Rajat Sharma

किसान खुद कह रहे हैं, नए कानून के बाद फसलों से हुई है ज्यादा आमदनी

राजस्थान के बारां में कुछ नौजावनों ने मिलकर किसानों का ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप से 1000 से ज्यादा किसान जुड़ चुके हैं। ये एक तरह का फार्मर प्रोड्यूसर्स ऑर्गनाइजेशन..यानी एफपीओ है। इस ग्रुप ने किसानों को इकट्ठा करने के बाद अब उन्हें मंडी और मार्केट के भाव बताने शुरू कर दिए हैं। व्हाट्स एप ग्रुप पर रोजाना किसानों को उनकी फसल की रेट पता चल जाते हैं। इसका फायदा ये है कि अगर मंडी के मुकाबले मार्केट में ज्यादा दाम मिलता है तो फिर किसान अपने उत्पाद को सीधे बाजार में बेच देता है और उसे मंडी जाने और दलाली देने की जरूरत नहीं पडती। इस ग्रुप का नाम अंता किसान एग्रो प्रोड्यूस है। इस ग्रुप के साथ इलाके के 12 गांव के किसान जुड़े हुए हैं। किसानों का कहना है कि पहले बिचौलियों की वजह से भाव कम मिलते थे लेकिन अब किसान अपनी मर्जी से फसल बेच सकता है और इसका पैसा भी खातों में डायरेक्ट पहुंच रहा है।

akb2711 पिछले आठ दिनों से हम देश के अन्नदाता किसानों की ऐसी तस्वीर देख रहे हैं जिससे तकलीफ होती है। नए कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर ये किसान ठंड के मौसम में दिल्ली के बॉर्डर पर रास्ता रोककर बैठे हुए हैं। इन तस्वीरों से साफ है कि किसान केंद्र के साथ लंबे टकराव के लिए पूरी तरह से तैयार हो कर आए हैं। पुलिस उनसे हाथ जोड़कर रास्ता खाली करने को कह रही है लेकिन किसानों पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हो रहा है। रास्ता बंद करने से आम लोगों को परेशानी होती है, यहां तक की सब्जियां पैदा करने वाले, दूध बेचने वाले किसानों का भी नुकसान हो रहा है लेकिन किसान अपनी बात पर अड़े हैं। किसानों की तरफ से कहा गया है कि अगर नए कृषि कानूनों को रद्द करने की उनकी मांगें नहीं मानी गई तो वो दिल्ली को सील कर देंगे।

किसान देश का पेट भरते हैं। देश में हर कोई किसानों को सम्मान करता है और किसानों के साथ खड़ा होता है इसलिए ये किसी को अच्छा नहीं लग रहा कि किसान सड़क पर सर्दी में ठिठुरें। सर्द रात में देश का अन्नदाता इस तरह खुले आसमान के नीचे बैठे। ये किसे अच्छा लगेगा? दफ्तर जाने के लिए घर से निकले लोग किसानों के प्रदर्शन की वजह से जाम में फंस गए। न आगे जाने का रास्ता था और न पीछे लौटने की जगह। कई तस्वीरें देखकर लगता है कि किसानों को बहकाया जा रहा है। कई ऐसे लोग दिखे जो किसानों के इस आंदोलन का राजनैतिक फायदा उठाने में लगे हैं। बुधवार की रात अपने प्राइम टाइम शो ‘आज की बात’ में, हमने दिखाया कि महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और उत्तराखंड में कुछ किसान नए कृषि कानूनों का फायदा उठा रहे हैं और अपनी फसल को मंडियों से भी ज्यादा कीमत पर बेचकर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। हमने दिखाया कि महाराष्ट्र के नासिक में किसानों में प्याज प्याज, केला, अंगूर और अन्य सब्जियों की नकदी फसलें उगाई और मंडियों में न जाकर सीधे व्यापारियों को ऊंची कीमत पर बेचकर अच्छा लाभ कमाया।

नासिक के नांदुर शिंगोटे गांव में रहने वाले विनायक हेमाडे नाम के किसान ने हरा धनिया बेचकर साढ़े 12 लाख रुपया कमाया। उसने अपनी 8 एकड़ जमीन में से 4 एकड़ जमीन पर इस साल के जुलाई – अगस्त महीने में करीब 40-50 हजार की लागत से हरा धनिया की फसल लगाई। करीब 45-50 दिनों तक फसल की दिन-रात देखभाल की और सितम्बर महीने में फसल तैयार हो गयी। अपने गांव से थोड़ी दूर के व्यापारी को जब इनकी फसल के बारे मालूम हुआ तो उन्होंने विनायक से संपर्क करके दाम लगाया। मोल भाव करके विनायक को अपनी फसल का साढ़े 12 लाख रुपये मिला। फसल तो वैसे भी बिक ही जाती लेकिन इस डील में विनायक को अपना माल थोक मंडी में ले जाने की जरुरत नहीं पड़ी और उसका सारी फसल व्यापारी खेत से ही ले गए। जिससे किसान का हजारों रुपये का ट्रांसपोर्टेशन खर्च बच गया। विनायक को इस तरह से अपनी फसल का पूरा पैसा भी एक साथ मिला और मंडी में धक्के नहीं खाने पड़े। नए किसान कानून के तहत ये प्रावधान है कि कोई भी किसान की फसल सीधे खरीद सकता है।

अब आपको गुजरात के मेहसाणा की बात बताता हूं। मेहसाणा कॉटन (कापस) की खेती के लिए मशहूर है। इस वक्त मेहसाणा में कॉटन की खरीद हो रही है। ज्यादातर किसान मंडियों में जा रहे हैं लेकिन जिन किसानों को नए कानून की जानकारी है वो मंडी के बजाए व्यापारियों से भी संपर्क कर रहे हैं और सीधे कॉटन मिल्स में अपना माल बेच रहे हैं। इंडिया टीवी संवाददाता को किसानों ने बताया कि कृषि कानून बनने के बाद किसानों ने अपने ग्रुप्स बनाए हैं ताकि व्यापारियों के साथ सीधी खरीद-फरोख्त कर सकें और जब एक बार डील क्लोज़ हो जाती है तो फिर व्यापारी खुद किसानों का माल उठाने के लिए ट्रक भेजते हैं। कुछ किसान बिना किसी ग्रुप के सीधे व्यापारियों से डील कर रहे हैं। किसानों ने बताया कि वो नए कानून की वजह से मंडी टैक्स से बच गए। इसमें पैसा तुरंत मिल रहा है और भाव मंडी से ज्यादा मिल रहा है। मंडी में 20 किलो कपास का रेट 1100 रुपए हैं जबकि कॉटन मिल 20 किलो कपास के 1140 रुपए दे रही है। इन किसानों का कहना है कि अब तक तो ऐसा होता था कि पहले किसान मंडी में अपनी फसल बेचने जाता था वहां उसे दलाल मिलते थे जो कम दाम पर फसल खरीदते थे और फिर मुनाफा लेकर मार्केट में या मिलों को बेचते थे। अब नया कानून आया है और इससे विचौलिए खत्म हो गए, दलाली खत्म हो गई। इसलिए किसान को सीधा फायदा हो रहा है।

उधर, उत्तराखंड में कई नौजवान खेती की तरफ लौट रहे हैं कोई मशरूम की खेती कर रहा है तो कोई कैप्सिकम यानी शिमला मिर्च उगा रहा है। हरिद्वार के मनमोहन भारद्वाज पहले हॉर्टिकल्चरिस्ट थे लेकिन बाद में ये मशरूम और शिमला मिर्च फार्मिंग में आ गए। उन्होंने पिछले कुछ महीनों में 10 एकड़ जमीन पर एक पॉली हाउस में शिमला मिर्च और केले की खेती शुरू की। मनमोहन ने कहा कि पहले वो जब मंडियों में अपनी फसल बेचते थे तो उन्हें अपनी फसल का काफी कम दाम मिलता था। पेमेंट में भी देरी होती थी लेकिन नए कानून बनने के बाद वो कहीं नहीं जाते। बड़ी-बड़ी कंपनियां उनके खेत पर आती हैं। फसल की कीमत भी ज्यादा मिलती है और तमाम तरह के सिरदर्द से भी बच जाते हैं। मनमोहन भारद्वाज ने बताया कि पहले उन्हें एक किलो हरी शिमला मिर्च के मंडी में 30 रुपए मिलते थे लेकिन अब वो इसे 60 रुपए किलो के हिसाब से बेच रहे हैं। इसी तरह एक किलो रंगीन शिमला मिर्च के भी अब 100 रुपए की बजाए 135 रुपए मिल रहे हैं।

राजस्थान के बारां में कुछ नौजावनों ने मिलकर किसानों का ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप से 1000 से ज्यादा किसान जुड़ चुके हैं। ये एक तरह का फार्मर प्रोड्यूसर्स ऑर्गनाइजेशन..यानी एफपीओ है। इस ग्रुप ने किसानों को इकट्ठा करने के बाद अब उन्हें मंडी और मार्केट के भाव बताने शुरू कर दिए हैं। व्हाट्स एप ग्रुप पर रोजाना किसानों को उनकी फसल की रेट पता चल जाते हैं। इसका फायदा ये है कि अगर मंडी के मुकाबले मार्केट में ज्यादा दाम मिलता है तो फिर किसान अपने उत्पाद को सीधे बाजार में बेच देता है और उसे मंडी जाने और दलाली देने की जरूरत नहीं पडती। इस ग्रुप का नाम अंता किसान एग्रो प्रोड्यूस है। इस ग्रुप के साथ इलाके के 12 गांव के किसान जुड़े हुए हैं। किसानों का कहना है कि पहले बिचौलियों की वजह से भाव कम मिलते थे लेकिन अब किसान अपनी मर्जी से फसल बेच सकता है और इसका पैसा भी खातों में डायरेक्ट पहुंच रहा है।

इन उदाहरणों से यह साफ है कि देश भर के अधिकांश किसान नए कानूनों के बारे में चिंतित नहीं हैं। सब कह रहे हैं कि नए कानूनों से उन्हें फायदा मिला है। इससे ये बात तो साफ हो गई कि कम से कम देश के सभी किसान ना तो नए कानूनों से नाराज हैं ना नए कृषि कानूनों को किसानों के खिलाफ बता रहे हैं। अब सवाल ये है कि आखिर फिर दिल्ली के बॉर्डर पर किसान धऱने पर क्यों बैठे हैं? उन्हें क्या दिक्कत है? उन्हें क्या नाराजगी है? किसानों के गिने चुने नेता तो बोलते हैं और अपने हिसाब से कानून को समझाते हैं। लेकिन जो वाकई में किसान हैं..उन भोले-भाले किसानों ने जो जबाव दिए वो सुनकर आप हैरान रह जाएंगे। पंजाब के गांवों से ट्रैक्टर की ट्राली में बैठकर पांच पांच सौ किलोमीटर की दूरी तय करके दिल्ली पहुंचे किसानों से पूछा गया कि भाई क्या दिक्कत है? कानून में क्या कमी है? तो ज्यादातर किसान भाइयों ने कहा कि काला कानून है, जब तक सरकार वापस नहीं लेगी तब बैठे रहेंगे। राशन पानी की कमी नहीं है। फिर पूछा कि कानून से क्या दिक्कत है? कानून काला क्यों है तो कुछ किसान चुप हो जाते हैं। कुछ कहते हैं कि इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं। बस इतना पता है कि सरकार ने काला कानून बनाया है और उसे वापस कराने आए हैं।

जरा सोचिए सीधे-सादे किसान नहीं जानते कि नया कानून क्या है, न उन्होंने कानून पढ़ा है और न ही किसी ने उन्हें कानून समझाने की कोशिश की है। और इन कानूनों को काला कानून बताकर जो लोग नेतागिरी कर रहे हैं, वो न तो किसान की भावना को जानते हैं और न किसान को फायदा पहुंचाना चाहते हैं। वो तो किसानों की परेशानी का फायदा उठाना चाहते हैं। वो तो कह रहे हैं कि अवॉर्ड वापसी होगी। रास्ता जाम होगा। इन सारी बातों का किसानों से क्या मतलब है। लेकिन नेतागिरी करने पहुंचे चंद्रशेखर और पप्पू यादव जैसे नेता अपनी दुकान चलाएंगे। हमेशा आंदोलन के लिए ख़़ड़ी रहने वाली मेधा पाटेकर और योगेन्द्र यादव फिर से लाइमलाइट में आ जाएंगे।

इस आंदोलन में ज्यादातर किसान पंजाब से आए हैं और पंजाब में 2 साल बाद चुनाव होने हैं। चुनाव को देखते हुए कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी पूरी तरह एक्टिव हैं। वामपंथी नेताओं ने अपने ट्रेड यूनियन वालों को किसान के बीच खड़ा कर दिया है। लेफ्टिस्ट छात्र नेता भी वहां डफली बजाने और नारे लगाने पहुंच गए हैं। लेकिन इन सब बातों को स्वीकार भी किया जा सकता है और बर्दाश्त भी किया जा सकता है, क्योंकि ये अपने लोग हैं। ये वो लोग हैं जो लोकतंत्र में अपनी बात कहने का अधिकार रखते हैं, आलोचना और राजनीति का अधिकार रखते हैं, लेकिन जब इस आंदोलन का फायदा विदेशी ताकतें उठाने लगे तो चिंता होती है।

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