिए इन लोगों को तालिबान की अदालत में पेश होने के लिए समन जारी किया गया है। नोटिस पर अमल नहीं करनेवालों के परिजनों को जान से मारने की धमकी दी गई है।
खबर है कि तालिबान ने करीब 40 हजार उन अफगानों का बायोमेट्रिक डेटाबेस हासिल कर लिया है जिन्होंने इससे पहले के शासन में अमेरिका की मदद की थी। ये कयास लगाए जा रहे हैं कि तालिबान इस डेटाबेस के आधार पर उन लोगों से बदला ले सकता है।
इस बीच अमेरिकी राष्ट्रपति जो बायडेन ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा कि उनके सामने अफगानिस्तान से सेना की वापसी ही एकमात्र सबसे अच्छा विकल्प बचा था। बायडेन ने कहा, ‘अफगानिस्तान से निकलने की 31 अगस्त की डेडलाइन कोई मनमाने ढंग से तय नहीं की गई थी। अमेरिकी नागरिकों की जान बचाने के लिए इस डेडलाइन की रूपरेखा बनाई गई थी। मेरे पूर्ववर्ती राष्ट्रपति ने एक मई तक अफगनिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने को लेकर तालिबान के साथ एक समझौते पर दस्तखत किया था।’
बायडेन ने कहा, ‘पिछली सरकार ने जो समझौता किया था उसके मुताबिक, अगर अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना को हटाने की 1 मई तक की समयसीमा पर कायम रहता है, तो तालिबान अमेरिकी सेना पर हमला नहीं करेगा। लेकिन यदि हम रुके रहे तो फिर सारे दांव बदल जाएंगे। इसलिए हमारे सामने सिर्फ एक आसान सा फैसला करना था – वो ये कि या तो पिछली सरकार द्वारा किये गए वादों का पालन करें और अफगानिस्तान छोड़ दें, या फिर ये कहें कि हम अफगानिस्तान नहीं छोड़ रहे हैं और अपने हजारों और सैनिकों को इस जंग में झोंक दें। अब हमें इन्हीं दो में से एक विकल्प चुनना था, कि फिर से जंग में लौटना है या अपनी सेना को अफगानिस्तान से हटाना है। मैं इस जंग को हमेशा के लिए बढ़ाना नहीं चाहता था। मैं वहां से बाहर निकलने की मियाद को भी बढ़ाने के पक्ष में नहीं था।’
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि वह इस फैसले की पूरी जिम्मेदारी खुद लेते हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं इस फैसले की पूरी जिम्मेदारी लेता हूं। अब कुछ लोग ये कह रहे हैं कि हमें वहां से लोगों को निकालने का काम कुछ पहले शुरू कर देना चाहिए था, ये भी कहा जा रहा है कि क्या हम इसे ज्यादा व्यवस्थित तरीके से नहीं कर सकते थे? मैं इस बात से असहमत हूं। आप कल्पना कीजिए कि अगर हमने जून या जुलाई में लोगों को निकालने का काम शुरू किया होता तो गृहयुद्ध के बीच हमें हजारों अमेरिकी सैनिकों के साथ-साथ एक लाख 20 हजार अफगानों को वहां से निकालना पड़ता। एयरपोर्ट पर तब भी काफी भीड़ होती। सरकार पर लोगों का भरोसा टूट जाता और सत्ता पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो जाता। ऐसे में यह मिशन बेहद कठिन और खतरनाक साबित होता।’
बायडेन ने आईएसआईएस (खुरासान) के आतंकियों को सख्त चेतावनी भी दी। उन्होंने कहा, ‘हम अफगानिस्तान और अन्य देशों में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे। हमें इसके लिए जमीनी युद्ध लड़ने की जरूरत नहीं है। हमारे पास अन्य क्षमताएं भी हैं। जरूरत पड़ने पर हम जमीन पर अमेरिकी सैनिकों को उतारे बिना भी आतंकवादियों और अन्य लक्ष्यों पर हमला कर सकते हैं। हमने पिछले हफ्ते ही अपनी क्षमता का परिचय दिया। हमने तब आईएसआईएस-के को दूर से ही मारा, जब उन्होंने हमारे 13 सैनिकों और दर्जनों निर्दोष अफगानों की हत्या कर दी थी। साथ ही हम आईएसआईएस (खुरासान) को बताना चाहते हैं कि अभी तुम्हारा हिसाब होना बाकी है।’
बायडेन के इन वादों के बावजूद अफगानिस्तान में जमीनी हालात भयावह हैं। पूरे अफगानिस्तान में खाने-पीने के चीजों की भारी कमी हो गई है। यहां हजारों लोग रोटी और खाने के लिए तड़प रहे हैं। एक-एक रोटी के लिए मारकाट मची हुई है। एक-एक निवाले के लिए जद्दोजहद हो रही है। काबुल और अन्य शहरों में एटीएम से पैसे निकालने के लिए लोगों की लंबी कतारें दिख रही हैं, लेकिन अधिकांश बैंकों में कैश खत्म हो चुका है।
ऐसी खबरें हैं कि तालिबान के लड़ाके घरों में घुसकर पिछली सरकार का समर्थन करनेवालों को घसीटकर बाहर निकाल रहे हैं और उन्हें वहीं गोली मार दे रहे हैं। कुछ लोगों की जीभ काट दी गई। एक जाने-माने अफगान लोकगायक फवाद अंद्राबी को काबुल से 100 किलोमीटर दूर उनके घर के पास कत्ल कर दिया गया। तालिबान के लड़ाके उनके घर गए, उनके साथ चाय पी, फिर उन्हें घसीटकर घर के बाहर ले गए और एक दहशतजदा भीड़ के सामने उनके सिर में गोली मार दी। एक वीडियो सामने आया है जिसमें तालिबान के लड़ाके एक टीवी न्यूज एंकर के पीछे राइफल लेकर खड़े हैं। एक तलिबान समर्थक के साथ डिबेट कर रहा वह न्यूज एंकर डर के मारे कांप रहा था।
अगस्त के मध्य में एक महिला टीवी न्यूज एंकर बहिश्ता अरघंद ने तालिबान नेता मौलवी अब्दुल हक हेमाद का स्टूडियो में इंटरव्यू लिया और इसके बाद वह चुपचाप देश छोड़कर चली गईं। बहिश्ता ने कहा कि उन्हें अपनी जान का डर था और काबुल अब महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रहा।
सबसे मजेदार बात यह है कि जहां जमीनी हालात अफगान पुरुषों और महिलाओं के लिए एक जैसे खौफनाक हैं, वहीं पाकिस्तान में प्रधानमंत्री इमरान खान से लेकर क्रिकेटर शाहिद अफरीदी तक तालिबान की तारीफों के पुल बांध रहे हैं। अफरीदी ने पाकिस्तानी मीडिया से कहा, ‘तालिबान बेहद पॉजिटिव मूड के साथ आए हैं। वे महिलाओं को काम करने दे रहे हैं। मेरा मानना है कि तालिबान को क्रिकेट बहुत पसंद है।’ अफरीदी को अफगानिस्तान का दौरा करना चाहिए और अफगान महिलाओं से मिलना चाहिए ताकि उन्हें पता चल सके कि वे तालिबान के बारे में क्या सोचती हैं।
लगता है तालिबान को लेकर पाकिस्तान ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली है। पाकिस्तान के हुक्मरानों को लगता है कि तालिबान उनके सीने पर लगा कोई तमगा है जिससे वे हिंदुस्तान को डरा देंगे। वे बिना सोचे-समझे तालिबान की हर हरकत को सपोर्ट करने में लगे हैं।
हैरानी इस बात की है कि पाकिस्तान कहता है कि हम तालिबान की फितरत को जानते हैं और अगर दुनिया ने उसका साथ नहीं दिया तो वह पुराने रास्ते पर चला जाएगा। पाकिस्तानी हुक्मरान कहते हैं अगर अमेरिका ने तालिबान को सपोर्ट नहीं किया तो वह फिर से 9/11 के रास्ते पर चला जाएगा, अगर भारत ने उसे मान्यता नहीं दी तो वह अलगाववादियों को समर्थन देकर कश्मीर में गड़बड़ करवाएगा। अब यह धमकी नहीं तो क्या है? यह सरासर भारत को ब्लैकमेल करने की कोशिश है। सच्चाई यह है कि आज अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का कब्जा है और उसकी फितरत बंदूक से, जोर जबरदस्ती से हुकूमत चलाने की है। अब अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (खुरासान) है, अल कायदा है, जैश-ए-मोहम्मद है, लश्कर-ए-तैयबा है। अब जहां दहशतगर्दी की ऐसी-ऐसी तंजीमें मौजूद हो वहां शांति की बात करना बेमानी है।
अमेरिका को अफगानिस्तान से एक न एक दिन जाना था, लेकिन वे इस तरह से जाएंगे, इतने बेगैरत होकर जाएंगे, ये किसी ने नहीं सोचा था। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के सवाल पर चाहे बराक ओबामा हों, डॉनल्ड ट्रंप हों या फिर जो बायडेन, तीनों अमेरिकी राष्ट्रपति सेम पेज पर थे। सबका मानना था कि अब बहुत हो गया। उनका कहना था कि अफगानिस्तान में जंग खत्म हो गई, ओसामा को मारकर बदला ले लिया गया, अफगान सेना को प्रशिक्षित कर दिया गया, हथियार दे दिए गए, लोकतांत्रिक शासन आ गया, इसलिए अब वहां रुकने का मतलब नहीं।
आम अमेरिकियों में भी यही भावना थी कि सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला लिया जाए। इसीलिए पहले ओबामा ने, फिर डॉनल्ड ट्रंप ने और आखिर में जो बायडेन ने अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की योजना बनाई। लेकिन उन योजनाओं का क्या हश्र हुआ? अमेरिकी फौज ने बिना किसी सही योजना के जिस तरह जल्दबाजी में अफगानिस्तान छोड़ा, जितनी हड़बड़ी दिखाई, उसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। यहां तक कि तालिबान और अफगान सेना को भी उम्मीद नहीं थी कि अमेरिका ऐसे हड़बड़ी में अफगानिस्तान छोड़ेगा। यही वजह है कि जब अमेरिका के आखिरी मिलिट्री प्लेन ने काबुल से उड़ान भरी तो काबुल में तालिबान ने जमकर फायरिंग करते हुए जश्न मनाया।
इस घटनाक्रम के बीच भारत कहां खड़ा है? मंगलवार को कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने तालिबान की गुजारिश के बाद दोहा में तालिबान नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई से मुलाकात की। स्तानिकजई ने भारतीय राजदूत से वादा किया कि तालिबान सभी भारतीय नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, भारत आने के इच्छुक अफगानों को सेफ पैसेज देगा और पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों को भारत के खिलाफ अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल नहीं करने देगा। हाथ कंगन को आरसी क्या? भारत को अभी ‘वेट ऐंड वॉच’ की रणनीति अपनानी होगी।
तालिबान के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लेना चाहते। उन्होंने पहले ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल, विदेश मंत्री एस. जयशंकर, और पीएमओ एवं विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से मिलकर एक हाई-लेवल ग्रुप बनाया है। यह ग्रुप अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर कड़ी नजर रखेगा और उसके आधार पर भारत के रुख को तय करेगा।
मोदी ने इस ग्रुप को सबसे पहले अफगानिस्तान में भारत की प्राथमिकताएं तय करने को कहा है। इस ग्रुप की पिछले कुछ दिनों से लगातार बैठकें हो रही थीं, जिनमें तय किया गया कि सबसे पहले अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी, उसके बाद यह सुनिश्चित करना होगा कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आंतकी साजिशें रचने में न हो। अभी तक, भारत सहित दुनिया के अधिकांश देश तालिबान को लेकर सतर्क हैं। वे कोई भी फैसला लेने से पहले थोड़ा इंतजार करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि आने वाले दिनों में तालिबान सरकार कैसे काम करती है।