Rajat Sharma

20 साल बाद फिर तालिबान: अफगानिस्तान में कैसे फेल हुआ अमेरिका?

rajat-sir अफगानिस्तान के काबुल एयरपोर्ट से सोमवार को कुछ ऐसी तस्वीरें आईं जिन्हें दुनिया कभी नहीं भूल पाएगी। एयरपोर्ट पर चारों तरफ जबरदस्त अफरा-तफरी का माहौल था। हजारों लोगों की भीड़ हवाई जहाजों में सवार होने के लिए जद्दोजहद कर रही थी। लोग किसी भी कीमत पर, किसी भी हवाई जहाज में चढ़कर देश से बाहर जाना चाह रहे थे। जहाज में घुसने की इजाजत नहीं मिल थी, इसलिए लोग हवाई जहाज के पहियों पर लटककर, हवाई जहाज के विंग्स पर बैठ रहे थे और विमान के उड़ान भरते ही आसमान से लाशें गिर रही थीं। काबुल एयरपोर्ट पर अमेरिकी वायुसेना के विमान के उड़ान भरते ही दो लोगों के विमान से नीचे गिरने की तस्वीर ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया।

एक अन्य तस्वीर में सैकड़ों अफगान नागरिक उड़ान भरने के लिए रनवे की ओर जा रहे विमान के साथ-साथ दौड़ते नजर आए। सोशल मीडिया पर शेयर की गई ये तस्वीरें वाकई डरानेवाली हैं।

एक तरफ यह दावा किया जा रहा है कि अफगानिस्तान में बहुत शान्तिपूर्ण तरीके से सत्ता परिवर्तन हो गया। काबुल में गोलियां नहीं चलीं और कोई खून-खराबा नहीं हुआ। देश छोड़ने के लिए 200 से ज्यादा अफगान नेताओं को सेफ पैसेज दिया गया। कुछ सांसद भारत भी आए हैं। अधिकांश सैनिकों ने अपने हथियार और अन्य साजो-सामान के साथ खुद को तालिबान के सामने सरेंडर कर दिया। इन्हें तालिबान ने जीवन दान दे दिया। अफगान सेना के कई कमांडर भी देश छोड़कर चले गए। वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान की आम जनता खौफजदा और हताश है। तालिबान की वापसी ने लोगों की जिंदगी में मौत का खौफ भर दिया है। वे तालिबान से बचने के लिए भाग रहे हैं।

ऐसी सैकड़ों तस्वीरें और वीडियो हैं जिसमें आम अफगानियों को रोते-चिल्लाते, माता-पिता को अपने बच्चों को गले लगाकर दौड़ते हुए, भोजन या अन्य मदद के लिए इंतजार करते हुए या फिर देश से बाहर निकलने की बेताबी साफ दिखती है। इनके नेताओं ने इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया है। जो अमेरिका उन्हें सुरक्षा और एक बेहतर जीवन दे रहा था उसने भी इन लोगों को अधर में छोड़ दिया है। अब अफगानिस्तान की जनता को अपना भविष्य अनिश्चित दिख रहा है।

अमेरिकी एयरफोर्स का ट्रांसपोर्ट विमान काबुल हवाई अड्डे से उड़ान भरनेवाला था। लेकिन वहां मौजूद भीड़ विमान में दाखिल होना चाहती थी। कुछ लोग उसके पहियों के पास चिपककर बैठे गए और फिर विमान के उड़ान भरने के बाद दो लोगों के आसमान से गिरने की बेहद डरावनी तस्वीरें सामने आईं। काबुल में घरों की छतों पर लोगों के गिरकर मरने की तस्वीरें आईं। उड़ान भरने के लिए विमान के रनवे की तरफ बढ़ते ही लोग विमान के दाएं-बाएं, आगे-पीछे दौड़ रहे थे। वे किसी भी तरह विमान में सवार होना चाहते थे। वहां तैनात अमेरिकी सैनिकों ने अपनी मशीनगनें संभाल ली और लोगों को विमान से दूर हटने की चेतावनी दी। जवानों ने पहले आंसू के गोले दागे और फिर हवा में फायर भी किया। इसके बाद हुई फायरिंग में सात लोगों की मौत हो गई।

काबुल एयरपोर्ट पर अभी-भी अमेरिकी सेना का नियंत्रण है, जहां से फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली और न्यूजीलैंड वायु सेना के विमानों ने रात में अपने नागरिकों को निकाला। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बायडेन ने राष्ट्र के नाम एक संबोधन में तालिबान को चेतावनी दी कि ‘अगर अमेरिकी नागरिकों पर हमला किया गया या फिर या हमारे अभियान में बाधा डाली गई तो त्वरित और जोरदार जवाब दिया जाएगा।’ उन्होंने तालिबान से कहा कि वह काबुल से हजारों अमेरिकी राजनयिकों और अफगान अनुवादकों के सुरक्षित निकलने की प्रक्रिया बाधित न करे या उन्हें धमकी न दे। बाइडेन ने कहा, ‘अगर जरूरी हुआ तो हम विध्वंसकारी बल के साथ अपने लोगों की रक्षा करेंगे।’

भारत ने काबुल से अपने कर्मचारियों को वापस लाने के लिए वायुसेना के दो ग्लोबमास्टर ट्रांसपोर्ट विमान को भेजा है। एक विमान सोमवार को ईरान के रास्ते दिल्ली लौटा और दूसरा विमान आज वापस लौट रहा है। तालिबान के कब्जे के बाद दिल्ली लौटी कई अफगान महिलाओं ने अपने देश के भयावह हालात के बारे में मीडियाकर्मियों को बताया। उनके माता-पिता ने उन्हें वापस नहीं लौटने के लिए कहा है। इनमें से कई लड़कियों ने तालिबान के क्रूर शासन के दिन नहीं देखे हैं, क्योंकि इनमें से कई का जन्म उस समय नहीं हुआ था।

सबसे आश्चर्य की बात तो ये रही कि पिछले दो दशकों के दौरान अमेरिका ने जिस सेना को ट्रेनिंग दी, उन्हें हाथियार और अन्य उपकरण उपलब्ध कराए, उसने इतनी जल्दी सरेंडर कर दिया। अफगान सेना के ज्यादातर कमांडरों ने बिना गोली चलाए अपने हथियार डाल दिए। अगर कागजी आंकड़ों की बात करें तो अमेरिकी सेना ने तालिबान से निपटने के लिए लगभग 3.5 लाख अफगान सैनिकों को ट्रेनिंग दी थी जबकि असल संख्या करीब 70,000 है। अफगान सेना के पास अमेरिका में बने लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, बख्तरबंद वाहन, राइफल और अन्य सभी आधुनिक हथियार थे। इसके बावजूद उन्होंने बड़ी आसानी से सरेंडर कर दिया। क्यों?

जानकारों का कहना है कि यह आंकड़ा बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है। अफगान सेना में कई घोस्ट सैनिक थे, यानी ऐसे सैनिक जो सिर्फ कागजों पर ही थे। इन सैनिकों के नाम पर, इनकी सैलरी के नाम पर भारी भ्रष्टाचार होता था। दूसरी बात ये कि अमेरिका और अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसियां तालिबान की सही ताकत का अंदाजा नहीं लगा पाईं। तालिबान ने सही रणनीति पर काम किया। बॉर्डर और दूसरे दूर-दराज के इलाकों में जो अफगान सेना के लोकल कमांडर्स थे उन्हें अपने भरोसे में लिया और लोकल ट्राइब्स (स्थानीय जनजाति) का हवाला देकर उन्हें सरेंडर के लिए तैयार कर लिया। वहीं अफगानिस्तानी फौज के सरेंडर होने की एक वजह ये भी है कि वहां रेग्युलर आर्मी में सिर्फ कमांडो को ही टैक्टिकल वॉर की ट्रेनिंग मिली हुई थी बाकी जवान केवल राइफल लेकर चल रहे थे और युद्ध कौशल नहीं जानते थे। इन सैनिकों का मनोबल बहुत कम था और उनका भरोसा लड़खड़ा गया। उन्हें लगता था कि बिना अमेरिका की मदद के तालिबान को हराना नामुमकिन है, इसलिए कई मोर्चे पर तालिबान को बिना लड़े ही कब्जा मिल गया।

उधर, तालिबान के अब नए दोस्त भी उसके समर्थन में सामने आ गए हैं। पाकिस्तान के अलावा चीन, रूस और ईरान ने उसे मान्यता देने का फैसला किया है। इन देशों ने कहा है कि वे अफगानिस्तान में अपने दूतावास बंद नहीं करेंगे। ये इंटरनेशनल रिलेशन्स के मामले में बड़ा बदलाव है। 1996 में जब अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा किया था उस वक्त सिर्फ केवल तीन देश पाकिस्तान, सउदी अरब और UAE ने ही तालिबान सरकार को मान्यता दी थी। इस बार चीन भी तालिबान के साथ है। चीन भले ही ये दावा कर रहा है कि इस बार तालिबान बदला हुआ है लेकिन अफगानिस्तान से जो तस्वीरें आ रही हैं वो डराने के लिए काफी हैं। तालिबान ने सभी महिला कर्मचारियों को काम पर नहीं आने का आदेश जारी कर दिया है। इसके साथ ही बुर्का पहनने, लड़कियों को स्कूल नहीं भेजने और रेडियो-टेलीविजन पर संगीत और नृत्य नहीं करने को कहा है। एक प्रांत में तालिबान ने संगीत और खेल से जुड़े परिसर में आग लगा दी।

असल में अमेरिका बीस साल से अफगानिस्तान में था। उसने 61 लाख करोड़ रूपए अफगानिस्तान में खर्च किए। इस अभियान के दौरान अमेरिका के 2300 से ज्यादा सैनिकों की जान चली गई। 75 हजार से ज्यादा अफगान सैनिक और पुलिस के जवान मारे जा चुके हैं। लेकिन इसके बाद भी अफगानिस्तान में तालिबान को अमेरिका खत्म नहीं कर पाया। अमेरिका को लगता था कि अब इस जंग को आगे खींचने का कोई मतलब नहीं है। अमेरिका के लोग भी नहीं चाहते थे कि अमेरिकी फौज लंबे वक्त तक अफगानिस्तान में रहे। वो अपने सैनिकों को मरते नहीं देखना चाहते थे। लेकिन अमेरिका के लोग ये भी नहीं चाहते थे कि उन अफगानों को भगवान भरोसे छोड़कर अमेरिकी फौज वापस आ जाए जो उनके साथ खड़े रहे। लेकिन अमेरिका ने जिस तरह से चुपचाप फौज को वापस बुलाया और उसके बाद तालिबान ने जिस तरह से बंदूक के बल पर पूरे मुल्क पर कब्जा किया उससे अमेरिका के लोग काफी नाराज हैं। अफगानिस्तान की आवाम को अपना भविष्य तय करने का कोई मौका ही नहीं मिल पाया।

ये बातें सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं कि संयुक्त राष्ट्र अब तालिबान से संयम बरतने की अपील कर रहा है। लेकिन अब इस अपील का क्या फायदा? अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ उसके बारे में दो बातें स्पष्ट हैं। पहली ये कि अफगानी फौज तालिबान के हमले के लिए कतई तैयार नहीं थी। वहां जंग सिर्फ नंबर से नहीं होती। फौज को आर्टिलरी,आर्मर, इंजीनियरिंग, लॉजिस्टिक्स, इंटेलीजेंस और एयर सपोर्ट की जरूरत होती है। इन सारी चीजों के लिए अफगानिस्तान की फौज पूरी तरह से अमेरिकी सेना पर निर्भर थी। जब तालिबान ने हमला किया तो अफगान आर्मी के पास ना तो कोई रणनीति थी, ना सप्लाई, ना लॉजिस्टिक्स। अमेरिकी सेना के अचानक चले जाने से अफगानी फौज पूरी तरह से हताश थी।

दूसरी बात ये कि जमीनी हालात का अंदाजा अमेरिका को भी नहीं था। अमेरिका का अंदाजा तो ये था कि तालिबान को काबुल तक पहुंचने में तीस दिन लगेंगे लेकिन तालिबान को वहां पहुंचने में तीन दिन भी नहीं लगे।अमेरिका तालिबान के इस तरह काबुल पहुंचने पर हैरत में है। उसने इमरजेंसी में अपने दूतावास को बंद करके अपने लोगों को किसी तरह निकाला।

वहीं पाकिस्तान ने इन हालात का पूरा फायदा उठाया है। इस पूरे सिस्टम की कमजोरी का फायदा उठाया।अमेरिकी फौज के जाने के बाद पाकिस्तान ने तालिबान को समर्थन दिया। जानकारों का ये भी कहना है कि तालिबान के जो लड़ाके हैं, उनमें कई सारे ऐसे हैं जिनका नाम अफगानी दिखाया गया है लेकिन असल में वो पाकिस्तानी हैं। यानी चेहरा अफगान का और काम पाकिस्तान का। पाकिस्तान की फौज ने तालिबान का पूरा-पूरा साथ दिया। इसीलिए सोमवार को इमरान खान ने कहा कि अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा एक अच्छी बात है और इसने अफगानिस्तान की गुलामी की जंजीरे तोड़ी है। इससे साफ है कि पाकिस्तान कैसे चीन के समर्थन से अफगानिस्तान में दखल दे रहा है और तालिबान को काबुल तक पहुंचाने में उसने पूरी मदद की।

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